राफेल सौदा: सच शायद ही पता चले
जैसे-जैसे चुनाव के दिन नजदीक आ रहे हैं राफेल युद्धक विमानों के सौदे को लेकर माहौल गर्म होता जा रहा है। इसी बीच बुधवार को राज्यसभा में लेखा महापरीक्षक एवं नियंत्रक की रिपोर्ट पेश की गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि एनडीए सरकार ने पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा किए गए सौदे से 2.86 प्रतिशत कम कीमत पर सौदा तय किया है । साथ ही इसमें जरूरत के अनुसार कई नए फीचर जोड़े गए हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि फीचर जोड़े जाने के बावजूद पूरा सौदा सस्ता पड़ा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पहले 126 विमानों के लिए सौदा किया गया था। इसके बाद भारतीय जरूरतों के अनुसार कुछ परिवर्तन परिवर्तन के करवा कर 36 विमानों का सौदा किया गया इसके बावजूद बड़ी रकम बचाई गई । रिपोर्ट में कहा गया है कि विमान चलाने के लिए जो सहायता उपकरण दिए गए हैं उस मानदंड पर भी एन डी ए का सौदा सस्ता है । यही नहीं हथियारों की पैकेज भी इस सौदे में सस्ती है। वैसे अगर गंभीरता से देखें तो यह रिपोर्ट भी पूरी तरह विवाद मुक्त नहीं है। इसमें कीमतों को तय करने को लेकर कई विवाद बिंदुओं को शामिल ही नहीं किया गया है और इसे रक्षा मंत्रालय की गोपनीयता के परदे में छुपा दिया गया है। दूसरी बात है कि लेखा महापरीक्षा राजीव महर्षि 2016 में केंद्रीय वित्त सचिव थे। उसी समय राफेल विमानों के संशोधित सौदे पर हस्ताक्षर हुए थे। इन्हीं आधारों पर विपक्ष ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है । इस पर विवाद पहले से जारी है और कह सकते हैं इस रिपोर्ट को लेकर विवादों का एक नया दौर आरंभ हो गया है।
कुछ जानकार लोगों का कहना है की मोदी सरकार का सौदा यूपीए के दौरान हुए सौदे से बेहतर शर्त पर नहीं था। कहा जा रहा है कि मोदी सरकार के नए सौदे में 36 राफेल विमानों के पहले फेज में 18 विमानों की डिलीवरी करने की तारीख भी यूपीए सरकार के दौरान मिले प्रस्ताव से विलंब से थी। जितने मुंह उतनी बातें और उन बातों के बीच यह समझ पाना बड़ा कठिन है कि सच क्या है? सब के पास अपने अपने तर्क हैं ।भारत में हथियारों के सौदे हमेशा विवादास्पद होते हैं। अब से पहले वह बोफोर्स तोपों की खरीद का सौदा सुर्खियों में रहा था । उस समय भी कीमतों को लेकर बहुत बात बढ़ी थी। स्थिति तब और खराब हो गई थी जब स्वीडन के प्रधानमंत्री ओलाफ़ पामे की 1986 में हत्या हो गई। प्रधानमंत्री पामे इस सौदे का समर्थन कर रहे थे । हत्यारा पकड़ा नहीं जा सका है। बोफोर्स की क्षमता को लेकर भारी विवाद हुआ था। बाद में कारगिल युद्ध के समय वही तोपें काम आईं। इस बार सुप्रीम कोर्ट पर उंगली उठी है। सीबीआई ने अभी तक कोई जांच शुरू नहीं की है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सारा मामला बहस का मसला बना हुआ है । मीडिया में संसद की बहसों का हवाला दिया जाता है। बहसों में अखबारों का हवाला दिया जाता है भाजपा के प्रवक्ता का हवाला दिया जाता है और इस पर बहस चलती रहती है। प्रक्रिया गत तकनीकी शब्दों और विमान की तकनीकों की लंबी फेहरिस्त बहस को और उलझा देती है। मामला इतना कन्फ्यूजिंग हो गया है हर समय, हर बहस पर एक नई बात उभर आती है और उस पर विवाद खड़ा हो जाता है। शुरु में रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने सारे तथ्य सार्वजनिक करने का वादा किया था बाद में फ्रांस के साथ गोपनीयता समझौता का हवाला देकर वह अपनी बात से मुकर गयीं। इसमें और भी चिंताजनक तथ्य यह है कि हवा उड़ रही है कि राफेल सौदे को कमजोर करने के प्रयास किए जा रहे हैं । कथित तौर पर सरकार 36 राफेल अनुबंध को भी घटाने की कोशिश में है लेकिन अभी तक यह प्रमाणित नहीं हो सका है। जब तक मुकम्मल तौर पर यह पता नहीं चल जाता कि इससे होने वाला लाभ किसको मिला है या किसको मिल रहा है या मिलेगा तबतक जितने भी आरोप लगाए जा रहे हैं वह सही नहीं कहे जा सकते। लाभार्थी की पक्की पहचान जब तक नहीं होगी तब तक घोटाले को प्रमाणित करना बहुत कठिन है। बात बहुत बढ़ गई है और इसमें हकीकत को समझना बड़ा कठिन हो गया है। सब के पास अपने अपने तथ्य हैं लेकिन कहीं पक्के सबूत नहीं हैं। यह बहस में शामिल पक्षों की अयोग्यता कही जाएगी । भारत में हथियारों को लेकर अक्सर ऐसा होता रहा है शायद राफेल सौदे में भी कुछ ऐसा ही हो।
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