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Tuesday, March 19, 2019

नारों में उलझा हमारा लोकतंत्र

नारों में उलझा हमारा लोकतंत्र

भारत को आजाद हुए 72 वर्षों हुए और इस दौरान हमारे लोकतंत्र ने 16 आम चुनाव देखे हैं । इसके बावजूद एक प्रश्न है कि क्या हमारा लोकतंत्र सही दिशा में आगे बढ़ रहा है। 1951- 52 में पहला आम चुनाव हुआ था। उस समय भारत यह नहीं था जो आज है। पंडित जवाहरलाल नेहरू खुद को भारतीय लोकतंत्र का प्रमुख मानते थे और छोटे-छोटे राजाओं ,जमींदारों और रियासतों का बोलबाला था। आंकड़े बताते हैं कि उस चुनाव में केवल 17 करोड 30 लाख मतदाता थे जिसमें     44.87% मतदान हुआ था। उस दौर में 489 सीटों के लिए 53 राजनीतिक पार्टियों के 1874 उम्मीदवार जोर आजमा रहे थे। उस जमाने में भारत एक गरीब देश था और इसकी वार्षिक प्रति व्यक्ति आय ₹7651 थी।  साक्षरता की दर 18.33% थी। उपचुनाव में 489 सीटों में कांग्रेस को 364 सीटें मिलीं और सरकार का गठन हुआ। प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू ने उसी साल जमीदारी प्रथा समाप्त कर दी। उस समय में सोचा गया कि भारतीय लोकतंत्र जल्दी सही स्वरूप हासिल कर लेगा।  भविष्य की सरकारें सही अर्थों में जनता द्वारा जनता के लिए चुनी जाएंगी। हमारे राजनीतिक नेताओं में शायद यह महसूस नहीं किया कि जमीदारी चली गई।  उन्होंने जल्दी ही नई राजशाही स्थापित कर ली। आज देश का कोई भाग ऐसा नहीं है जहां राजनीतिक परिवारों का प्रभाव ना हो।
     पहले इलेक्शन के बाद लंबा वक्त गुजर गया । भारत की आबादी के साथ-साथ जनता की आय भी बढ़ी। 2014 के चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि उसमें 83 करोड़ 40 लाख मतदाता थे और 66.44 प्रतिशत मतदाताओं में अपने मताधिकार के प्रयोग किये। 543 सीटों के लिए 464 पार्टियों के 8251 उम्मीदवार मैदान में थे।  प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 1 लाख रुपये के आसपास थी। मोदी का चुनाव इस कीर्तिमान को भी भंग कर देगा और यही चिंता का विषय है। हम चुनाव के रिकॉर्ड तोड़ सकते हैं लेकिन जनता की समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ पाते। इस बार सात चरणों में चुनाव होंगे । सुनकर आश्चर्य होगा कि पहला चुनाव 68 चरणों में हुआ था और इसे पूरा होने में 4 महीने लगे थे। कांग्रेस ने 364 सीटें जीती थी 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 282 सीटें  हासिल हुई। 1957 से आज तक के  चुनाव पर नजर डालें कि क्या इनमें ज्यादातर बहुमत की सरकार बनी थी या गठबंधन की या यह चुनाव किसी एक व्यक्ति के व्यक्तित्व से प्रभावित थे । यह सभी चुनाव वास्तविकताओं पर नहीं नारो पर लड़े गए थे। जवाहरलाल नेहरू ने नारा दिया "आराम हराम है" उनके बाद शास्त्री जी ने 1965 की पाकिस्तान की लड़ाई के दौरान नारा बनाया "जय जवान जय किसान" और यह नारा चुनाव में भी चल गया । 1971 में इंदिरा गांधी का नारा था "गरीबी हटाओ।" 1977 में "इंदिरा हटाओ देश बचाओ" के नारे  हमारे देश में गूंज रहे थे । 31 अक्टूबर 1984 इंदिरा जी की हत्या के बाद के चुनाव में नारा बना "जब तक सूरज चांद रहेगा इंदिरा तेरा नाम रहेगा" और राजीव गांधी को 404 सीटें मिली। 1996 में भाजपा ने नारा दिया "सबको देखा बारी-बारी अबकी  बारी अटल बिहारी।" पिछले चुनाव का नारा था 'अच्छे दिन आएंगे" और इस बार नारे लगाए जा रहे हैं "मोदी है तो मुमकिन है।" यहां एक प्रश्न है इन नारों से देश का कितना कल्याण होता है।
         अगर  सभी हालात का विश्लेषण किया जाने लगा तो जगह कम पड़ जाएगी। सच तो यह है  कि इन नारों से नेताओं और गठबंधन ओ कुछ लाभ जरूर हुआ है लेकिन देश को नहीं। देश अभी भी आशा और निराशा के बीच झूल रहा है। अब हम जब  लोकसभा के लिए वोट डालने जाएंगे इस बात का ध्यान रखना जरूरी होगा कि देश में जहां 80% साक्षरता की दर है वह देश क्या आकर्षक नारों से प्रभावित होगा ,वह देश क्या विकास की मांग नहीं करेगा अपने नेताओं से? इस बार हमें यह सोचना है।

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