पुलिस अगर अड़ जाये तो….
कुछ साल पहले बॉलिवुड की एक फिल्म आयी थी उसमें एक जूनियर अफसर अपने सियासी आका की ज्यादतियों से परेशान होकर उसपर कार्रवाई करने चला तो उसकी प्रेरणा से पुलिस प्रमुख ने भी कार्रवाई के हुक्म दे दिये और इस तरह उस तरह उस अत्याचारी राजनीतिज्ञ का अंत हो गया। लेकिन यह केवल फिल्मों कानियों की बात है। हकीकत इससे बिल्कुल अलग है। उत्तर प्रदेश पुलिस की एक महिला अधिकारी श्रेष्ठा ठाकुर ने जब एक भाजपा नेता पर कार्रवाई की तो राजनीतिक हलके में खलबली मच गयी और सभी दलों के विधायकों की एक बैठक में उसका तबादला करने का फैसला किया गया। यह केवल उत्तर प्रदेश की घटना नहीं है। बंगाल के एक आला पुलिस अधिकारी ने ‘अपनी वर्तमान पास्टिंग में एक साल पूरे करने के बाद बड़ी राहत से कहा था कि चलो पहली बार एक जगह साल भर टिका रह गया। ’ ऐसा देश भर में होता है। खास कर भारतीय पुलिस सेवा के काडरों के साथ। देश की आजादी के बाद से अब तक के इतिहास में शायद ऐसा कोई वाकया दर्ज नहीं है कि किसी पुलिस प्रमुख ने अपने सियासी आका से सामने किसी मसले पर अड़ गया हो। भारतीय पुलिस सेवा की दुनिया एक अजीब दुनिया है। यहां लोग तरक्की तो चाहते हैं पर जिम्मेदारी से बचते हैं। उनकी दलील होती है कि 130 करोड़ की आबादी वाले इस देश में वे 4000 से कुछ ज्यादा लोग हैं, वे कैसे ‘रूल ऑफ लॉ’ कायम करेंगे। वे यह कह कर हाथ झाड़ लेते हैं कि ‘सामूहिक हिंसा देश के लिये नयी घटना नहीं है। ये घटनाएं योजनाबद्ध नहीं होतीं और ना इनके बारे में पहले कुछ जाना जा सकता है और ना ही इनपर पूरी तरह रोक लगायी जा सकती है।’ उनका मानना है कि हर बार पुलिस उसके समर्थन में नहीं होती, कई बार तो वह प्रभावहीन हो जाती है। उनका विचार है कि सोच समझ कर नीतियां बनायीं जाएं , छाती पीटने से कुछ नहीं होता। लेकिन अगर कोई सम्पूर्ण पुलिस ढांचे पर विचार करे तो ऐसा प्रतीत होगा कि उसका शीर्ष बड़ा हो गया है। इसके पुनर्गठन की जरूरतन है। देश के किसी भी पुलिस मुख्यालय में देखें ए डी जी और आई जी स्तर के कई पद हैं जिनकी उत्पादकता या उपादेयता बिल्कुल नहीं है। आज हमारे देश में भारतीय पुलिस सेवा की दुनिया में विशेषज्ञता की कोई कीमत नहीं रह गयी है। जो अपने राजनीतिक आका को खुश कर सका वह विशेषज्ञ हो जाता है। इधर इसी दुनिया के निचले स्तर पर देखें तो सैकड़ों नौजवान आई पी एस अफसर ऐसी जगह सड़ रहे हैं जहां उनकी कोई जरूरत नहीं है। उत्साह और ऊर्जा से लबालब इन अफसरों को अगर फील्ड में दिया जाता तो ये बहुत कुछ कर सकते थे। लेकिन दिक्कत ये है कि उनके बॉस राजनीतिज्ञों के सामने अधिकार पूर्वक ऐसा नहीं कह सकते या ऐसा करने के लिये दबाव दे सकते हैं। 1984 के दिल्ली के दंगे बहुतों को याद होंगे। उसमें पुलिस की क्या भूमिका थी, वह तो दंगाइयों का ही साथ दे रही थी। 2002 के गुजरात के दंगों में जनता की हिफाजत के लिये कौन जिममेदार था? आजादी के बाद से अब तक देश में कई दंगे हुये। हर समय उस राज्य का पुलिस प्रमुख एक आई पी एस अफसर ही था। उसने कानून और झ्यवस्था के रक्षक के रूप में क्या किया? आई पी एस दुनिया में इसके लिये कोई सदमा नहीं है , कोई शर्म नहीं है। अब बदलने का वक्त आ गया है। इस हालात को बदलना होगा। पुलिस प्रमुखों को अपनी मौजूदगी का अहसास कराना होगा। इसी अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया। उसमें कहा गया था कि ‘मुख्य सचिव की बूमिका और डीजीपी की भूमिका को समतुल्य नहीं माना जा सकता है। अगर मुख्यमंत्री का भरोसा उठ गया तो मुख्य सचिव को तबादिल किया जा सकता है कोई उंगली नहीं उठायेगा पर राज्य पुलिस प्रमुख के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता।’ अतएव जरूरी है पुलिस प्रमुखों का अपने भीतर परिवर्तन लाना वरना इस बदलते दौर में देश को बचाना कठिन हो जायेगा। बशीरहाट से बारामूला तक देखें कहीं जाति तो कहीं सम्प्रदाय तो कहीं गाय तो कहीं दलित फसादात के मसायल बने हैं और पुलिस हर जगह सत्ता की जी हुजूरी में मसरूफ है। पुलिस संगठन का दर्शन है ‘परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम।’ लेकिन ‘दुष्कृताम’ का विनाश नहीं हो पा रहा है, अगर पुलिस खास कर बड़े आई पी एस अफसर अड़ जाएं तो यह हो सकता है।
केवल हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिये
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