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Monday, February 11, 2019

सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए

सरकार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए

राफेल सौदे को लेकर देश में हालात कुछ ऐसे बन रहे हैं कि सब को लगने लगा है कि कहीं ना कहीं कुछ छुपाया जा रहा है।  मुल्क को इस मामले में संतोषजनक स्पष्टीकरण की जरूरत है। बदकिस्मती से टुकड़े टुकड़े में सूचनाएं आ रही हैं। कुछ टुकड़े सीधे फ्रांस से आ रहे हैं, कुछ मीडिया के माध्यम से और कुछ सरकार पर लगे आरोपों के बारे में  दिए गए  जवाबों के जरिए। नतीजा यह हो रहा है कि पूरी स्पष्ट तस्वीर नहीं बन रही है।  स्पष्टता के अभाव में संदेह बढ़ता जा रहा है। अभी हाल में मीडिया में एक खबर आयी कि प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा राफेल सौदे पर समानांतर बातचीत किये जाने के कारण रक्षा मंत्रालय और  सौदेबाजी के लिए गठित भारतीय दल की तोलमोल करने की ताकत कम हो गई। तत्कालीन रक्षा सचिव मोहन कुमार ने एक नोट में कहा है कि "रक्षा मंत्री कृपया इसको देखिए। यह वांछित है। क्योंकि इस तरह की वार्ता प्रधानमंत्री कार्यालय को नहीं करनी चाहिए इससे हम लोगों की सौदेबाजी की स्थिति बिगड़ जाती है।" यह  नोट 1 दिसंबर 2015 को लिखा गया था। इसके जवाब में रक्षा मंत्रालय ने कहा की सुरक्षा सचिव इस बात को प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव के साथ परामर्श कर के हल करें। इसका जवाब 11 जनवरी 2016 को आया। सुरक्षा सचिव द्वारा भेजी गई टिप्पणी के लगभग 1 महीने के बाद। उस समय मनोहर परिकर रक्षा मंत्री थे।  इस विलंब से यह साबित होता है कि उन्हें इस मामले में कोई जल्दी बाजी नहीं थी। मीडिया के एक भाग में यह भी कहा गया है कि जो बातचीत चल रही थी वह गारंटी के बारे में नहीं मूल्य के बारे में  थी। यहां भी  कुछ गड़बड़ है। पहली गड़बड़ तो यह है कि बात कि बात कीमतों की है।  जहां तक गारंटी का प्रश्न है सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में खुद कहा है कि राफेल की उत्पादकों की ओर से उसे कुछ नहीं मिला है । महान्यायवादी ने सुप्रीम कोर्ट को यह बताया कि फ्रांस की सरकार ने भारत को आश्वस्त किया है कि राफेल बनाने वाली कंपनी अपने वादे को पूरा करेगी।
        यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न है की इस बातचीत में रक्षा मंत्रालय को क्यों डाला गया? ऐसा कोई कारण नहीं लगता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने बातचीत करने वाले दल के लोगों को इस प्रक्रिया में क्यों नहीं शामिल किया। उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि बातचीत करने वाले दल क्यों नहीं गारंटी पर बात कर सकते हैं । क्योंकि गारंटी आम  तौर पर दी नहीं जाती है। यह मूल्य की सौदेबाजी का हिस्सा होता है। अब यहां कीमतों की बात भी आती है। पहले की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय वार्ताकार दल के सात में से तीन सदस्यों ने  कीमत ,डिजाइन  और  विकास संबंधी मुद्दों पर आपत्ति जताई थी। अब यह मानने के कई कारण हो सकते हैं कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को गुमराह किया है। क्योंकि, इसने कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत अपनी टिप्पणी में दावा किया है कि भारतीय वार्ताकार दल इस प्रक्रिया में शामिल था। इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय की भूमिका के बारे में कोई खास बात नहीं कही है। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री कार्यालय कोई गोपनीय खेल खेल रहा है। मार्च 2016 में अवकाश प्राप्त करने से पहले सुरक्षा सेवा के वित्तीय सलाहकार सुधांशु मुखर्जी ने बताया था कि वर्तमान खरीदारी प्रक्रिया राफेल ठेके को  तय करने में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की कोई भूमिका नहीं थी। प्रधानमंत्री कार्यालय के मामले में यह सही था क्योंकि आपूर्ति वार्ताकार दल में प्रधान मंत्री कार्यालय का कोई भी सदस्य नामजद नहीं था। रक्षा खरीदारी प्रक्रिया 2013 के नियमों में वार्ताकार दल को कैसे गठित किया जाए यह पूरी तरह विहित है।  उसमें कोई भी परिवर्तन महानिदेशक (अधिग्रहण) की अनुमति के बाद ही हो सकता है।
       इससे जो बात निकलती है उसे लगता है कि इस मामले में कोई पक्का सबूत नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कोई सबूत ही नहीं है। कुछ तो सबूत है। अब सरकार कहती है कि सुरक्षा कारणों से इस सौदे के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाएं नहीं दी जा सकती। कीमतों के बारे में बताना कोई गोपनीय तथ्य नहीं है बल्कि यह देश के करदाताओं का अधिकार है। इन जेट विमानों में जो गोपनीय है वह कीमत नहीं है, उनका आकार प्रकार नहीं है बल्कि उनकी ताकत है। खास करके, गोपनीय वह साजो सामान  हैं जो उसमें लगे हैं।   इसके बारे में तो सरकार से कोई पूछ नहीं रहा है। जनता तो यह जानना चाहती है कि शर्तें क्या हैं और  सरकार ने पहले तय की गई कीमतों से ऊंची कीमतों पर क्यों सौदा तय किया? जनता यह जानना चाहती है कि क्या इस प्रक्रिया में नियम कानून को सही ढंग से पालन किया गया है ?  जो सबूत हैं उससे तो लगता है कि ऐसा नहीं हुआ है।  अगर ऐसा नहीं हुआ है तो सरकार को इसका स्पष्टीकरण देना चाहिए। वह क्यों नहीं दे रही है यह बहुत ही बुनियादी प्रश्न है।

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