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Friday, July 28, 2017

युद्ध के लक्षण नहीं

युद्ध के लक्षण नहीं
इन दिनों भारत चीन गपिरोध में सबसे बड़ी चर्चा जो है ​कि वह है क्या दोनों देशों में जंग होगी। हर आदमी यही जानना चाहता है। गुब्बरे की तरह फूलते शेयर बाजार से लेकर सब्जी बाजार तक सरकारी प्लेटफार्म से लेकर बस अड्डे तक एकही चर्चा है कि क्या जंग होगी? टी वी चैनलों पर चर्चा में जुटे ज्ञान गुमानियों का जत्था टी आर पी बड़ाने की गरज से कु इैसा बोलते हैं कि अब युद्ध शुरू हुआ कि तब हुआ। उधर सीमा पर  पाकिस्तान को सबक सिखाने के नारे लगते हैं तथा उ ननारों की गूजि सोशल मीडिया पर सुनी जाती है। विरोधी स्वरों को जयचंद, देशद्रोही और ना जाने क्या क्या कह दिया जाता है। दूसरी तरफ चीन की​ दाकियां भी बढ़ती जा रहीं हैं। चीन के पूर्व कौंसुल जनरल लियु योफा ने हाल ही मुम्बई में कहा कि भारतीय वापस लौट सकती है वरना उनहें बंदी बना लिया जा सकता है या मार दिया जा सकता है। चीनी विदेश विबाग कह रहा है कि धैर्य खत्म हो रहा है और हालात जंग में बदल सकते हैं। भारत के सेनाध्यक्ष कहते हैं कि वह ‘ढाई मोर्चों पर जंग लड़ सकते हैं।’ वायु सेनाध्यक्ष ने भी वायु सेना को कमर कस लेने का हुक्म दे दिया है। दोनों सेना प्रमुखों की बात कहीं से भी ऐसी नहीं लगती कि युद्ध होगा। उनके बयान संदेश हैं। पहली बात कि सेना को उनके हुक्म में रहना है, तथा ऑपरेशन के लिये तैयार रहना है। दूसरी बात कि भहारत के पास बेशक हथियारों की कमी है पर वह अपने संसाधनों का उपयोग कर युद्ध के मैदान में उतर सकता है। लेकिन जहां तक युद्ध का सवाल है वह दरअसल दूसरे तरीके से एक सियासत है और इतना गंभीर मसला है कि उसका फैसला फौज के जिम्मे नहीं छोड़ा जा सकता है। एक लोकतंत्र में राजनीतिक नेतृत्व ही युद्ध का फैसला करता है और फौज उस फैसले पर अमल करती है। पाकिस्तान की तरह किसी छद्म लोकतंत्र में सेना ही युद्ध का निर्णय करती है , जैसे कारगिल में हुआ या संसद पर हमले के समय हुआ। असल लोकतंत्र में सेना को सदा तैयार रहना होता है। अतएव सेना प्रमुखों की टिप्पणी सही है। बड़बोलापन चलता है लेकिन कोई बी देश युद्ध नहीं चाहता है। यह विवाद की चरम परिणति है। खासकर , परमाणु शस्त्रों की छाया में अपनी बात मनवाने के लिये युद्ध का बिगुल बजाना तो सिरफिरापन है। अपने सरहदों के जो हालात हैं उनके विश्लेषण से ऐसा नहीं लगता कि युद्ध होगा, अलबत्ता रोब दाब चलता है। जहां तक डोकलाम में भारत चीन गतिरोध का सवाल है तो चीन की तरफ हमला करने की सूरत में स्थान को देखते हुये उसे वहां और फौज उतारनी होगी तथा अतिरिक्त ताकत के लिये वायुसेना को भी लाना होगा। अगर चीन यह भी चाहता कि युद्दा डोकलाम तक ही सीमित रहे तो उसे भारतीय हमले को निरस्त करने के लिये सीमा पर तैनाती बढ़ानी होगी। अगर चीन ऐसा करता है तो बारत की तरफ से भी ऐसा ही होगा। निगरानी करने वाले दस्ते खतरे की घंटी बजा देंगे। भारतीय क्षेत्र में गश्त बड़ जायेगी। लेकिन अभी तक चीनी सीमा पर फौजी सक्रियता वैसी नहीं दिख रही है। भारत की तरफ से ऐसा कोई कदम नहीं उठया गया है कि लगे कि मुकाबले की तैयारी है। बेशक भारत तैयार जरूर है पर युद्ध के लक्षण नहीं दिख रहे हैं। दोनों तरफ से राजनयिक वार्ता जारी है।

जहां तक पाकिस्तान के मोर्चे का प्रश्न है तो दोनों देश चाहते हैं कि मामला जममू कश्मीर तक ही सीमित रहे। अंतरराष्ट्रीय सीमा पर शांति बनी रहे। वायु सेना की तैनाती तनाव बड़ा सकती हे इसलिये उसे छोड़ दिया जाना चाहिये। कारगिल युद्ध के जमाने में भी बारत चाहता तो और मोर्चे, खोल सकता था पर वह कारगिल में सीमित रहा। संसद पर हमले के दौरान भी ऐसा हो सकता था पर नहीं किया गया। दोनों स्थितियों कार्रवाई विवादास्पद क्षेत्र तक ही सीमित रही। सियाचिन में भी गोलीबारी सामान्य बात है। दोनों देशों के पास भयानक विनाशक शस्त्र हैं। जिसके उपयोग से जानमाल की अकूत क्षति हो सकती है। यही नहीं युद्ध का देश की दुनिया भर में साख पर प्रतिगामी प्रभाव पड़ता है। सबसे सीदा बात है कि अगर ‘लोकलाइज्ड’ क्षेत्र से युद्ध अन्य मोर्चे पर गया तो दुनिया भर में यही कहा जायेगा कि युद्धरत देश में विवादित क्षेत्र में अपनी क्षमता साबित करने की ताकत नहीं है। इससे अंतरराष्ट्रीय कद भी घटता है। यह सब पगड़ी बचाने का ही तरीका है कि पाकिस्तान ने अपनी जनता को सही नहीं बताया कि झड़पों उसके कितने लोग मार गये। फौज की ताकत को बड़ाने का मुख्य उद्देश्य युद्ध निवारण है। युद्ध तो सब उपाय के नाकामयाब होने के बाद का रास्ता है। भारत पाकिस्तान नियंत्रण रेखा (एल ओ सी)पर हाथपायी कर सकते र्हैं पर चीन के साथ जो वास्तविक नियंत्रण रेखा(एल ए सी) है वह अब बअसर हो च्गुकी है और कूटनीतिक रास्ता ही एकमात्र उपाय है इस विवाद को सुलझाने का। इसी लिये वार्ता जारी है। युद्ध रातोरात नहीं होते। बहुत पहले से इसके लक्षण दिखने लगते हैं।  

 

 

 

      

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