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Friday, August 17, 2018

लाल किले से चुनावी व्यूह रचना

लाल किले से चुनावी व्यूह रचना

शेक्सपियर ने जूलियस सीज़र में कहा है कि "मनुष्य किसी चीज के बारे में अपने अनुसार सोचता है", दूसरी तरफ, विख्यात संचार विशेषज्ञ शैनन ने कहा है कि "यह एक मस्तिष्क का दूसरे मस्तिष्क पर प्रभाव है। " प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को 72 वें स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से सुनते हुए ऐसा लग रहा था क्यों वे कोई संकेत दे रहे हैं। यकीनन उनके समर्थक और विरोधी अपने-अपने ढंग से इस पर इसे सोचेंगे।
      वैसे सुनने में तो ऐसा लग रहा था कि उनके दावे हकीकत से दूर हैं।  प्रधानमंत्री का भाषण बेहद कलात्मक था और बड़े शक्तिशाली ढंग से उन्होंने इसे प्रस्तुत किया था।  जिस तरह से उन्होंने विरोधियों को नीचा दिखाया था वह काबिले तारीफ है। यह एक तरह से छलावा भी था एक तरह से खास किस्म छुपाव था और एक तरह से चुनौती  थी इसने । उन्होंने हमें यानी श्रोताओं को उम्मीदों के एक ऐसे कल्पना लोक में लाकर खड़ा कर दिया जहां भारत गतिशील था और सभी देशों के आदर प्राप्त है। देश भ्रष्टाचार से मुक्त है।  सरकार वह सभी कुछ गरीबों को दे रही है जिसे   हासिल करने के लिए वे मुंतज़िर थे और हैं। देश में पुर्णतः पोषण है।  बिजली ,गैस, आवास ,स्वास्थ्य ,न्यूनतम समर्थन मूल्य,  हवाई अड्डे, हवाई जहाज, फाइबर ऑप्टिक्स आई आई टी है ,ऐम्स है,  नई तकनीक है शौचालय हैऔर यहां तक कि एक भारतीय अंतरिक्ष में भी दिखाई पड़ रहा है।
     देश सामाजिक समावेश का  मॉडल है जिसमें सरकार गरीबों तथा हाशिए पर खड़े लोगों के प्रति अत्यंत संवेदनशील है। यहां तक कि पिछड़ी जातियों के लिए कानून पास करने में  संसद  में कोई शोर नहीं हुआ। खेल से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ,रसोई घर से लेकर मैदान-ए-जंग तक हर क्षेत्र में महिलाओं का सशक्तिकरण हो रहा है । प्रधानमंत्री ने कहा भ्रष्टाचार अब बीते दिनों की बातें हो गई । दलाल खत्म हो रहे हैं, इमानदारी दिखाई पड़ रही है। करदाता एक तरह से धर्म कमा रहे हैं। वे अच्छा काम भी कर रहे हैं और गरीबों की मदद भी कर रहे हैं ।सारी दादागिरी खत्म हो गई है । फैसले जल्दी दिए जा रहे हैं और दोषियों के लिए कठोर हो रहे हैं। भारत सभी दिशाओं में विकास की ओर बढ़ रहा है।
         यह सारी बातें एक तरह से तिलस्मी थी और सरकार के बचाव में थी। उन्हें बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रेषित किया गया था।  पूरे 80 मिनट का भाषण एक तरह से सच और कल्पना का मिश्रण था और खुद की पीठ थपथपाने की तरह था। लेकिन ,राजनीतिक नजरिए से इस भाषण पर सवाल उठते हैं कि  इतने काल्पनिक भाषण में कैसे अर्थव्यवस्था की हकीकत को समझा जा सकता है? क्या इसमें कोई सच्चाई भी थी या केवल बातें ही बातें थी? क्या सचमुच लोग यह मान लेंगे कि केवल सर्जिकल हमले से ही हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं? अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री इस पर बहस करेंगे? क्या कामकाज की तुलनात्मक तारीखी बदल जाएगी? प्रधानमंत्री का भाषण 2013 के संदर्भ में ज्यादा था। ऐसा लग रहा था कि उसी समय भारत सचमुच आजाद हुआ। वह भूल रहे थे की तत्कालीन सरकार के शासनकाल में 7.7 प्रतिशत की विकास दर थी।  यही नहीं , एक और गंभीर प्रश्न कि एक लय  और एक उद्देश्य से देश विकास यह पथ पर बढ़ रहा है। जैसी उम्मीदों के तिलस्म में प्रधानमंत्री ने श्रोताओं को खड़ा किया है क्या वह विश्वसनीय है? उन्होंने देश में  व्याप्त आतंक को बिल्कुल ओट में कर दिया। जो देश का वातावरण है क्या उसे सरकारी योजनाओं के पर्दे के पीछे छिपाया जा सकता है । अगर कोई सोचता है कि स्वाधीनता दिवस पर यह भाषण भय को खत्म कर देगा तो वह धोखे में है। प्रधानमंत्री ने कश्मीर के बारे में उन वादा किया कि वह इंसानियत ,कश्मीरियत और जम्हूरियत के वाजपेई जी के फार्मूले को अमल में लाएंगे । लेकिन वे शायद यह नहीं समझ पा रहे हैं कि 2014 में यह वादा था, एक उम्मीद जगाता था । लेकिन, यह 2018 है। इस समय धोखा और कश्मीर के मामले से निपटने में अयोग्यता की मिसाल है।
       पूरे भाषण में एक खास किस्म की जिद्द दिखाई पड़ रही थी । नोटबंदी के कारण हुई कठिनाइयां ,उसकी असफलता पर प्रधानमंत्री चुप रहे । वह जानबूझकर की  गयी ऐसी करवाई थी जिसने देश की जनता को कठिनाइयों में डाल दिया था। प्रधानमंत्री का कहना एक तरह से संकेत था कि ' पिछली सरकार की असफलताओं को याद रखो और हमारी भूल जाओ ।' यह एक बात जनता को सरकार इरादों  के बारे में नर्वस कर रही थी।
           एक और बड़ी बात , जिसका प्रधानमंत्री ने जिक्र तक नहीं किया ।  चारों तरफ एक भय का वातावरण बना हुआ है कि जो असंतुष्ट है वह  जोखिम में है। अल्पसंख्यकों को हाशिये पर लाया जा रहा है। नई  तरह की हिंसा सामने आ रही है और एक खास किस्म का गुंडागर्दी शुरू हो गयी है जो सरकार और शासन से समर्थित है । यह स्थिति आजादी की अभिव्यक्ति को धूमिल करती है। प्रधानमंत्री ने इसे स्वीकार ही नहीं किया और ना कोई ऐसा संकेत दिया कि वह इस का मुकाबला करेंगे।
         बेशक स्वाधीनता दिवस के भाषण में ऐसी बातें स्वीकार नहीं की जाती हैं लेकिन उनका जिक्र तो होता ही है । जिनका जिक्र ना करके प्रधानमंत्री ने दो बातें करनी चाही है। पहली कि जो लोग  ऐसा महसूस  कर रहे हैं  वे   शासन   के दायरे से बाहर हैं दूसरा जो लोग इस  आतंक को नहीं मान रहे हैं वह राजनीति के लिए ज्यादा स्वीकार्य हैं। खासकर जहां कल्पना और उम्मीद का वातावरण वहां इस तरह के  भय अनुभूति क्या मोदीजी के बुलबुले को फोड़ने के लिए काफी है ,या लोकतंत्र का यह मूलभूत मूल्य खत्म हो रहा है ?  दूसरे कि मोदी जी अभी भी हमें इस तिलिस्म में रखना चाहते हैं कि सरकार जो कह रही है वही सही है और यह एक मजबूत सरकार है। विपक्ष को इस चुनौती का मुकाबला करना होगा और भय की बात का प्रचार करने के बदले  जरूरी है कि वह मोदी जी के कल्पना लोक की हकीकत लोगों को बताए। उनका भाषण एक और प्रश्न सामने रखता है कि मोदी जी जो कह रहे हैं क्या वही सच है या उसे सच मानना हमारी कमजोरी है या फिर हम में वह ताकत है कि बता सकें कि हमारी सरकार से जो उम्मीदें हैं उसे  पूरी करनी होगी ।आपके लिए यही जरूरी है और भारत को इसी की उम्मीद करनी चाहिए।

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