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Sunday, August 19, 2018

वह वसुधैव कुटुंबकम का क्या हुआ?

वह वसुधैव कुटुंबकम का क्या हुआ?
भारत में  प्राचीन काल से अहिंसा ,बहुलतावाद और आतिथ्य का चलन था। इसे लेकर हमारी सभ्यता में कहानियां थीं। लेकिन यह धीरे-धीरे खत्म होता गया। हालांकि आतिथ्य अभी भी कायम है लेकिन बहुत छोटे स्तर पर या  व्यक्तिगत स्तर पर एक घरेलू कार्यक्रम है।  अब पैमाना बदल गया है और एक खास तरह की हिंसा ने उन पुरानी कहानियों के तथ्यों की  जगह ले ली है।
       अब हम जब सार्वजनिक रूप से किसी अजनबी व्यक्ति को देखते हैं तो एक नए तरह की हिंसा की अवधारणा मन में आती है। समाज विज्ञानी जॉर्ज सिमेल के अनुसार अजनबी वह है जो आज यहां है कल चला जाएगा ।बाहर के लोग पहले अजनबी होते हैं और जब एक जगह ठहर जाते हैं तब वे संदेह का विषय बन जाते हैं और चुनावी राजनीति मैं भय का वातावरण बन जाता है। आज भारत नागरिकता और राष्ट्र निर्माण की चुनौतियों का सामना नहीं कर रहा है बल्कि वह बाहर के लोगों के संकट और अपने समाज क्षरण से जूझ रहा है। भारत में  अब बाहर के लोगों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है ।एक समय था जब भारत अतिथियों के लिए द्वार खुले रखता था और बहुलतावाद का समर्थक था। यही कारण था कि हमारे देश में घुमंतू व्यापारी, चरवाहे इत्यादि आकर बस गए। बाहर के लोग यहां आकर यहां के ही हो जाते थे। काबुलीवाला की कहानी इसका सबूत है। ये लोग ना केवल बेहतरीन सामान देखा रहते थे बल्कि वहां से अपनी संस्कृति को लेकर आते थे । आधुनिकता ने प्रवासियों  का यह जादू खत्म कर दिया । प्रवासी आज आकर्षण का केंद्र नहीं हैं। प्रवासी या शरणार्थी आज घुमंतू व्यापारी हैं या युद्ध के शिकार हैं या विस्थापन अथवा राजनीति से पीड़ित हो अपना घर बार छोड़ कर आये हैं।आज प्रवासी समाज के विकास के लिए खतरा समझे जा रहे हैं । वास्तव में हमारा लोकतंत्र जहां बहुलतावाद, अल्पसंख्यकवाद और घुमंतू लोगों की इज्जत करता था वही आज उन प्रवासी नागरिकों की उपेक्षा कर रहा है। यह बात सब जगह है चाहे वह जर्मनी हो या अमरीका। ट्रंप तो मेक्सिको की सीमा पर  दीवार खड़ी करना चाह रहे हैं। राजनाथ सिंह और अमित शाह राष्ट्रीय रजिस्टर का ढोल पीट रहे हैं। बाहर के लोगों को सामाजिक गंदगी समझा जा  रहा है तथा इस गंदगी को साफ करने पर सबआमादा हैं। प्रवासी को  घुसपैठिया समझा जाता है, दूसरे देश से आया हुआ समझा जाता है या आक्रमणकारी समझा जाता है। यह विस्थापन केवल भौतिक नहीं है बल्कि अवधारणा जन्य  भी है। वे इन प्रवासियों को ना केवल नक्शे से बाहर निकालना चाहते हैं बल्कि अपनी अवधारणा और मन से भी बाहर निकालना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने नागरिकता के नाम से वर्गीकरण का एक संकीर्ण  संजाल तैयार किया है। राष्ट्रवाद का एक संकीर्ण नजरिया तैयार कर लिया है और  प्रवासियों को मानसिक ढांचे से बाहर निकाल दिया है। हमारे यहां जो राष्ट्रीय विचारधारा के लोग हैं वे उस पुराने  सोच से  इत्तेफाक नहीं रखते । गिरिराज किशोर की तरह लोग तो यह कहते हैं कि हर असंतुष्ट देशद्रोही है और उस को पाकिस्तान भेज देना चाहिए ।  यह हमारी राजनीतिक बिरादरी की सोच है।
      वस्तुतः प्रवासी जन  विडंबना और विरोधाभास पैदा कर रहे हैं। संविधान में मानवाधिकार को जहां मजबूत बनाया गया है वहीं नागरिकता के अधिकार को भी दर्शाया गया है। लेकिन इसके पीछे चुनावी राजनीति और बहुसंख्यकवाद की राजनीति  है। वह इसकी अलग व्याख्या करती है। यहां प्रवासी नफरत वस्तु बन कर रह जाते हैं । हर समय एक विरोध या कानून व्यवस्था की समस्या बनी रहती है और इस पर सरकार का ढीला रवैया स्थिति को और भंगुर बना देता है। व्यवस्था भी प्रवासियों को समाज विरोधी मानती है । इन से की गई मारपीट पर ध्यान नहीं दिया जाता है। साथ ही, इसे समाज की मंजूरी मिली रहती है ,चाहे वह मुम्बई में बिहारियों या तमिलों से शिवसेना का दुर्व्यवहार हो या असम में बंगाली समुदाय से संघर्ष अथवा दिल्ली में कश्मीरी नाइजीरियाई नागरिकों  या मुसलमानों से नफरत किया जाना है। सभी समझते हैं कि यह सामान्य चुनावी राजनीति है।
        प्रवासियों को घुसपैठिया मानकर उन्हें पीटना इन दिनों सामान्य बात हो गई है । शायद ही कभी प्रवासियों के खिलाफ हिंसा की निंदा होती है । यहां तक कि 1983 में नीली में हुई हिंसा जिसमें 2000 से ज्यादा लोग मारे गए थे वह भी इन्हें विचलित नहीं कर सकी। इस कांड में शामिल लोग मुतमईन थे कि वे बच जाएंगे । इन दिनों लगभग रोज ही स्थानीय राजनीति में राजनीतिक बड़बोलेपन का चलन बढ़ता जा रहा है। प्रवासियों को निशाना बनाना चुनावी राजनीति का तरीका है। महाराष्ट्र या असम में बिहारियों या मुसलमानों को घुसपैठिया  मानकर पीटना उनकी हत्या कर उन्हें सबक सिखाना हर दिन का तौर - तरीका बन गया है।  वस्तुतः राष्ट्रभक्ति का भाव इन दिनों ज्यादा ही उग्र हो गया है । आजकल जो पहचान की राजनीति है उसमें राष्ट्रीयता का भाव देश को प्रेम करने से नहीं बल्कि प्रवासियों से नफरत करने से है। नफरत और संदेह इन दिनों राजनीति के लिए कच्चा माल बन गए हैं। समसामयिक राजनीति भीड़ और प्रवासियों से नफरत के आधार पर पनपती है। नागरिकता की राजनीति से  पूरी दुनिया  ग्रस्त  है। लोकतंत्र को एक ट्रंप और एक नीली  का भय हमेशा बना हुआ है।  हम भारतीयों को  भी उसका आतंक व्याप रहा है । कब किसको किस आधार पर प्रवासी या बाहर का आदमी कह  दिया जाएगा यह तय नहीं है। जो असम में हो रहा है कल हो सकता है मुंबई में हो, दिल्ली में हो, कोलकाता या भोपाल में भी है । इसकी चरम परिणति विभाजन के रूप में ही होती है। राष्ट्र और लोकतंत्र को बचाना है तो  फिर सब को एकजुट होकर इस नई राजनीतिक सोच  से जूझना होगा।

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