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Tuesday, July 25, 2017

कर्जमाफी की महामारी से कराहता देश

कर्जमाफी की महामारी से कराहता देश

बॉलीवुड की एक बहुत पुरानी फिल्म थी जिसमें कैंसर से मरने की ओर बढ़ता नायक लगातार हंसता मुस्कुराता उस दर्द को अनदेखा कर रहा था। आज हमारे देश की अर्थ व्यवस्था उसी मोड़ पर खड़ी है। देश की अर्थ व्यवस्था को खास कर राजकोष किसान कर्जमाफी की भारी महामारी से ग्रस्त हो गया है। हमारे नायक तालियां बजवा रहे हैं, सीने चौड़े कर गर्वित भाषण दे रहे हैं, विच्देशों की सैर कर रहे हैं। इधर जनता भयभीत है और अर्थशास्त्री इस महामारी के खतरे का आकलन करने में जुटे हैं। इतना तो तय है कि आम जनता पर उच्च टैक्स दर और भारी महंगायी की मार पड़ेगी। क्योंकि प्राप्त संसाधनों का बड़ा हिस्सा तो इसी महामारी के वायरस को दूर करने लग जा रहा है। लेकिन सरकार इसे छिपाने के प्रयास में है। सरकार के बड़बोलपन से तो ऐसा लग रहा था कि हमारी अर्थ व्यवस्था इससे उबर चुकी है और विकास की ओर बढ़ रही है। लेकिन यह भ्रम था। महामारी के विषाणु विगत 9 वर्षों से नीतिगत चोले में छिपे बैठे थे अब नये सिरे से सिर उठा रहे हैं। इसे प्रतिस्पर्धी राजनीति अनुकूल माहौल मुहय्या करा रही है। इस महामारी ने 2017 की पहली तिमाही में पांच राज्यों क सियासत को बुरी तरह प्रभावित किया है। इससे इन पांच राज्यों उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र , पंजाब, कर्नाटक और तमिल नाडु की अर्थव्यवस्था चरमरा गयी है। इससे इन राज्यों के कुल 1 करोड़ 69 लाख किसान लाभान्वित हुये हैं। अब विपक्ष को धूल चटाने की ललक में वही लोग ऐसा कर रहे हैं जिनपर जनता ने आर्थिक शासन की जिममेदारी सौंपी र्है। कितना दुखद लगता है कि जब महाराष्ट्र सरकार ने 31 लाख किसानों के कर्ज माफ कयने का फैसला किया तो विपक्ष ने उसपर शोर मचाना शुरू कर दिया और तब किसानों की संख्या बढ़ाकर 35 लाख कर दी गयी। यानी कुछ और बड़े किसान कर्जमाफी के दायरे आ गये और माफी वाली राशि 30हजार करोड़ रुपये से बढ़ कर 34 हजार 22 करोड़ पर पहुंच गयी। लेकिन क्या कर्जमाफी से समस्या का समाधान हो सकता है? शायद नहीं। क्योंकि 2008 में संप्रग सरकार ने किसानों का कर्ज माफ किया था और अस समय से 2014 तक 16 हजार किसानों ने आत्महत्या की। यानी, कर्जमाफी से बात नहीं बनी। इसके लिये कोई ऐसी व्यवस्था जरूरी है जो सही अर्थों में किसानो के लिये मददगार हो सके। हालांकि मतदाताओं को लुभाने के लिये सत्तापक्ष द्वारा राजकोष के दुरुपयोग के कई उदाहरण हैं पर जब कर्जमाफी की बात आती है और इसका दबाव बढ़ता है तो तर्क बेकार हो जाते हैं। हलांकि बहुत पहले रिजर्व बैंक ने सरकार को चेतावनी दी थी कि बैंकों में जनता का धन है और सरकार उसका मनमाना उपयोग नहीं कर सकती। बैंकों पर सरकारें नीतिगत फैसलों के तौर आदेश नहीं जारी कर सकती। 2008-09 के बजट में पहली बार जब तत्कालीन वित्तमंत्री पी चिदम्बरम ने किसानों के कर्ज को माफ करने की योजना पेश की थी तो सत्ता पक्ष ने उसका स्वागत किया था। लेकिन उल्टे कर्ज नहीं चुकाने की प्रवृत्ति बढ़ गयी। यह तर्क सही है कि सरकारों पर दबाव जब धरने से आगे बड़ कर आत्म हत्या तक पहुंचने लगे तो कोई सरकार इसे नहीं झेल सकती है। जिंदगी इतनी सस्ती हो सकती है और पैसा इतना महंगा इसपर विचार जरूरी है। दरअसल  किसान कर्जमाफी की प्रक्रिया राजनीति के स्वरूप को बदलती जा रही है। रा​िनीति अब मतदाताओं काहे डील करने वाले संगटन में बदलती जा रही है। यह राजनीति को मुद्रा में बदल रही है जो नैतिक खतरों की शुरूआत है। क्योंकि कर्जमाफी की उम्मीद में कर्ज नहीं चुकाने की प्रवृत्ति को बल मिलता है। अगर हमारे राजनीतिज्ञ बुरा ना मानें तो कहा जा सकता र्है कि वे सत्ता को खरीदने के लिये किसानों को रिश्वत दे रहे हैं। भारतीय राजनीति में एक इेसी प्रथा आरंभ हो चुकी है जो 21 वीं सदी के भारत के लिये मुफीद नहीं है। कर्ज माफी के विरोध में बोलने वाले की आवाज दबा दी जाती है। यह गलत वित्तीय आचरण को वैदा स्वरूप प्रदान करनशे की कोशिश है। अगर यही जारी रहा तो होमलोन, कारलोन और शिक्षालोन को भी माफ करने के लिये बढ़ने के खतरे दिख रहे हैं। कृषिऋण माफी की इस परम्परा को व्यापक कर्ज डिफाल्ट के आर्थिक सुनामी में बदलने से पहले हमारे नेताओं को इस दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिये।        

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