उत्तर प्रदेश और कांग्रेस
देश में प्रधानमंत्री बनाने की सबसे बड़ी हैसियत रखने वाले प्रांत उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बड़ी अजीब सियासत दिख रही है । एक तरफ तो वहां लखनऊ में प्रियंका गांधी की जनसभा में नारे लग रहे हैं "बदलाव की आंधी है प्रियंका गांधी है।" बताया जाता है कि वहां भारी भीड़ एकत्र हुई थी। सब की नजर प्रियंका गांधी पर थी और सब की आंखों में प्रियंका गांधी ही थी । ऐसा लग रहा था कि सचमुच एक आंधी आ गई है ।लोकप्रियता का ज्वार लहरा रहा है। वहीं दूसरी तरफ राज्य में कांग्रेस का वोट बैंक सिकुड़ा हुआ है। सबसे बड़ी बात है कि लखनऊ पूर्वी उत्तर प्रदेश नहीं पूरे उत्तर प्रदेश की राजधानी है और लखनऊ की रैली का असर कहां तक पड़ेगा इसका आकलन अभी नहीं किया जाना है । आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का वोट बैंक एकदम सिकुड़ गया है और संगठन भी बहुत मजबूत नहीं है ।फिर भी, कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बदलते हालात को देख कर बहुत आशान्वित है। यहां तक कि कई बार तो यह कहा जा रहा है कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश खासकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपे जाने के बाद मोदी भी भीतर से आतंकित हैं। कई लोग तो यह भी कहते सुने गए हैं कि प्रियंका वाराणसी से खड़ी होकर मोदी को चुनौती दे सकती हैं। यह सब फिलहाल हवाई किले की तरह है। उत्तर प्रदेश में क्या सचमुच कांग्रेस की ऐसी स्थिति बनी हुई है। जरा उत्तर प्रदेश के नए राजनीतिक आचरण को ध्यान से देखें। विगत एक दशक से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए हालात बहुत तेजी से बिगड़े हैं। 2009 में कांग्रेस ने वहां 78 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए थे जिनमें केवल 21 सीटें ही हासिल हुईं और उसे 18.2% वोट मिल पाए थे । 2012 में विधानसभा चुनाव में 355 सीटों पर जोर आजमाने के बाद कहीं 28 सीटें मिली और केवल 11.6 प्रतिशत वोट ही मिले। 2014 में भी यही हालात थे । 67 सीटों पर लड़ने के बाद केवल 2 सीटें हासिल हुईं और वोट केवल 7.5% प्रतिशत मिले। 2017 में उसे सपा से हाथ मिलाने पड़े और इस साल हुए विधानसभा में चुनाव में उस के 114 उम्मीदवार मैदान में थे लेकिन उसे केवल 7 सीटें मिलीं और 6.25% वोट ही मिल पाए। सपा की साइकिल पर सवारी कोई लाभ नहीं दिला सकी। आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का वोट आधार समय के साथ सिकुड़ता गया है और आधार का यह संकुचन उसे बसपा तथा सपा के साथ गठबंधन के लिए बहुत भारी बाधा खड़ी कर रहा है। क्योंकि इसी आधार पर उसे सीट देने की बात कही गई थी। 2014 का ही आंकड़ा देखें। उसे सपा और बसपा के क्रमशः 22.70 तथा 19. 60 प्रतिशत वोटों के मुकाबले केवल 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे । यह अनुपात बताता है कि कांग्रेस के पास इतना बड़ा आधार नहीं है कि वह सपा और बसपा से गठबंधन के बाद ज्यादा सीटों पर दावा कर सके। इतना ही नहीं मायावती की महत्वाकांक्षा भी इस रास्ते में बाधक बनती है । अब जब उसे गठबंधन में नहीं शामिल किया गया तो कांग्रेस ने अपने दम पर उत्तर प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि कांग्रेस के पास प्रियंका गांधी को सामने रखने के अलावा क्या तैयारी है? जरा पीछे लौटें। प्रियंका गांधी की घोषणा यानी उन्हें उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी जाने की घोषणा जिस ढंग से हुई वह कोई मंच नहीं था केवल एक प्रेस नोट के जरिए सबको बता दिया गया प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई है। ना कोई मंच बना था और ना ही उस मंच से घोषणा के समय राहुल गांधी और प्रियंका गांधी मौजूद थे। जब यह घोषणा हुई प्रियंका विदेश गई हुई थीं और राहुल अमेठी में थे । अगर उस मंच पर ये दोनों होते तो इस घोषणा का संदेश ही दूसरा होता । अब जरा सोचिए केवल एक प्रेस नोट के जरिए रियासत में इतना बड़ा दांव खेला जा सकता है।
अगर समाज के राजनीतिक आचरण का विश्लेषण करें तो यह पता चलेगा कि वोट के आधार और संगठन में सीधा संबंध है। संगठन बढ़ेगा , व्यापक होगा तो आधार भी बढ़ेगा अगर यह घटेगा तो आधार भी घटेगा। विगत दो वर्षों से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का संगठन बिल्कुल कृषकाय हो गया है। संगठन की ओर देखने की फुर्सत किसी को नहीं है। जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं तरह-तरह की अटकलों का बाजार गर्म हो रहा है। जैसे उत्तर प्रदेश में दो महासचिव बनाए जाएंगे या प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित कर चार प्रभारी अध्यक्ष बनाए जाएंगे। कार्यकर्ता हतोत्साहित हैं और संगठन का पुनर्निर्माण नहीं हो रहा है, जिसके कारण कार्यकर्ताओं का उत्साह दिनों दिन घटता जा रहा है, उम्मीदें भी तेजी से समाप्त हो रही हैं।
इन सब के बावजूद अभी भी कुछ उम्मीदें बाकी हैं। अब जैसे 2009 के चुनाव को ही देखें। उसमें कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं लेकिन इन 21 सीटों में 18 सीटें नई थीं। पुरानी 9 सीटों में वह हार गई थी। इसका मतलब है कि नई सीटों पर कांग्रेस के लिए अभी भी संभावनाएं कायम हैं। इस बार चुनाव में कांग्रेस 60 -65 सीटों पर युवाओं को उतारना चाहती है । यानी उन सीटों पर जो पुराने कांग्रेसी थे और जिन से जनता ऊब चुकी थी उन्हें शायद टिकट ना मिले और ताजा हवा के रूप में ऐसे नौजवान उन सीटों पर खड़े हों जिनकी तरफ मतदाता उम्मीद से देख सकें। यह नए बने वोटरों को आकर्षित करने का एक तरीका तो हो ही सकता है इतना ही नहीं जो मतदाता वर्ग कांग्रेस से छिटक गया है उसे भी पार्टी अपनी ओर लाने की कोशिश में है । 2009 की ही बात लें। इसमें पार्टी को 21 में से 17 सीटें ऐसे इलाकों से हासिल हुई थी जो ग्रामीण बहुल हैं और इसलिए इस बार कांग्रेस ग्रामीण बहुल सीटों पर ज्यादा जोर दे रही है। किसानों को लेकर राहुल गांधी की घोषणाएं इस तरह की उम्मीदें भी जगा रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश ग्रामीण क्षेत्र है और वहां प्रियंका को भेजा जाना इसी रणनीति का एक अंग है। ऐसा करके कांग्रेस यह मान रही है कि ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस की वापसी हो सकती है। यही नहीं जिस चुनाव पर निशाना है वह लोकसभा चुनाव है और जो गैर भाजपा मतदाता है उनके सामने सपा - बसपा के क्षेत्रीय गठबंधन के मुकाबले राष्ट्रीय स्तर की कांग्रेस एक बेहतर विकल्प के रूप में नजर आ रही है। उम्मीद की जाती है कि मुस्लिम, ब्राम्हण तथा यादवों को छोड़ कर अन्य पिछड़े वर्ग के मतदाता कांग्रेस की तरफ मुड़ सकते हैं। 2009 में कांग्रेस के ऐसे उम्मीदवारों को विजय मिली थी जिनका जाति आधार बहुत व्यापक नहीं था और इस बार कांग्रेस खुद को एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश कर रही है । यह उसकी सबसे बड़ी समर नीति है । लेकिन यहां भी एक गड़बड़ है । पिछले डेढ़- दो दशक से उत्तर प्रदेश से ही कांग्रेस का अध्यक्ष आता रहा है लेकिन इस प्रदेश में संगठन को मजबूत करने के लिए कोई भी गंभीर प्रयास नहीं हुआ। शीर्ष नेतृत्व हसीन सपने देखता रहा। उत्तर प्रदेश का पार्टी संगठन अपनी बदहाली पर रोता रहा। इन सब के बावजूद कांग्रेस अगर कमर कस ले और संपूर्ण समर्पण के साथ चुनाव अभियान में जुट जाए तो कुछ भी हो सकता है। जैसा लखनऊ रैली से महसूस हो रहा है । लेकिन, इसके बावजूद यह रास्ता सड़क और मैदान की राजनीति का है। इसके लिए कांग्रेस को अपना एजेंडा साफ करना होगा। स्थिति को मजबूत बनाने के लिए हर संभव प्रयास करने पड़ेंगे। लखनऊ रैली को इस प्रयास का श्री गणेश कह सकते हैं।
0 comments:
Post a Comment