देश से काटने की साजिश
खबर है कि कर्नाटक सरकार के कुछ मंत्री बंगलोर के मेट्रो रेल कारपोरेशन के अफसरों पर दबाव दे रहे हैं कि स्टेशनों में लिखे हिंदी नामों को हटा में। कर्नाटक के परिवहन मंत्री रामलिंगा रेड्डी ने मीडिया से कहा है कि कैबिनेट की बैटक में इस आशय का प्रस्ताव पारित करवा लेंगे। इस प्रस्ताव के नियम बन जाने के बाद बंगलोर मेट्रो रेल के स्टेशनों में केवल कन्नड़ और अंग्रेजी में नाम लिखे रहेंगे। यहां यह बता देना जरूरी है कि बंगलोर मेट्रो रेल परियोजना में आधा हिस्सेदारी केंद्र सरकार की है और यह घोषित नियम है कि ऐसी परियोजनाओं में त्रिभाषा – स्थानीय भाषा, अंग्रेजी और हिंदी- फारमूला लागू किया जायेगा। मेट्रो रेल के साथ भी यही लागू होता है। यह देखने में या ऊपरी तौर पर लगता है कि भाषायी कट्टरवाद है लेकिन जरा गंभीरता से सोचें तो यह अलगाववाद की साजिश है। कन्नड़ जनता के भीतर खुद को शेष भारत से अलग समझने का भाव पैदा करने का बेहद खतरनाक षड्यंत्र है। इस तरह के भावों की या भाषा की अगली पायदान इतर भाषाभाषियों पर हमले और उनसे वैमनस्य को प्रात्साहित करना है। पिछले डेढ़ दशकों में बंगलोर शहर की इथिनोग्राफिक बुनावट में भारी बदलाव आया है। 2001 में वहां कन्नड़ भाषियों की संख्या 41.54 प्रतिशत थी वही आज और हिंदी-मराठी भाषियों की संख्या 2.9 प्रतिशत जो आज बढ़ कर 5.63 प्रतिश हो गयी है। अगर इसमें कोकणी भाषियों की संख्या जोड़ दी जाय तो यह प्रतिशत और बड़ जायेगा। जबकि कन्नड़ भाषियों की संख्या मामूली रूप में बढ़ कर 42.60 प्रतिशत हुई है। यही नहीं आज बंगलोर शहर की जुबान-ए- राह हिंदी बन गयी है तथा यह और तेजी से बढ़ रही है। इससे साफ जाहिर होता है कि बंगलोर और व्यापक तौर कर्नाटक के विकास में बाहर से आये लोगों खासकर हिंदी भाषी समुदाय की सेवा तथा पूंजी का सबसे बड़ा योगदान है। यहां यह बता देना जरूरी है कि किसी भी देश, चाहे वह जितना भी ज्यादा बहुभाषिक देश हो, की सामूहिक पहचान उसकी भाषा है जो केवल एक ही होती है। हिंदी के विरोध में आंदोलन चलाने वालों का सबसे पहला तर्क है कि हिंदी राष्ट्र भाषा नहीं है वह राजभाषा है। बेशक ऐसा ही है। लेकिन क्या आप समझ सकते हैं कि फकत अंग्रेजी ज्ञान और स्थनीय भाषा के ज्ञान के आधार पर हम समूचे देश के साथ अंतस्संबंध पैदा कर सकते हैं? पिछले 70 वषोंं से या उससे भी ज्यादा समय से हिंदी हमारे देश में सबसे अदिक लोगों द्वारा समझी जाने वाली भाषा है, अंग्रेजी से भी अधिक। एक ऐसी भाषा जो सार्वदैशिक बोधगम्य ना हो तो हम केवल ऐसी भाषाओं मेंशिक्षित होंगे जो क्षेत्रीय हो या हमारली ना हो। ऐसी सूरत में देश केवल घरेलू नौकरों और कल्र्कों का देश बन कर रह जायेगा। हमारे देश की सबसे बड़ी मजबूरी है कि हमारे नेता खुद को खुदा समझते हैं और वे मनचाहे फैसले हम पर थोप देते हैं। देश में एक सदी से ज्यादा अवधिसे अदालतें चल रहीं हैं और देश के किसी भाग का फरियादी नहीं समझ पाता कि उसे कठघरे में खड़ा कर जिस भाषा में फैसला सुनाया जा रहा है वह क्या है? किसी के मुकद्दर का फैसला एक ऐसी बाषा में होता है जो उसे मालूम नहीं है ओर हमारे नेता हिंदी- कन्नड़ की रस्साकशी में लगे होते हैं। सार्वदैशिक भाषा या बहुजनीय भाषा एक तरह से खिड़की का काम करती है। खिड़की के अभाव में कमरे की हवा खराब हो जाती है। बहसुजनीय भाषा की गैरहाजिरी में आम आदमी के सोचने समझने की ताकत कुंद हो जाती है। इसके बाद जनता विचारहीनता के अंदोर में बेठकर नेताओं के तिलस्माती भाषण सुनने या दोहरे अर्थों वाली फिल्मों को देखने के लिये बाध्य हो जाती है। नेता कहेंगे हिंदी थोपी जा रही है। चलो मान लेते हैं कि हिंदी थोपी जा रही है तो अंग्रेजी स्वत: सुखाय है। एस ऐसी भाषा जिसका सही उच्चरण सीखने में पूरी जवानी गुजर जाती र्है उस बगै को अपने देश की अत्यंत वैज्ञानिक भाषा की तुलना में बड़ा बनाने की प्रक्रिया क्या थोपे जाने की साजिश नहीं है?जिस देश या क्षेत्र के बच्चे पैसों के अभाव में अंग्रेजी पड़ नहीं पायेगे और हिंदी उन्हें पढ़ने नहीं दी जायेगी यह हलात एक ऐसे तिलिस्म का सृजन करते हैं जिनकी गलियां गंभीर कुंठा या आत्महत्या के अंधेरे में जा कर गुम हो जाती हैं।
जो लोग या समुदाय रेलवे स्टेशन से हिंदी मिटाने को उद्यत हैं वे पूछ सकते हैं कि हिंदी की तरफदारी में ही क्यों बात हो और उनकी क्षेत्रीय भाषा के पक्ष में क्यों नहीं? यहां यह जानना जरूरी है कि कौन सी भाषा अपने मिथकों और बिम्बों की सम्पूर्णता के साथ सबसे ज्यादा आबादी द्वारा समझी जाती है। बेखटक उत्तर होगा हिंदी। जी हां हमारे देश से बाहर किसी भी जगह हिंदी ही हमारी सामूहिक पहचान को अभिव्यक्त करती है। केवल हिंदी ही विश्व जनमानस की आदिम स्मृति में भारत की पहचान के रूप में अंकित है। बंगलोर के मेट्रो स्टेशन से हिंदी के नाम पोंछने से उसका आंतरिक अतीत खत्म नहीं होगा पर लक्ष्यित आबादी से उसकी तार्किकता समाप्त हो जायेगी। मनोवैज्ञानिक तौर में भाषा के दो रूप होते हैं या उसके दो चरित्र होते हैं एक तो जो हम बोलते पड़ते हैं और दूसरी जो हम किसी चीर्ज को जैसे सिनेमा या उस प्रकार की चीजो को देख कर समझते हैं। हिंदी में लिखे नाम स्टेशनों से मिटा दिये जाने केबाद पाठ्य या वाच्य गुण को खत्म कर उसकी तार्किकता को मिटा देने की कोशि है। उससे खाली मानस के सामने फकत ‘मुन्नी बदनाम हुई’ जैसे फूहड़ दृश्य आयेंगे। जिसे देखने के बाद हिंदी भाषी समुदाय या क्षेत्र के बारे में जो विचार बनेगे उसकी कल्पना मात्र से दुख होता है। ये विचार हिंदी भाषी या यों कहें वृहत्तर भारत के विचार से पार्थक्य की चिंगारी को हवा देंगे। गौर करेंगे हजारों साल से जब तक देश की एक भाषा नहीं थी तबतक देश गुलाम रहा था। जैसे ही एक भाषा ने मुल्क का और कौम का झंडा उठाया देश आजाद हो गया। जैसे ही भाषा और जाति का विवाद खड़ा हुआ देश बंट गया। कैसी विडम्बना है कि कांग्रेस, जिसके नेताओं ने भाषा के धागे में देश को पिरोया और अंग्रेजों को शिकस्त दी उसी कांग्र्र्रेस के नेता कन्नड़ -हिंदी का विवाद उठाकर देश के दिलों को बांटने की गंदी साजिश में लगे हैं। विभाजन चाहे देश का हो, क्षेत्र का हो या दिलों, सदा दुखदायी होता है। यह कन्नड़ हिंदी का विवाद एक विशेष इलाके को देश से काटने की घिनौनी साजिश है। इसका विरोध जायाज है और विरोध होना चाहिये।
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