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Tuesday, July 25, 2017

जल्द ही बंद होने वाले हैं 2 हजार के नोट

जल्द ही बंद होने वाले हैं 2 हजार के नोट

नाकाम हो रही इकॉनमी पर पर्दा है कैशलेस व्यवस्था

 

हरिराम पाण्डेय

 

कोलकाता :अच्छे दिन के स्वर्ण मृग दिखा कर वर्तमान सरकार ने देश को भयानक मंदी की दहलीज पर खड़ा कर दिया है और उसे छिपाने के लिये कैशलेस खरीद बिक्री का हुक्म दिया गया तथा बड़े नोट छापे गये। सबसे बड़े नोट 2 हजार के आये और पहले दिन से ही उसपर विवाद है। खबर है कि सरकार ने दो हजार के नोट धीरे-धारे बंद करने (फेज आउट) करने की शुरूआत कर दी है। सूत्रों के मुताबिक दो हजार के नोट जो बैंकों में आ रहे हैं उनमें से बहुत कम ही लौटाया जा रहा है। उनकी जगह 5 सौ के नोट दिये जा रहे हैं। स्टेट बैंक के 58 हजार ए टी एम के कैसेट्स का ‘री कैलिब्रेशन’ शुरू किया जा चुका है और नयी व्यवस्था में दो हजार के नोट की जगह नहीं है। हालांकि नोटबंदी की तरह यह आनन फानन में होने वाला नहीं है।

अब बात आती है कैशलेस यानी नगदी विहीन लेन देन की व्यवस्था , दरअसल यह अर्थ व्यवस्था की आसन्न मंदी पर रेशमी पर्दा डालने की कोशिश है। इसकी शुरूआत 2016 की फरवरी में हुई थी।  ‘भगतों’ को दिये गये मोट मोटे कर्जे जब वापस नहीं आये और बैंकों की खाट खड़ी होने लगी, नगदी का भयानक अभाव होने लगा सरकार बौखलायी। रिजर्व बैंक ने असेट क्वालिटी रिव्यू आरंभ किया तो पता चला कि अगस्त 2015 से फरवरी 2016 के बीच एन पी ए में 70 प्रतिशत वृद्धि हुई है। अर्थ शा​​​​िस्त्रयों ने सलाह दी कि अगर बजट से पहले सरकारी बैकों में पूंजी नहीं डाली गयी तो भारत अर्थ व्यवस्था की दुनिया भर में साख खत्म हो जायेगी। बैंकों के लेजर में बहड़े बड़े कर्ज दर्ज हैं, रुपया बाजार में है पर बैंकों के स्ट्रांग रूम में कुछ नहीं। दुनिया में नाक बचाने के लिये सरकार ने 2014-17 के बीच 1.14 लाख करोड़ का कर्जा बट्टे खाते में डाल दिया। इससे भी बात नहीं बनी तो सरकार ने बैंकिंग सुधार की घोषणा की और उसमें बैंको का विलय मुख्य था। बैंक कर्मचारियों ने इसका जमकर विरोध किया पर कुछ नहीं हो सका। इन सुधारों के बाद निजीकरण के झंडाबरदारों ने सरकारी बैंकों की उत्पादकता पर सवाल उठाने शुरू कर दिये। जिन विदेशी रेटिंग एजेंसीज बैंकों का ये लोग हवाला दे रहे थे उसी ने अमरीकी अर्थ व्यवस्था की खटिया खड़ी की थी और वही बैंक भारतीय सरकारी बैंकों को खरीदने की बात कर रहे थे। सवाल है कि उन बैंकों के पास इतना धन कहां से आया? रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि 2013-14 और 2014-15 में सरकारी बैंकों के एन पी ए में 135 प्रतिशत वृद्धि हुई थी जो जो 2015-16 में 56 प्रतिशत और बड़ गया। पूरी भारतीय बैंकिंग प्रणाली चौपट होने की ओर बढ़ रही थी और तत्काल कुछ नहीं किया जाता तो पूरी अर्थ व्यवस्था का बंटाधार हो जाता। इसी भय से आनन फानन में नोटबंदी का फैसला लिया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नगदी के खिलाफ जंग छेड़ दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 नवम्बर 2016 को पहला गोला दागा और नगदी के खिलाफ इस जंग के पहले चरण में सौ से ज्यादा लोग मारे गये।

इसके बाद शुरू हुआ नगदी के ख्लिफ जंग का दूसरा चरण। वह है नगदी के बदले डिजीटल लेन देन। जिस कालेधन और आतंकवाद को मिलनेवाले धन के बहाने नोटबंदी की गयी थी वह कुछ नहीं हो सका। जितने नये नोट छपे उससे ज्यादा जाली नोट बाजार में आ गये। 2016 की जनवरी में वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम की बैठक में नगदी के बदले डिजीटल लेनदेन की बात उठी और इसे नगदी के अभाव का इलाज बताया गया। भारत ने इसे अपनाया क्योंकि र्बैकों में एकबार तो नगदी आयी पर कई कारणों से उसे लोगों ने निकाल लिया और अब फिर नगदी का अभाव बना हुआ है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश ने ‘द मैक्रोइकॉनमिक्स ऑफ डी कैशिंग’ के नाम से 27 मार्च 2017 को एक वर्किंग पेपर जारी किया जिसमें बड़ी नगदी को दार धीरे हटा कर डिजिटल लेनदेन के तरीके बताये गये हैं। अभी कुछ दिन पहले यहां फेडरल एसोसियेशन ऑफ जर्मन इंडस्ट्री के पूर्व अध्यक्ष से सन्मार्ग की बात चीत के दौरान जब यह बात उठी तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘इसके परिणाम घातक हो सकते हैं।’ आज भारत एक ऐसा देश बन गया है जहां जनता का धन निजी हाथों में जा रहा है। खून पसीने से कमायी गरीबों की रकम से अमीर फल फूल रहे हैं। देश की अर्थ व्यवस्था धीरे धीर मंदी की ओर सरक रही है। हर चरण पर निगरानी के लिये सरकार  डिजीटल लेनदेन ओर जीएस टी जैसे कानून बना रही है।   

 

 

 

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