अबकी बार फिर भगवान भरोसे
हमारे देश में जब भी लोकसभा चुनाव आता है तो भाजपा को राम याद आने लगते हैं। लेकिन इस बार अखिलेश यादव को भी भगवान याद आने लगे हैं। उन्होंने दुनिया का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर बनाने का ऐलान किया है। दोनों दलों को यह लगता है के मंदिर का राग मतदाताओं को लुभा सकता है। इसकी मिसाल भी है। भारतीय जनता पार्टी राम मंदिर का राग अलाप कर तीन बार केंद्र और राज्य में सरकार बना चुकी है । इसी को देखते हुए यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने विष्णु का मंदिर बनाने का ऐलान किया है और भाजपा के लिए मुकाबला तगड़ा कर दिया है। शास्त्रों में राम और कृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है और विष्णु इस सृष्टि के पालनहार हैं। इसलिए अखिलेश यादव ने पालनहार को ही "साधने" की कोशिश की है।
उधर भाजपा राम धुन गा रही है। भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा से लेकर यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य तक कहते चल रहे हैं कि मंदिर बनाया जाएगा। यदि कोई विकल्प नहीं बचेगा तो संसद से इस पर कानून बना दिया जाएगा । यद्यपि मौर्य धीमे से यह भी कहते हैं कि वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं । भाजपा के पास एक बहाना यह भी है लोकसभा से विधेयक पास करा लेगी लेकिन राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के कारण समस्या आ जाएगी। इसलिए अभी विकल्प चुनने का वक्त नहीं है। सबको याद होगा कि यूपी में विधानसभा चुनाव जीतने के बाद योगी सरकार ने घोषणा की थी अयोध्या में भगवान राम की 108 फुट लंबी मूर्ति बनवाई जाएगी। इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ उधर अखिलेश यादव ने भारत में सबसे बड़ी कृष्ण की मूर्ति बनवा ली है और उसे सैफई में लगाया गया है। अभी उसका अनावरण बाकी है । वह इस मूर्ति के माध्यम से बताने की कोशिश कर रहे हैं कि जिस चीज का वादा करते हैं उसे पूरा करते हैं। इस बार वह भगवान विष्णु का मंदिर बनाने का वादा कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी विगत 30 वर्षों से राम के नाम पर यानी राम मंदिर बनाने के नाम पर वोट मांग रही है । 2014 के लोकसभा चुनाव में उसने राम मंदिर बनाने का वादा किया था यह बात दूसरी थी चुनाव में विकास का नारा देकर और कई जुमलों के बल पर नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीत लिया। लेकिन 2019 के चुनाव के लिए भाजपा को राम याद आने लगे है । ऐसा होने का एक खास कारण भी है कि 2004 के चुनाव में भाजपा और उसके गठबंधन की पराजय के बाद दिल्ली में भाजपा कार्यालय में नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक वी एस नायपाल ने बाबरी ढांचे को गिराए जाने का सूत्र पकड़ कर कहा था "अयोध्या कोई स्थान नहीं एक पैशन है और पैशन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए क्योंकि इससे रचनात्मकता बढ़ती है। " कुछ ऐसे क्षण है जो किसी भी देश के जीवन में इतिहास की धारा को बदल सकते हैं और समाज वैज्ञानिक मानते हैं के बाबरी ढांचे को गिराया जाना उन क्षणों में से एक था। केवल एक क्षण में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने की चुनौती भगवान राम के मंदिर बनाने के संकल्प में बदल गई । इस संकल्प ने देश के चिंतन को परिवर्तित कर दिया। इस चिंतन ने जातिवाद या कहें जाति के पैमाने को धर्म के पैमाने में बदल दिया। भारतीय समाज राम जन्मभूमि आंदोलन के कारण बहुलतावाद की तरफ बढ़ने लगा। बेशक नेहरु - गांधी के जमाने में भी बहुलतावाद की प्रवृतियां थीं किंतु उन नेताओं ने इस पर अंकुश लगा रखा था और संविधान इस अंकुश को वैध बना रहा था । 80 के दशक से यह बदलने लगा और बाबरी ढांचे के गिराए जाने के बाद ऐसा लगता है यह परिवर्तन यहां कायम रहेगा । अगर बाबरी मस्जिद को गिराया जाना कामयाब नहीं होता तो हिंदुत्व ताकतें यकीनन कोई दूसरा रास्ता अपना लेतीं। जैसे इन दिनों हम गोरक्षा से लेकर धर्म परिवर्तन तक के कारनामे देख रहे हैं । राम जन्मभूमि ने भावनाओं को धर्म से मिला दिया । जिस क्षण बाबरी मस्जिद गिराई गई उसी समय सांप्रदायिकता एक दूसरे स्तर तक पहुंच गई। कांग्रेस भी नरम हिंदुत्व की धारा में आ गई। अपनी फितरत के कारण कांग्रेस हिंदू राष्ट्रवाद मुख्य शक्ति नहीं बन पाई। इस घटना ने भारतीय राजनीति के परिदृश्य को बदल दिया और इसका असर आज ढाई दशक के बाद भी कायम है। मंदिर एजेंडा ने भाजपा को जातिवादी राजनीति की धार खत्म करने में सहयोग किया । इसका एक पक्ष यह भी है कि रामराज्य का वादा करके भाजपा परोक्ष रूप से सुशासन का वादा कर रही है। अब राम मंदिर कोई धार्मिक मसला नहीं रहा यह पूरी तरह राजनीतिक मसला हो गया है।
इसीलिए भारतीय जनता पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में राम मंदिर भी एक हिस्सा है। लेकिन पिछले ढाई दशक से इस मंदिर के बनाने के वायदे को पूरा नहीं कर पाने के कारण भाजपा पर आरोप लगने लगे हैं कि वह इसे केवल चुनाव जीतने के लिए इस्तेमाल करती है । वैसे भी हमारे देश में राजनीति प्रतीकों के सहारे चलती है। चाहे वह गांधी का नाम हो यह इफ्तार पार्टी या राम मंदिर में ताले लगाने - खुलवाने की बात हो या आडवाणी जी की रथयात्रा । राजनीतिज्ञों ने हमारे देश के इसी सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलतावादी भावनाओं को चुनाव में वोट बैंक के रूप में उपयोग किया है । बहुतों ने गौर किया होगा कि कांग्रेस भी पिछले कुछ समय से नरम हिंदुत्व की ओर बढ़ रही है। राहुल गांधी मंदिरों में जाने लगे हैं और उसे प्रचारित किया जाने लगा है। विकास और बेरोजगारी जैसे मुद्दे ओट में चले गए हैं। चुनाव आता है तो मंदिर हथियार के रूप में उपयोग होने लगता है। आज फिर मंदिर जनभावनाओं में प्रवेश करता दिख रहा है।
Monday, August 27, 2018
अबकी बार फिर भगवान भरोसे
Posted by pandeyhariram at 5:52 PM
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