भारतीय विदेश नीति की नाकामयाबी
लगभग महीने भर से भारत और चीन डोकलाम में भुजाएं फड़का रहे हैं और एक दूसरे को हड़का रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि अब जंग भड़क जायेगी कि तब जंग भड़क जायेगी। उधर चीन की मीडिया भारत के बारे में वैसी ही भड़काऊ बातें लिख रहा है जैसी कि भारतीय मीडिया पाकिस्तान के बारे में लिखती है। चीन के विश्लेषकों का कहना है कि भारत भूटान को मदद दे सकता है तो कश्मीर में चीन पाकिसतान को क्यों नहीं दे सकता है। चीन के इस रुख से कश्मीर का मामला दो राष्ट्रों के बीच का मामला ना होकर बहुराष्ट्रीय होने की ओर बढ़ता दिख रहा है। इधर दोनों देशों के बीच फौजी गतिरोध के कारण आर्थिक तौर अपेक्षाकृत सम्पन्न चीन भारत संे सटी सीमा पर ढांचागत विकास कर रहा है। इससे एक डर और बन रहा है कि नेपाल, भूटान तथा बंगलादेश चीन की ओर झुकना आरंभ कर दें। अगर ऐसा होता है तो भारत के पड़ोस में हालात और बिगड़ जायेंगे। इधर चीन की बार बार की धमकियों के बावजूद भारत सरकार इस बात को गंभीरता से नहीं ले रही है। भारत के वतंमान सेना प्रमुख का बड़बोला पन कई हफ्तों से जारी है। जून के शुरूआत में जनरल विपिन रावत ने ताल ठोंक कर कहा था कि भारत ढाई मोर्चों पर जंग लड़ने के लिये तैयार है। ढाई मोर्चे से उनका मतलब था चीन, पाकिस्तान और आंतरिक सुरक्षा। चीन की चेतावनी के जवाब में भारत के (पार्ट टाईम) सुरक्षा मंत्री अरूण जेटली ने कहा कि ‘1962 की स्थिति दूसरी थी और 2017 का भारत दूसरा है।’ लेकिन चीन के टस से मस नहीं होने के फलस्वरूप मोदी सरकार की अकड़ ढीली पड़ गयी हे और वह अब किसी तरह पगड़ी बचाने के चक्कर में है। उधर चीन हकीकत को समझता है अतएव उसने फौज नहीं बड़ाई है जबकि वह जानता है कि फौज बड़ी संख्या में वहां मौजूद है। भारत में यह बताया जा रहा है कि चीन आक्रामक है और वह बार बार धमकियां दे रहा है। अब से 30 साल पहले दोनों देशों में युद्ध के लायक हालात बन गये थे। उस समय जनरल के सुंदरजी लगातार ताल ठोंक रहे थे। इस बार जनरल रावत वही कर रहे हैं। पर उनसे ज्यादा इस स्थिति के लिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश नीति जिममेदार है। यह सही है कि चीन विस्तारवादी है और ताकत के मद में चूर है और सैनिक तथा राजनीतिक शक्ति के प्रदर्शन करने हिचकता नहीं है। चीन को 1962 के बाद से अगर किसी बात ने रोका हुआ है तो वह अमरीका और रूस से भारत के सम्बंध के साथ साथ चीन से भी इसके सम्बंध। भारत के कथित समरनीतिक विशेषज्ञ कहते हैं कि चीन को भारत की उतनी जरूरत नहीं है भारत को चीन की , खास कर आर्थिक विकास, जल और ऊर्जा सुरक्षा तथा विभिन्न ग्लोबल ताकतों के गुटों का सदस्य होने के लिये। दिसम्बर 1988 में राजीव गांधी और चीनी नेता डेंग जियाओ पिंग के ‘हैंडशेक’ के बाद से भारत की नीति रही है कि उच्च स्तरीय बातचीत के माध्यम से पारसपरिक लाभप्रद सम्बंदों का विकास हो। लेकि जबसे मोदी जी सत्ता में आये उन्होंने चीन को चिढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। उन्होंने तिब्बत के निर्वासित प्रधानमंत्री को आमंत्रित किया, 2014 में जापान यात्रा के दौरान चीन की खुल कर आलोचना की, अमरीका के राज्चदूत और दलाई लामा को अरुणाचल आने का न्यौता दिया। इससे कोई लाभ नहीं हुआ बल्कि तनाव उल्टा बढ़ गया। भाजपा के लोग समय समय पर चीनी माल के बहिष्कार का नारा लगाते रहते हैं। ओ बी ओ आर के शुरू करने के दौरान आयोजित समारोह का वहिष्कार से बात और बिगड़ गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि दक्षिण एशिया में भारत समर्थकों की कमी होने लगी। नेपाल , बंगलादेश और श्री लंका खुलकर चीन के साथ हो गये। अब भारत के चारगे ओर चीन समर्थक मुल्क हैं। इसके बावजूद 2015 तक अममीद थी कि मोदी जी मनमोहन सिंह की तरह अमरीका और चीन से संतुलन बनाये रखेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लगभग एक दशक से भारत अमरीकन लॉबी में जाने से बचता रहा। लेकिन मोदी जी ने भूसामरिक हकीकतों को नजरअंदाज कर दिया और अमरीका हो लिये। अप्रैल 2016 में मोदी जी ने लॉजिस्टिक एकसचेंज समझौता किया और इसी के साथ ही 70 साल से चली आ रही विदेशनीति के आधार को चौपट कर दिया। इस समझौते के तहत अमरीकी युद्धक विमान और युद्धपोत भारतीय अड्डों का उपयोग कर सकते हैं। इसके बाद अमरीकी युद्धक विमान और युद्धपोत चीन की दक्षिणी सरहद के समीप तक पहुंच गये। अब स्थिति काफी जटिल हो गयी है। एक विश्वस्त साथी रूस का विश्वास खोकर भारत अमरीका की लॉबी में चला गया और ताजा स्थिति में अमरीका भारत को कहीं समर्थन देता हुआ दिख नहीं रहा है। चीन की रोज रोज की धमकियां और भड़काऊ बयान ना केवल उसकी ताकत का प्रदर्शन हैं बल्कि यह भी बतातें हैं भारत अकेला पड़ गया है। बस एक ही आफियत है कि चीन हमले नहीं कर रहा है और ना उसे ऐसा करने की जल्दी है।
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