अभी हाल में कुछ आंकड़े और कुछ ग्रैफिक्स आए थे जिससे यह पता चलता था कि भाजपा अब सिकुड़ रही है। वह 2014 में जितने राज्यों में सत्ता में थी उसके मुकाबले इस समय कम राज्यों में है। वह 71% घटकर 40% पर पहुंच गई है इन आंकड़ों से निष्कर्ष निकाला गया कि इन राज्यों से भाजपा के पैर उखड़ गए हैं । भाजपा का भास्कर अस्ताचलगामी हो रहा है। लेकिन यह निष्कर्ष पूर्णतः सही नहीं है और खासकर तर्क की कसौटी पर तो बिल्कुल नहीं।
एक तरफ समाज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वर्चस्व देखकर स्पष्ट महसूस होता है कि उनकी लोकप्रियता शिखर पर है जरा विचार करें की पिछली मई के लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद इस पार्टी का वर्चस्व दिखता है। संपूर्ण हिंदी पट्टी में ,तटवर्ती पश्चिम और पूर्व तथा उत्तर पूर्व के बड़े भाग में भाजपा ही भाजपा है। चुनौती विहीन सत्ता। तो फिर मोदी के आलोचक कौन सी बात को लेकर खुश हैं। अब अगर राजनीति के दृष्टिकोण से देखें, खासकर मनोवैज्ञानिक आचरण और उसके राजनीतिक प्रत्युत्तर की व्याख्या करें तो लगेगा कि राजनीतिक हकीकत कई परतों में है। आप जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे वे परत खुलते जाएंगे। यहां हमारे समाज में भगवा रंग के कई शेड्स दिख रहे हैं। उन शेड्स की अगर वर्ण विज्ञान के संदर्भ में राजनीतिक व्याख्या करें तो कुछ और ही नतीजे आते हैं। अब जैसे नरेंद्र मोदी एक विशाल व्यक्तित्व वाले इंसान हैं। लेकिन अभी इंदिरा जी के बराबर नहीं हो पाए हैं। इसका अर्थ है कि आज का मतदाता 80 के दशक के मतदाता से ज्यादा समझदार और विचारशील हो गया है। यह विचारशीलता लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नतीजों में साफ दिखता है। इंदिरा जी के जमाने में एक कहावत थी कि अगर वह बिजली के खंभे को टिकट दे दें तो वह भी जीत जाए। मोदी जी में भी बेशक यह चमत्कार है लेकिन केवल लोकसभा के संदर्भ में, विधानसभा चुनाव में नहीं। हरियाणा में लोकसभा चुनाव के केवल 5 महीनों के बाद जब विधानसभा चुनाव में हुए तो भाजपा का वोट प्रतिशत 58 से घटकर 36 हो गया ,यानी 22 अंकों की गिरावट आई और उम्मीद के विपरीत वहां भाजपा को बहुमत के लाले पड़ गए। यह भी एक ऐसे राज्य में हुआ जो सामाजिक तौर पर अपनी राष्ट्रवादी परंपरा और अल्पसंख्यकों के गैर महत्वपूर्ण वोट प्रतिशत के लिए मशहूर माना जाता है। साथ ही, धारा 370 हटाए जाने यह महज 11 हफ्तों के बाद यह चुनाव हुए थे। जरा सोचिए 2014 के बाद मोदी किसी राज्य में ऐसा जादू नहीं कर पाए जा हंसते खेलते विजयी हो जाएं। वही हाल गुजरात में भी हुआ। 2017 में उन्हें वहां कांटे की टक्कर का मुकाबला करना पड़ा। कांग्रेस को लेकर कर्नाटक में भारी असंतोष था लेकिन इसके बावजूद शर्मसार होना पड़ा। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तो हाथ से निकल गए। गौर करने वाला तथ्य है कि जहां लोकसभा चुनाव में उसने सबका सफाया कर दिया था दिल्ली राजस्थान एमपी छत्तीसगढ़ मैं क्या हुआ? इससे निष्कर्ष निकलता है कि इंदिरा युग से विपरीत भारतीय संघीय ढांचा अब ज्यादा विचारशील और प्रखर हो गया है अब जबकि वोटर लोकसभा में अलग और विधानसभा में अलग नेताओं का चुनाव करने लगे तो इससे ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, जगनमोहन रेड्डी जैसे नेताओं का साहस बढ़ा है। यह नेता अपना किला बचाना जानते हैं। अभी बंगाल में तीन उपचुनाव में क्या हुआ? टीएमसी को जीत मिली इससे मतदाताओं की मानसिकता प्रस्तुति होती है कि वे भाजपा का विरोध भी कर सकते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि एन आर सी का विरोध हो सकता है । कुछ विश्लेषक कहते हैं कि फिलहाल 17 राज्य भाजपा की झोली में लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। इनमें से कुछ बिहार हरियाणा जैसे राज्य हैं जहां भाजपा का साथ बिल्कुल विरोधी विचारधारा वाली पार्टियों से है। एक और सत्य यह भी है कि भाजपा के कब्जे में केवल 3 राज्य हैं यूपी, गुजरात और कर्नाटक इसमें कर्नाटक की हालत है।
अब जरा महाराष्ट्र की सोचें। एनसीपी और कांग्रेस ने शिवसेना से हाथ क्यों मिलाया? सीधी बात है कि वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे। लेकिन यह भी पूछा जा सकता है शिवसेना ने भाजपा का साथ क्यों छोड़ा? इसका बहुत सरल उत्तर है कि शिवसेना के इकलौते राज्य में भाजपा जिस तरह से फैल रही थी उसने शिवसेना के वैचारिक आधार को खतरा पैदा हो गया था। शिवसेना की बगावत एक दलीय वर्चस्व की थी। केंद्र और राज्य समीकरण अब फिर से वही स्वरूप ग्रहण कर सकते हैं जैसा 1089 से 2014 के बीच थे। भारत के नक्शे के सियासी रंग चाहे जो भी हों भाजपा के प्रमुख विचारों का जहां तक मामला है यह देश भर में फैल चुका है और किसी भी दल का ताकतवर होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह या उसके सहयोगी दलों की विचार कितने फैले हुए हैं। राजनीति में विचार ही शक्ति है और प्रभाव है।
Sunday, December 1, 2019
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