सियासत की खुरदुरी ज़मीन मखमली कविताओं का रचयिता नही रहा
काल के कपाल पर
लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
आज नए गीत गाने वाला वह उद्गाता हमारे बीच नहीं रहा। सियासत की खुरदरी जमीन पर कविताओं की मखमली कालीन बिछाने वाला सरस्वती पुत्र अटल बिहारी बाजपेई आज हमारे बीच नहीं हैं। दरअसल अटल बिहारी वाजपेई मनुष्य नहीं थे एक विचारधारा थे, राजनीति में नैतिकता के बिंब थे।
25 दिसंबर 1924 को ब्रह्म मुहूर्त में ग्वालियर में जन्मे अटल जी के जन्म पर जहां घर में थाली बजाई जा रही थी वहीं उनके पड़ोस में गिरजाघर में घंटियों के साथ प्रभु ईसा मसीह के जन्मदिन की तैयारी हो रही थी। कविता कर्म उन्होंने घुट्टी में मिला था। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेई की कविताएं अभी भी लोग गाते- पढ़ते हैं । 15 वर्ष की उम्र से ही शाखाओं में जाने वाले अटल बिहारी ने 18 वर्ष की उम्र में संघ के लखनऊ शिविर में "हिंदू तन मन ,हिंदू जीवन" नाम की जो कविता पढ़ी आज भी उस कविता की ओज सुनने वालों के मन में ताजा है। तब किसी को इस बात का एहसास तक नहीं था 18 वर्ष का यह किशोर गायक आगे चलकर देश का प्रधानमंत्री बनेगा, और देश का सबसे ओजस्वी वक्ता माना जाएगा । बाजपेई की पहचान कविताएं और उनके भाषण हैं। भाषणों के बीच में मजाक और कविताओं का ऐसा सम्मिश्रण होता था कि श्रोता अभिभूत हो जाते थे। अटल जी के कई रुप थे। एक पत्रकार ,एक कवि ,एक राजनेता ,एक विचारक सबका सामंजस्य था एक भौतिक शरीर में। मिठाई के शौकीन अटल जी मिठाई खाने का कोई भी मौका छोड़ते नहीं थे। मिठाई के लिए कई बार कोलकाता के कलाकार स्ट्रीट में उन्हें घूमते देखा गया था। तब कोई नहीं जानता था कि यह हंसमुख सा आदमी , बात-बात में कविता सुनाने वाला नौजवान आगे चलकर भारत का प्रधानमंत्री बन जाएगा। वे अपने जीवन में नैतिकता को सर्वोच्च स्थान देते थे उनका मानना था कि
छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता
टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता
मन हार कर मैदान नहीं जीते जाते
न मैदान जीतने से मन ही जीता जाता है
अटल जी मन जीतने में विश्वास रखते थे और यही कारण था कि विरोधी भी उन्हें प्यार करते थे और करते रहेंगे। ना सम्मान की आकांक्षा थी ना पद की । बस उनका मानना था
काल के कपाल पर
लिखता मिटाता हूं
नित गीत नए गाता हूं
पद्म विभूषण और हिंदी गौरव सम्मान से सम्मानित बाजपेई जी पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण दे कर न केवल हिंदी का मान बढ़ाया बल्कि भारत को भी गौरवान्वित किया।
उस समय अक्सर लोग आपस में कहते थे
हिंदी में हिंद बोला
विश्व अचरज से डोला
1955 में पहली बार वे लोकसभा चुनाव लड़े तो जीत नहीं पाए ।1957 में दोबारा आजमाया और जीत गए । इसके बाद 20 वर्षों तक लगातार वह जनसंघ संसदीय दल के नेता रहे। 1977 में जनसंघ के भंग होने और जनता पार्टी के बनने के बाद वे नई सरकार में विदेश मंत्री बने। 2 वर्षों तक विदेश मंत्री रहे।1996 में प्रधानमंत्री बने लेकिन सरकार चल नही पाई और 13 दिनों में ही गिर गई। इसके पश्चात 1997 में प्रधानमंत्री बने लेकिन सरकार चल नहीं पाई और गिर गई । इसके बाद 1998 में उन्होंने पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और बिना किसी समस्या के सरकार 5 साल तक चलती रही। 24 दलों के इस गठबंधन में 81 मंत्री थे लेकिन सब बाजपेई जी से खुश थे।
देशभक्ति का जज्बा कुछ इतना था कि उन्होंने परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्रों की नाराजगी को दरकिनार कर देश में परमाणु परीक्षण किया । सन 1998 में जब राजस्थान के पोखरण में दूसरा परीक्षण हुआ सीआईए तक के होश उड़ गए थे । अटल बिहारी वाजपेई आज की गला काट संस्कृति में विश्वसनीयता के प्रतीक थे। आत्मीयता की भावना से आकंठ भरे हुए विज्ञान की जय करने वाले लोकतंत्र के सजग प्रहरी अटल बिहारी के मन में सब के लिए करुणा थी प्रेम था और वह कहते थे
मुझे कभी इतनी ऊंचाई मत देना प्रभु
कि गैरों को गले न लगा सकूं
कभी ऐसी रुखाई मत देना प्रभु
बहुतों को आज 14 बरस बाद भी वह मंजर याद होगा जब 13 मई 2004 को अटल जी कैबिनेट की आखिरी बैठक खत्म कर राष्ट्रपति भवन की ओर रवाना हुए। एनडीए चुनाव हार चुका था। कांग्रेस के दफ्तर में जश्न मनाया जा रहा था और सोनिया गांधी की ताजपोशी की तैयारी चल रही थी। इस्तीफे के बाद बाजपेई जी ने टीवी पर अपने भाषण में कहा "मेरी पार्टी और गठबंधन चुनाव हार गया है, लेकिन भारत जीत गया है।" बाजपेई जी को अगला विपक्ष का नेता बनना था लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि वे राजनीति से संन्यास की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। जिसने अपने भाषणों से, अपनी कविताओं से देश को मोह लिया था वह अब संन्यास की ओर बढ़ रहा था । वे 14 सालों से बीमार थे और धीरे-धीरे सार्वजनिक जीवन से गायब हो रहे थे । 2007 में वे अंतिम बार उपराष्ट्रपति चुनाव में वोट देने व्हील चेयर पर बैठकर आए थे। कौन जानता था कि संसद की यह उनकी अंतिम यात्रा है। 2009 में सांसद के रूप मे उनका कार्यकाल पूरा हुआ। वह उनका अंतिम कार्यकाल था। वे सक्रिय राजनीति से अलग हो गए। 2015 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया ,तो राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी खुद यह सम्मान देने उनके घर गए थे । आखरी बार पहिए वाली कुर्सी पर बैठे बाजपेई की वह तस्वीर बहुत लोगों ने देखी होगी।
बाजपेई जी की जिजीविषा का अंदाजा लगाना मुश्किल था। एक बार जब वे अपने गुर्दे का इलाज कराने अमरीका गए थे तो वहां से उन्होंने भारती जी को एक पत्र लिखा जिसमें कहा था,
ठन गई,
मौत से ठन गई।
जूझने का मेरा इरादा न था ।
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था।
रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई
यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।
मैं जी भर जिया मैं मन से मरूं
लौट कर आऊंगा
कूच से क्यों डरूं
हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए
प्यार इतना परायों से मुझे मिला
न अपनों से बाकी है कोई गिला
...और मौत से दो दो हाथ करते हुए उन्होंने हमसे विदा ले ली। लेकिन हमेशा वह याद रहेंगे। उनकी कविताएं सदा मन में जोश और ओज पैदा करती रहेंगी। वाजपेई जी का दर्शन था कि,
सत्य दोनों है
होना भी और नहीं होना भी
जो है उसका होना सत्य है
और जो नहीं है
उसका नहीं होना सत्य है
होना और ना होना
एक ही सत्य के दो आयाम हैं।
जो कल थे
वह आज नहीं है
जो आज हैं
वह कल नहीं होंगे
होने ना होने का क्रम
इसी तरह चलता रहेगा
लेकिन भारतीय मानस उन्हें कभी भूलेगा नहीं।
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