मोदी की विदेश नीति को सबसे बड़ी चुनौती
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति को इस समय सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ भारत और पाकिस्तान कुलभूषण जाधव के मामले को लेकर हेग में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में उलझे हुए हैं, दूसरी तरफ पैरिस में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स के साथ रस्साकशी चल रही है। अब दोनों अपने-अपने मित्रों के बल पर जैश ए मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने के लिए राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में उलझेंगे । यहां घर में कश्मीर में वर्चस्व के लिए संघर्ष 1947 से चल रहा है लेकिन उन संघर्षों की कोई भी घटना भारत के स्मृति में उतनी ताजा नहीं है जितनी मसूद अजहर को रिहा किये जाने के फैसले की है। अटल बिहारी बाजपेई सरकार ने 1999 में अपहृत विमान के 180 यात्रियों की जान के बदले तीन आतंकियों को रिहा करने का फैसला किया था। ये तीन आतंकी मसूद अजहर उमर शेख और मुस्ताक जरगर थे। 31 दिसंबर 1999 को आज के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, जो उस समय भारतीय खुफिया ब्यूरो के अफसर थे, भारतीय विदेश मंत्रालय में पाकिस्तानी मामलों के सचिव विवेक काटजू के साथ विदेश मंत्री जसवंत सिंह के विमान के उतरने का इंतजार कर रहे थे ताकि वे इन तीनों आतंकियों को विमान अपहर्ताओं को सौंप सकें । मसूद अजहर के लिए भारत नया नहीं है। वह 1994 में एक पुर्तगाली पत्रकार के जाली पासपोर्ट पर भारत आया था। उसे गिरफ्तार कर लिया गया और उसने कबूल किया कि वह हरकत उल मुजाहिदीन और हरकत उल जिहाद अल इस्लामी को हरकत उल अंसार के अंतर्गत शामिल करने के मिशन पर आया था। उस समय मसूद अजहर हरकत उल अंसार का सेक्रेट्री था।
आज फिर अजीत डोभाल पाकिस्तान पर आरोप की तख्ती थामे सबके सामने खड़े हैं। कुलभूषण जाधव मामले के अलावा वह इस समय पुलवामा हमले को लेकर भारत के व्यापक जवाब की रणनीति तैयार करने में जुटे हैं। इन 20 वर्षों में तब के भारत और आज के भारत में जो सबसे ज्यादा अंतर आया वह है भारतीय राजनीति में विखंडन । 1999 के अप्रैल में बाजपेई सरकार 1 वोट से हार गई थी लेकिन जब 1 महीने के बाद कारगिल का हमला हुआ तो वे देश के कार्यवाहक प्रधानमंत्री थे और उन्होंने पाकिस्तान को नियंत्रण रेखा से लौटने के लिए मजबूर कर दिया था । उस समय कांग्रेस और बाकी सभी विपक्षी दलों ने बाजपेई जी का समर्थन किया था । जब विमान अपहरण हुआ था और वाजपेई जी ने आतंकियों को लौटाने का फैसला किया था तो कांग्रेस चुप थी।राजनीतिक हमले बहुत बाद में होने शुरू हुए।
आज पुलवामा हमले के बाद कांग्रेस पार्टी और विपक्षी दल सरकार के समर्थन में हैं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह देशभर में घूमते फिर रहे हैं, विकास योजनाओं का उद्घाटन कर रहे हैं, लेकिन हर कदम पर पाकिस्तान को करारा जवाब देने की प्रतिज्ञा भी कर रहे हैं। इस बीच पंजाब विधानसभा में भाजपा के सहयोगी दल अकाली दल ने कांग्रेस से मांग की है कि वह नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी से निकाल दे। क्योंकि सिद्धू ने पुलवामा हमले पर देश विरोधी बयान दिया था। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है वहां के लोग सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलाम के इस बयान को लेकर काफी उत्साहित हैं , जिसमें युवराज ने कहा है कि "पाकिस्तान उन्हें अरब विश्व में अपना राजदूत माने।" यकीनन भारत इसलिए अपनी पीठ थपथपा सकता है कि उसने भी मोहम्मद बिन सलाम को भारत बुला लिया। यही नहीं आतंकवाद के मामले में उन्होंने भारत का साथ भी दिया। उन्होंने आतंकवाद की निंदा की है पर पाकिस्तान की भूमिका पर चुप रहे। उधर अमरीका को लेकर पाकिस्तान आश्वस्त है । क्योंकि वह जानता है कि तालिबान से वार्ता में सफलता के लिए उसे पाकिस्तान की जरूरत पड़ेगी। यही कारण है अभी तक कहीं भी यह बात नहीं आई है कि पुलवामा हमले पर मोदी के समर्थन में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कोई ट्वीट किया हो। अमरीकी राष्ट्रपति ने यह बोझ अपने सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन पर डाल दिया है कि जो कहना वह कहें । इधर रूस भी एक सर दर्द बना हुआ है। अभी जनवरी में ही रूसी बिजली कंपनी आर ए ओ इंजीनियरिंग ने कहा था कि वह पाकिस्तान में बिजली क्षेत्र में 2 अरब डालर का निवेश करना चाहती है। इसी महीने रशिया की गजप्रोम कंपनी ने पाकिस्तान के इंटर स्टेट गैस सिस्टम के साथ एक समझौता हस्ताक्षर किया है। इसके अलावा चीन पाकिस्तान का पुराना दोस्त है ही।
पुलवामा कांड जहां नरेंद्र मोदी के लिए घरेलू चुनौती है वहीं उनकी विदेश नीति के लिए भी चुनौती है । कश्मीर में राजनीतिक शून्य बढ़ता जा रहा है और जनता बेचैन है। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है उसके संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह जरूर सोच रहे होंगे कि वे अपने पश्चिमी पड़ोसी पाकिस्तान पर विदेशों में अपने मित्रों और भारत के प्रभाव का उपयोग कर दबाव बना सकते हैं । अब यह तो समय बताएगा कि क्या ऐसा हो सकता है। परंतु फिलहाल यह स्थिति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश नीति के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़ी है।
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