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Monday, July 17, 2017

जनता से बेपरवाह सत्ता

जनता से बेपरवाह सत्ता
दो दिन पाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चेतावनी दी कि गो रक्षा के नाम पर हिंसा नहीं चलेगी।  अब सवाल उठता है कि क्या उनकी यह चेतावनी कारगर या असरदार होगी? शायद नहीं। क्योंकि जो तंत्र हुकूमत के हुक्म की तामील करता है उसे जनता की परवाह नहीं रह गयी​ है। वह अपने राजनीतिक प्रभुओं के दरबार में तलवे सहलाने में लगी​ है। हालांकि देश की शासन व्यवस्था के शीर्ष पर लाकतांत्रिक प्रतिनिधि- मंत्री – होते हैं पर पूरी व्यवस्था अफसरशाही की बैसाखियों पर टिकी है। इसयि असरकारी कार्यालयों का तेजी से राजनीतिकरण होता जा रहा है। इस राजनीतिकरण के चलते लोकतांत्रक मूल्यों पर लगातार हमले हो रहे हैं। यह समय सांविधानिक दायित्वों के निर्वहन की परीक्षा का समय है। अलगाववादी ताकतों को पराजित करने का है। देश में अतिराष्ट्रवाद के खतरे बढ़ते जा रहे हैं। उन्मादी प्रवृत्तियां संविधान की मूल भावना को ध्वस्त करने में लगीं हैं और देश की अफसरशाही राजनीतिक ठकुरसुहाती में लीन है। आखिर क्या बात है कि लालफीते में बंदा पूरी व्यवस्था उनींदी पड़ी है। देश में शांति और भाई चारे का ही सवाल नहीं है, शिक्षा पोषण स्वास्थ्य तमाम क्षेत्र बदहाली में हैं। देश में समग्र मानव विकास और नागरिक कल्याण के सूचकांक तेजी से गिर रहे हैं। संविधान में दर्ज ये सारी जिममेदारियां अफसरशाही की हैं। अफसरों से बातें होती हैं तो वे कम संख्या का रोना रोते हैं। लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि संख्या बेशक कम है पर उनका प्रभामंडल विराट है। सारा काम तो या प्रभामंडल करता है। उस अदृश्य ताकत की तरह जिसे कोई देख नहीं पाता पर उसका खौफ सबमें बना रहता है। सिविल सेवा के अफसरों की गुणवत्ता के बारे में विश्व बैंक द्वारा पिछले साल एक आंकड़ा जारी किया गया था, जिसमें प्रस्तुत सूचकांक में भारत को 100 में 45 अंक प्राप्त हुये थे। जकि 1996 में जारी ऐसे ही सर्वेक्षण में भारत को 55 अंक प्राप्त हुये थे। संघ लोक सेवा आयोग के आंकड़े के मुताबिक 1950 में आई ए एस की सफलता की दर 11.26 प्रतिशत थी जो कि 2015 में 0.18 प्रतिशत पर सिमट गयी। 2016 में लगभग 4 लाख्ग 70 हजार कैंडिडेट्स ने परीक्षा दी थी, जिसमें सिर्फ 180 आई ए एस चुने गये। इससे कई सवाल उठते हैं। क्या परीक्षा के बुनियादी ढांचे में गड़बड़ी हैया सीटों की संख्या कम है? सवाल योग्यता का भी है। ये ,जिनको चुना गया, केवल निम्नतम योग्यता ही पूरी करते हैं। यानी फकत ग्रैजुएट या पोस्ट ग्रेजुएट। इनमें से अधिकांश तीन चार कोशिशों के बाद ही चुने गय। कुछ दूसरे पेशे से आये उनकी उम्र सीमा लगभग पहुंचह चुकी है। दूसरी ओर कारपोरेट जगत में बेहतर वेतन और काम करने के वाता वरण के कारण प्रतिभाशाली नौजवान उधर आकर्षित हो रहे हैं। यह भी एक चुनौती है कि उनहें कैसे इस ओर आकर्षित किया जाय। सवाल ट्रेनिंग का भी है। मसूरी की अकादमी देखने में जितनी भव्य है उतनी ही औपनिवेशिक भी। अतएव ‘‘जी सर , जी जी , सर सर ’’ वाली मानसिकता पैदा होती है। इंकार अनुशासनहीनता मानी जाती है।  जब ये अफसर ट्रेनिंग से निकलते हैं तो उनके कंदों पर संविधान के दायित्वों के निर्वहन औरर लोकतंत्र की निरंतरता को कायम रखने  की जिम्मेदारी सौंपी जाती है। पर हकीकत तो यह है कि ये लोग हमाज से अलग और जनता की अपेक्षाओं, संघर्षों और सवालों से दूर रहते हैं। इनका सारा समय राजसत्ता को उपकृत करने में बीत जाता है। 2010 के एक सर्वे के मुताबिक 24 प्रतिशत अधिकारी मानते हैं कि अपनी पसंद की जगहों पर पोस्टिंग मेरिट के कारण होती है पर राजनीतिक हस्तक्षेप प्रमुख समस्या है। सबकुछ चाहे वह प्रोमोशन हो या पोस्टिंग सब नेताओं- मंत्रियों के गठजोड़ पर चलता है। अब इसमें सेठ, दलालऔर ठेकेदार भी घुस आये हैं।

अफसरों को कमाने वाले ओहदे राजनीतिक सम्पकों से मिलते हैं। जो अफसर स्वतंत्र विचार से काम करता है या करना चाहता है उसे दरकिनार कर दिया जाता है। कई बार प्रशासनिक सुधारों की कोशिशें हुईं। पहला प्रशासनिक आयोग 1966 में गठित हुआ था और दूसरा उसके 39 साल के बाद 2005 में। लेकिन आयोग की सिफारिशों को लागू करने का दम खम किसी सरकार में नहीं दिखा। 56 इंच का सीना तान कर ‘ना खाउंगा ना खाने दूंगा’ की ललकार भी बेकार हो गयी है। देश में डी एम और एस पी पर हमले बड़ रहे हैं। मंदसौर में डी एम पर हमला और सहारन पुर में एस पी के ार पर हमला ये सारे लक्षण हैं प्रशासन व्यवस्था के नकारा होने के। क्योंकि इसके लिये बेहतर ट्रेनिंग, बेहतर सियासी तालमेल और कार्य परिस्थितियों की आवश्यकता है। ये सब धीरे धीर कम होता जा रहा है और समाज जलने लगा है , देश गिरने लगा है।      

 

 

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