सवर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण और सियासत
अभी हाल में मोदी जी की सरकार ने सवर्णों को आरक्षण दिया। मजे की बात है कि लोकसभा और राज्यसभा में मामूली बहस के बाद इसे पारित कर दिया गया। लेकिन सदन से बाहर इसे लेकर कई मंचों पर तीव्र विरोध दर्ज कराए गए। आरक्षण हासिल करने की दो कैटेगरी है पहला कि जिस व्यक्ति की घरेलू आय 8 लाख रुपए और उसके पास खेती की जमीन 5 एकड़ हो। चुनाव के मद्देनजर इसे गेम चेंजर माना जा रहा है या कहें चुनावी ब्रह्मास्त्र माना जा रहा है। लेकिन सच तो यह है इसमें कई भारी गड़बड़ियां हैं जो आगे चल कर हिंसा को बढ़ावा दे सकती हैं।
सबसे बड़ी गड़बड़ी आंकड़ों का अभाव है। सबसे बड़ा अभाव जातिगत और आर्थिक जनगणना का है। इस स्थिति को देखते हुए सरकार की मंशा स्पष्ट हो जाती है । भारत में कितनी जातियां हैं उनमें सवर्ण में कितने हैं शायद किसी को मालूम नहीं। हमारे देश में जनगणना एक पुरानी कसरत है। इसमें एक नियत समय पर सरकारी स्कूल के शिक्षक घर-घर जाते हैं और हर आदमी को गिनते हैं। उनके बारे में जानकारियां एकत्र कर लेते हैं। यह 1881 से चल रहा है। लेकिन 2011 में एक अलग तरह की गणना शुरू हुई। वो थी सोशियो इकोनामिक एंड कास्ट सेंसस। यह जनगणना 2011 के जून में आरंभ हुई और इसे दिसंबर में पूरा होना था। सरकार के मुताबिक समग्र विकास के लिए इसका बहुत महत्व है। इसका उपयोग 12वीं पंचवर्षीय योजना में किया जाना था। लेकिन यह जनगणना मार्च 2016 में खत्म हुई इस पर 4893 करोड़ रुपये खर्च हुए । इसका लक्ष्य देश में जातिगत आंकड़े एकत्र करना था। लेकिन, 12वी पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल खत्म हो गया और अब देश 13वीं पंचवर्षीय योजना में प्रवेश कर रहा है। आंकड़ों का कहीं कोई विवरण नहीं है। एक बार जुलाई 2015 में नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया के नेतृत्व में एक एक्सपर्ट कमेटी बनी थी और उस जातिगत गणना फील्ड सर्वे रिपोर्ट की एक झलक प्रकाशित हुई थी । उसके अनुसार देश में 46 लाख जातियां, उपजातियां और गोत्र हैं। अब न अरविंद पनगढ़िया हैं और ना ही उस एक्सपर्ट कमेटी के किसी सदस्य का नाम सामने है। सरकार ने 9 अगस्त 2018 को राज्यसभा में एक सवाल के तहत स्वीकार किया था इस एक्सपर्ट ग्रुप का कभी गठन नहीं हुआ इसलिए आगे की कार्रवाई यह रिपोर्ट आने का कोई सवाल ही नहीं है। देश का 5000 करोड़ रुपया खर्च कर कुछ नहीं मिला सरकार को। यह मालूम नहीं है कि देश में विभिन्न जातियों के लोग कितने हैं उनमें सवर्ण कितने हैं और पिछड़े कितने हैं। उनकी आर्थिक स्थिति कैसी है। हमारे देश में जाति संबंधित नीतियां बनती हैं, विभाग बनते हैं लेकिन यह सब बिना किसी आंकड़े के काम करते हैं । सबसे बड़ी बात है जिसे लेकर सबसे बड़ा बवाल है वह कि हमारे देश में कौन सी जाति पिछड़ी है इसका कोई प्रमाणिक आंकड़ा नहीं है। जो कुछ है वह 1931 के आंकड़ों के आधार पर है या तो फिर मनमाने तरीके से तय कर दिया जाता है । यही कारण है कि विभिन्न जातियां लगातार दबाव डालती हैं कि उन्हें ओबीसी में शामिल कर लिया जाए।
ऐसे में सरकार सवर्णों को आरक्षण देने की बात कर रही है। सबसे बड़ी बाधा तो कौन सवर्ण है और इस आरक्षण के काबिल है यह कैसे साबित होगा। ऐसे बहुत से लोग मिल जाएंगे जो बीपीएल कार्ड के लायक नहीं हैं फिर भी बी पी एल कार्डधारक हैं। उनकी अच्छी आय है। अगर गरीबी का यही या ऐसा ही पैमाना है और उनके आधार पर आरक्षण देने की बात होगी तो कैसे-कैसे लोग आरक्षण पायेंगे और कैसे लोग वंचित रह जाएंगे इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है । यही नहीं जातियों के भीतर और जातियों के बीच में आर्थिक आधार पर भेदभाव आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन सीमा रेखा को धुंधला कर देगा।
जनगणना के जो आंकड़े 2012 में तैयार हुए थे उनके आधार पर ही एक बार इस ताजा स्थिति का विश्लेषण करें । उन आंकड़ों में आय का विवरण भी था। देश की ग्रामीण आबादी का लगभग 98. 91% और शहरी आबादी का 96.7% भाग 8लाख से कम आमदनी वाला है । यह आंकड़ा 2012 का है। आय के 4 सोपान तय किए गए हैं । पहला दो लाख से नीचे वाले, दूसरा 2 से 5 लाख रुपए आय वाले ,तीसरा 5 से 8लाख रुपये वाले और चौथा 8 लाख से ऊपर आय वाले। ग्रामीण आबादी में 86% ऐसे परिवार हैं जिनकी आय 2 लाख रुपए से कम है। लगभग 11% परिवार की आय 2 से 5 लाख की है और 1.8% परिवार की आय 5 से 8 लाख रुपए की है। अब बचे हुए 1% कुछ ज्यादा परिवार ऐसे हैं जिनकी आय 8लाख रुपये से ऊपर है । शहरी आबादी में और चौंकाने वाले तथ्य हैं। वहां 64% ऐसे परिवार है जिनकी आय 2लाख रुपये से नीचे है। कहा जा सकता है देश की ग्रामीण आबादी में तीन चौथाई से ज्यादा परिवार ऐसे हैं जिनकी आय 2लाख रुपए से कम है । अब हा दो स्थितियां उभर कर आती हैं पहली अगर कम आय आरक्षण का आधार है तो ज्यादा ग्रामीण आरक्षण के काबिल हैं शहरी आबादी के मुकाबले।
यही नहीं, जातियों को लेकर भी बड़ा अंतर है। उपरोक्त आंकड़ों के अनुसार शहरों में जो ब्राह्मण परिवार हैं उनमें 46% ऐसे हैं जिनकी 2लाख रुपयों से कम आय है और 36% ऐसे हैं जिनकी आमदनी दो लाख से 5लाख है। अन्य सवर्णों में यह थोड़ी ज्यादा है । अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति और जनजाति में हालत और खराब हैं ।इनमें 2 लाख रुपयों से कम आय वाला वर्ग 69% है और उससे ज्यादा तथा पांच लाख से कम आय वाला वर्ग 25% है । इससे साफ जाहिर होता है की आर्थिक और सामाजिक पिछड़ापन एक दूसरे से संबंधित हैं ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है की आरक्षण के लिए आर्थिक पिछड़ापन एक दर्जा हो सकता है। सरकारी नौकरियों के अभाव में इस तरह का आरक्षण एक तरह का भ्रम पैदा करेगा और इसका नतीजा हिंसा में दिखाई पड़ने लगेगा। गलत या काल्पनिक अंतर केवल खराब राजनीति ही नहीं अर्थव्यवस्था के लिए भी हानिकारक है।
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