अर्चन् अनु स्वराज्यम
हमारे देश की आजादी का आज 71 वां वर्ष है। इस अवसर पर देश भर में जश्न मनाया जाता है। प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से भाषण देते हैं और नई योजनाओं झलक देते हैं। स्कूलों- कॉलेजों में 15 अगस्त या स्वतंत्रता दिवस के महत्व पर भाषण होते हैं और कार्यक्रम होते हैं। लेकिन ,क्या हम आश्वस्त हैं कि सब लोग स्वतंत्रता या देश का मतलब समझते हैं। कुछ साल पहले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने लिखा था
कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आंधी-पानी सहते हैं ।
उनसे पूछो 15 अगस्त
के बारे में क्या कहते हैं।।
सचमुच आजादी का क्या अर्थ है स्वतंत्रता या स्वराज्य के क्या मायने हैं?
ऋग्वेद का एक पूरा सूक्त (1.80) स्वराज्य की कामना है-"माययाव धीरर्चनु स्वराज्यं"। ऋग्वेद के 1.80.7 सूक्त के सभी 16 मंत्रों के अंत में 'अर्चन् अनु स्वराज्यम' है यानी स्वराज्य प्राथमिक आवश्यकता है कहा गया है। स्वराज समाज, संगठन व शासन से जुड़ा स्वभाव है। स्वराज के अभाव में स्वभाव का दमन होता है। स्वराज से प्रकृति -संस्कृति बनती है। भारत में वैदिक काल से ही स्वछंद, स्वरस, स्वानुभूति का स्वस्थ स्वतंत्र वातावरण था। धरती माता और आकाश पिता थे।
लेकिन,आज देश जिन अराजक स्थितियों से गुजर रहा है या गुजर कर यहां तक पहुंचा है क्या इसी हालात की कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी? जिन्होंने कहा था कहा था -
खुश रहना अहले वतन
अब हम तो सफ़र करते हैं
आज हर बात के लिए या तो यह सरकार जिम्मेदार है या तो इसके पहले वाली सरकार जिम्मेदार थी। जरा सोचिए कि हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं बनती है? आजादी के लिए हमारे पूर्वजों ने जो बलिदान दिए वह क्या हमारी पूंजी नहीं है ? यहां आइंस्टीन की एक बात याद आती है कि "आप क्या पाते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है ,आप क्या देते हैं यह महत्वपूर्ण है।" हमारे पूर्वजों ने जो मशाल जलाई थी और जो सपना देखा था कि अहले वतन खुश रहना- क्या उस सपने को साकार करने की जिम्मेदारी हमारी नहीं है? उन पूर्वजों की कुर्बानी को उनके जिगर के टुकड़े संभाल कर रख सकें यह जिम्मेदारी नहीं है? यहां प्रश्न है कि आजादी से आप क्या समझते हैं। इन दिनों तीव्र राष्ट्रभक्ति का ज्वार उमड़ रहा है और और इस नाम पर दूसरे की आजादी मैं कटौती की जा रही है। यहां यह समझना जरूरी है आजादी क्या है। दरअसल सांविधानिक आजादी से अलग भावनात्मक आजादी एक अमूर्त घटना है -आत्मा की घटना। नदीन गाडीमर ने लिखा है कि भावनाएं आत्मा की घटना होती हैं। आप आजादी को कागजों और कानून की किताबों में चाहे जितना परिभाषित करें जब तक देशवासी भीतर से महसूस नहीं करेंगे कि वे आजाद हैं और निर्भय हैं, तब तक आप इसे परिभाषित नहीं कर सकते। इसी भावना के चलते हजारों लोगों ने आजादी के लिए कुर्बानी दी। यह एक चिरंतन घटना है जो हर पीढ़ी की आत्मा में घटित होता है। दरअसल यह एक स्मृति है। जीवन से विराट और समय की सीमा से परे यही कारण है कि यह एक ऐसी संस्कृति में घटित होता है जहां मन के कोने में स्मृति का अन्तरगुम्फन होता है और इसी अन्तरगुम्फन के कारण पत्थर शिव बन जाते हैं और पहाड़ कैलाश ,राष्ट्र मां बन जाती है। एक जीवंत पवित्रता का द्योतक है। एक तरह की धार्मिक संवेदना है। इन्हीं आत्मीय उपकरणों से स्वतंत्रता की भावना एहसास होता है। आज के दिन हम अपने आख्यानों में देश के महान सपूतों का जिक्र करते हैं, जिन्होंने आजादी के लिए कुर्बानी दी ताकि इतिहास की पीड़ा को उस समृद्धि के साथ देख सकते हैं और महसूस कर सकते हैं। हममें से तो लगभग सभी ने इतिहास जरूर पढ़ा होगा लेकिन कितनों ने उसके समाजशास्त्र और दर्शन को महसूस किया है ? कभी सोचा है 200 वर्षों की कठोर गुलामी के बाद एक ऐसे राष्ट्र का उदय हो सकता है जो अपनी आजादी की संजीवनी अनेक स्रोतों से प्राप्त करता है। विख्यात इतिहासकार ई पी टॉप्सन ने लिखा है "भारत दुनिया का शायद सबसे महत्वपूर्ण देश जिस पर दुनिया का भविष्य निर्भर करता है पूरब या पश्चिम का कोई ऐसा विचार नहीं है जो भारतीय मनीषा में क्रियाशील ना हो।" दरअसल यही विचार इस देश को बचाए हुए है। इसी विचार से हम अपनी आजादी की संजीवनी प्राप्त करते हैं । आज कश्मीर को लेकर सबसे ज्यादा विवाद है । क्यों ,किस लिए?क्योंकि, कश्मीर केवल एक जमीन का टुकड़ा नहीं है बल्कि अलबरूनी के शब्दों में "हिंदू दर्शन और आध्यात्मिक शोध का काशी के बाद कोई स्थान था तो वह कश्मीर था।" चाहे वह बौद्ध दर्शन हो या राजतरंगिनी जैसी ऐतिहासिक रचना। उन सबको को हम अपने से कैसे पृथक कर सकते हैं। समय के साथ जमीन की सीमाएं धीरे धीरे संस्कृति के नक्शे में बदल जाती है और यही नक्शा हमारे आजादी का स्वप्न बनता है । अगर यह नक्शा कहीं खंडित होता है इन सपनों को आघात लगता है। यही कारण है की आजादी को समझना ,उसके प्रति संवेदनशील रहना और उसे बचाए रखना जरूरी है।
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