2019 में क्या होगा
एक अजीब सवाल है सत्ता के गलियारों से लेकर कर फुटपाथ तक ,संसद से सड़क तक। सब जगह यह सवाल पूछा जा रहा है कि 2019 में क्या होगा? लोग अपने-अपने तरह से इसका उत्तर दे रहे हैं। 2019 के चुनावों की अगर इतिहास से तुलना करें तो दो मॉडल सामने दिख रहे हैं। पहला 1971 का मॉडल। जब इंदिरा जी ने विपक्षियों को धूल चटा दी थी। या, फिर 2004 का मॉडल जब अजेय अटल बिहारी बाजपेई फिसड्डी पार्टियों के गठबंधन से हार गए थे। यह दोनों चुनाव इसलिए भी 2019 से मिलते हैं कि दोनों स्थितियों में विपक्षियों ने एकजुट होकर दिग्गज सत्ताधीशों से जोर आजमाया था। उस समय के आंकड़े बताते हैं की ज्यादातर लोकसभा सीटों पर मुकाबले सीधे थे लेकिन दोनों के नतीजों में जमीन आसमान का फर्क आया। अब मोदी जी का क्या होगा ? इसका अनुमान लगाने के लिए पहले 2004 और 1971 के चुनावों के डायनामिक्स को समझते हैं। पहले देखते हैं 1971 की पृष्ठभूमि । 1971 के पहले 5 सालों में भारत ने दो प्रत्यक्ष युद्ध लड़े। पहला 1962 में चीन से और दूसरा 1965 में पाकिस्तान से। इसी अवधि में हमारे देश को दो अत्यंत लोकप्रिय प्रधानमंत्रियों को खोना भी पड़ा। पहले 1964 में जवाहरलाल नेहरू और दूसरे 1966 में लाल बहादुर शास्त्री। इस दौरान अमरीकी शासन भारत के प्रतिकूल था और भारत में सूखा पड़ा था। इतना भयानक सूखा कि कई स्थानों पर लोगों ने पेड़ के पत्ते खाकर गुजारा किया। ऐसे में इंदिरा जी ने सत्ता की बागडोर संभाली। उस समय कांग्रेस में सिंडिकेट बड़ा ही ताकतवर था और उसे यह गुमान था कि वह इंदिरा जी को काबू में रखेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 1969 में कांग्रेस विभाजित हो गई । कांग्रेस दो हिस्से में बंटी। एक कांग्रेस (ओ) और दूसरा कांग्रेस (आर)। कम्युनिस्टों के समर्थन से इंदिरा जी प्रधानमंत्री बनी रहीं। लेकिन जब कम्युनिस्टों का दबाव असह्य हो गया तो इंदिरा जी ने चौथी लोकसभा को अवधि पूरी होने के पहले ही भंग कर दिया और भारत का पहले मध्यावधि चुनाव का बिगुल बजा। मोर्चे बन गए। कांग्रेस (ओ), जनसंघ ,स्वतंत्र पार्टी और एसएसपी का गठबंधन हुआ। जिसका नाम नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट (एनडीएफ ) रखा गया। इस गठबंधन ने " इंदिरा हटाओ लोकतंत्र बचाओ" का नारा दिया। दूसरी तरफ इंदिरा जी ने बड़ी चालाकी से "गरीबी हटाओ" का नारा दिया। इंदिरा गांधी भारी मतों से चुनाव जीत गईं और 5 वीं लोकसभा में एन डी एफ के महज 49 सदस्य ही आ पाए। इंदिरा जी ने अथक मेहनत की। उन्होंने सैकड़ों सभाओं को संबोधित किया। 1971 के आईने में देखें तो 2019 की स्थितियों में रहस्यमय समानता है।
अब जरा 2004 में आते हैं । वाजपेई जी को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। पहले 1996 में 13 दिनों की सरकार बनी, फिर 1998 में 13 महीनों की सरकार बनी इसके बाद 1999 में 5 साल तक वे सत्ता पर कायम रहे । बाजपेई जी की चमक का अंदाजा इसी बात से लगता है कि वह बिल क्लिंटन की मेजबानी करने वाले प्रधानमंत्री थे। 1978 में कार्टर के बाद क्लिंटन भारत आने वाले पहले अमरीकी राष्ट्रपति थे । वाजपेई जी शांति बस लेकर लाहौर गए, पोखरण में परमाणु परीक्षण किया और कारगिल की जंग लड़े। 2004 के चुनाव में उनका जीतना लगभग निश्चित था। लेकिन ऐसा हुआ नहीं । जबकि उस दौरान जितने ओपिनियन पोल हुए सब में वाजपेई जी को जितना निश्चित बताया गया। वाजपेई जी की लोकप्रियता भाजपा से ज्यादा थी। इंडिया शाइनिंग का नारा विश्वास का आईना था। लेकिन हवा का रुख बदलने लगा और कांग्रेस ने कई पार्टियों के साथ गठबंधन की। सारी खूबियों के बावजूद बाजपेई जी की सरकार नहीं बन सकी और सोनिया गांधी की कांग्रेस जीत गई। कई और समानताएं हैं । 2004 के चुनाव से। जैसे सहयोगियों का चुनाव तथा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में पुराने वादों की स्थिति इत्यादि ।
अब सवाल उठता है मोदी जी जैसे ताकतवर नेता के लिए क्या 1971 जैसा नतीजा होगा या 2004 जैसा । यहां थोड़ा सा फर्क है। 1971 में इंदिरा गांधी के जीतने की उम्मीद बहुत कम थी जबकि 2004 में वाजपेई जी के हारने की उम्मीद बहुत कम थी। अब मोदी जी के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव में देश क्या फैसला करता है यह तो भविष्य बताएगा।
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