पुलिस सुधार के बगैर नहीं रुकेगी यह हिंसा
अक्सर देखा गया है कि जब भीड़ किसी खास मसले पर लोगों को पीट पीट कर मार डालती है तो शासक दल को इसके लिये जिम्मेदार ठहराया जाता हैजिसे इन दिनों गौ रक्षा के नाम पर एक खास समुदाय के लोगों को पीट पीट कर मार दिये जाने की घटनाएं सुनने में आ रहीं हैं। इन घटनाओं को लच्छेदार कहानियों का रूप दंे कर मीडिया में प्रचारित किया जा रहा है। तरह तरह की व्याख्या की जा रही है और सारी व्याख्याओं का इशारा शासक दल की ओर है। साफ कहा जाय तो यह कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आयी उसी कारण यह सब हो रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। हर शासन काल में इस तरह की घटनाएं होती रहीं हैं। अलबत्ता उनका स्वरूप बदला हुआ रहता है। मूल तथ्य है भीड़ द्वारा की गयी हिंसा। भीड़ या गुडों का समूह अपने तरह का न्याय अक्सर करता आया है। इस हिंसा को इस स्वरूप में प्रचारित करने के लिये मीडिया दोषी है। इन दिनों मीडियाकर्मियों में तेजी से वस्तुनिष्ठा का अभाव हुआ है वे विषयनिष्ठ होते जा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि भीड़ द्वारा मारपीट भारत में असामान्य नहीं है आहैर इसका प्राथमिक कारण सत्तारूढ़ दल नहीं है।
यहां सबसे बड़ा या कहें यक्ष प्रश्न है कि ये हिंसाएं होती क्यों हैं?इसके मूल में पुलिस व्यवस्था है। जब तक पुलिस व्यवस्था में सुधार नहीं होगा, इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी। इसके लिये पुलिस बल की संख्या में कमी और पुलिस विभाग का अतिशय राजनीतिकरण दोषी है। कुछ महीने पहले एक मुलाकात में हावड़ा के पुलिस आयुक्त डी पी सिंह ने अत्यंत अनौपचारिक ढंग से कहा था कि ‘पुलिस बल की संख्या में कमी के कारण काम का वजन बड़ता जा रहा है और उसे ढोना मुश्किल हो रहा है।’ डी पी सिंह ने जितना कहा उससे कहीं ज्यादा अगर उसे हावड़ा के ‘सोशियो पोलिटिकल इथिनोग्राफी’ के संदर्भ में समझा जाय तो बहुत साफ लगता है कि यह देश की शासन व्यवस्था का प्रोटोटाइप है। यही नहीं अभी पिछले हफ्ते की बात है कि उत्तर प्रदेश में एक महिला पुलिस अधिकारी का तबादला केवल इस लिये कर दिया गया कि उसने एक पार्टी कर्मी का रोब नहीं माना था, और उसके तबादले का फैसला 11 पार्टियों के विधायकों की बैठक में किया गया। यानी पुलिस लाचार है सियासी आकाओं की बात मानने को। इसके लिये जरूरी है कि पहले पुलिस सुधार किया जाय। लेकिन पुलिस सुधार नहीं किये जाने के दो कारण हैं। पहला कि कोई भी राजनीतिज्ञ नहीं चाहेगा कि पुलिस खुदमुख्तार हो जाय। उसे काम करने की पूरी आजादी हो। हर राज्य में सर्वोच्च पुलिस अफसर वही होते हैं जो सत्ताधारियों के मन मुताबिक होते हैं। वे बखूबी जानते हैं कि उन्हें वही करना है जो उनके सियासी आका पसंद करते हैं ना कि जो कानून कहता है।दूसरी बात है कि राजनीतिक्ष् जानबूझ कर ऐसे कानून बनाते हैं जो उन्हें मालूम है कि लागू नहीं होंगे या लागू नहीं किये जा सकते या उनहशें लागू किये जाने की जरूरत ही नहीं है। अब गोहत्या का ही मामला देखें। यह देश के लगभग 18 राज्यों में प्रतिबंधित है। राजनीतिज्ञ बखूबी जानते हैं कि सभी तरह की गो हत्याएं नहीं रोकी जा सकतीं। जैसे बूढ़ी और अन्य उत्पादक गाएं, किसान अथवा डेरी उद्योग वाले इसका क्या करेंग? जब तक सरकार इन गायों को खरीद कर पालने की व्यवस्था नहीं कर लेती तब तक इनका बिकना नहीं रुकेगा। अब उस पर पाब्ंदी तो हिंदू भावनाओं को देखते हुये लगा दी गयी पर व्यवहारिक राजनीति उसे चोरी छिपे बेचने के पक्ष में है। अब एक ईमानदार और स्वतंत्र पुलिस अफसर गो हत्या को रोकने के लिये बाध्य है पर चूंकि गायों की गैरकानूनी हत्या से राजनीतिज्ञों की झोली भरती है अतएव वे पुलिस को छोड़ देने का इशारा करते हैं। बीच में आते हैं कथित गौरक्षक। उनके अपने स्वार्थ हैं तथा पुलिस उनके कनेक्शंस जानती है लिहाजा कुछ नहीं करती। अतएव ये गेरक्षा के नाम पर जो मारा मारी हो रही है वह भी परोक्ष रूप में कानून के अमल से जुड़ी है। इसे खत्म करने के लिये जरूरी है कि पुलिस सुधार किये जाएं। सुधार का मतलब है कि शीर्ष स्तर पर जो पुलिस अफसर बैठे हैं वे राजनीति के प्रभाव से मुक्त हों। इसके लिये जरूरी है कि एक स्वतंत्र पुलिस आयोग बने जिसके पास नियुक्ति के लिये नाम भेजे जाएं और वह सम्बंधित राज्य के हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस, मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता की एक कमिटी से परामर्श के बाद नियुक्तियां करे। साथ ही नये पुलिस कर्मियों की ब्हाली भी हो। आंकड़े बताते हैं कि भारत में औसतन एक लाख आबादी पर महज 119 पुलिस वाले हैं जबकि अमरीका में 284,जर्मनी में 296 और फ्रांस में 340 हैं। यही नहीं कौटिल्य के अनुसार ‘‘आरक्षा का दर्शन है कि आरक्षक जितने कम होंगे कानून उतने सख्त बनाने होंगे ताकि संकटपूर्पिरिस्थिति से निपटा जा सके जबकि यदि आरज्ञाक अधिक होंगे तो कानून लचीले बनाये जा सकते हैं ताकि आरक्षित जन समूह को सुविधा रहे।’’ भीड़ द्वारा किसी काहे पीट पीट कर मार दिया जाना कोई ऐसी घटना नहीं है जो 2014 के बाद आरंभ हुई है। इसका मूल तो पुलिस सुधार में निहित है।
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