आतंकवाद जिसे हम नहीं देखते
एक सदी से कुछ ज्यादा ही वक्त गुजरा होगा जब लंदन में रह रहे एक भारतीय ने एक लेख लिखा था जो भारतीय राष्ट्रवादियों के लिये भाषणों का मसाला बना गया था। उस भारतीय का नाम था डा. दादाभाई नौरोजी और उनहोंने जो लेख लिखा था उसमें अंग्रेज शासन समर्थकों को यह चुनौती दी गयी थी कि वे अंग्रेजों के सुशासन की तरफदारी और देसी रियासतों की बुराई करने वालों को चुनौती दी गयी थी। खास कर आर्थिक साम्राज्यवाद के मामले में। उन्होंने यह बताने का प्रयास किया था कि अगर औपनिवेशिक शासन द्वारा कमाई गयी दौलत को यहां से ले जाया जाता है तो शासन सही नहीं कहा जायेगा। यानी, दौलत कमाने के लिये शासन का सहयोग ही गलत है। नौरोजी के लेख के निष्कर्ष में कहा गया था कि किसी खास व्यक्ति या समुदाय के लाभ में शासन का सयोग ही गलत है। अब इस संदर्भ में अपने देश की वर्तमान हालत पर सोचें। अभी दो तरह की घटनाएं ज्यादा प्रमुख हैं। पहला साम्प्रदायिक या धार्मिक कट्टरता को बड़ावा और दूसरा उसके नाम पर हिंसा। इन घटनाओं में शासन का परोक्ष सहयोग से इनकार नहीं किया जा सकता। चाहे वह उत्तर प्रदेश हो या हरियगणा या पश्चिम बंगाल चाहे देश का कोई और क्षेत्र सब जगह खास किसम का धार्मिक कट्टरवाद पनप रहा है। सोचने की बात है कि क्या इस तरह की बढ़ती मनोवृति लोकतंत्र के लिये उचित है। आतंकवाद इस समय एक बिम्ब का रूप धारण कर चुका है। शायद ही किसी को इसी का अर्थ विस्तार से बताया गया हो पर लगभग सब जानते हैं कि इसका अर्थ हैं देश को किसी बाहरी ताकत से अह्थिर करने का सिद्धांत। हमारे नेता अपने फायदे के लिये इसी सिद्दांत को प्रचारित कर इसके अर्थ को एक स्वरूप प्रदान कर चुके हैं। अभी हाल में मोदी जी अमरीका गये थे । वे ग्लोबल आतंकवाद से मिल कर मुकाबलाल करने की प्रतिबद्धता जाहिर कर रहे हैं। इस विंदु पर एक सवाल उठता है कि आतंकवाद से मुकाबले के लिये हमारे नेता अमरीका से क्यों हाथ मिला रहे हैं जबकि इस जंग में उसकी भूमिका दूसरे तरह की रही हैं। अमरीका ने तालिबान को बड़ावा दिया और इस्लाम के नाम पर निर्दोष लोगों पर कहर बरपाया। यही नहीं महाविनाश के हथियार के झूठे प्रचार के बल पर ईराक को युद्ध में झोंक दिया नतीजतन हजारों लोग मारे गये। मरने वालों में दुधमुंहे बच्चे और जईफ औरतें भी थीं। इसमें शक नहीं कि भारत को सीमापार से आतंकी खतरा है। देश के विभिन्न भागों में आतंकी हमले होते भी हैं और उससे एक खास किस्म का द्वेषभाव देश भर में फैलता जा रहा है जो भारत के बहुजातीय समाज के विचार से विपरीत है। पर यह भी सत्य है कि देश के भीतर भी आतंकवाद पनप रहा है। अगर इससे नहीं निपटा गया तो ज्यादा खतरानाक हो जायेगा। मोदी जी इसे नजरअंदाज कर बाहरी खतरे को भीतर ला रहे हैं। भीतरी आतंक वाद के दो स्वरूप हैं एक तो नया है और दूसरा बहुत पुराना। पहला जो नया है वह दाहे तीन वर्षों से देखने को मिल रहा है खास कर उत्तरप्रदेश तथा उत्तर भारत के अन्य भागों में। गाय के नाम पर खून खराबे हो रहे हैं। यह क्रिया एक तरह से नाभिकीयि विखंडन की प्रक्रिया की तरह जिसमें एक इलेक्ट्रान के विखंडन के बाद चेन रियेक्शन शुरू हो जाता है और उसी के साथ विनाश। ठीक इसी तरह देश के एक भाग में गाय के नाम पर मुसलमान और दलित मारे जाते हैं तो दूसरे भाग में रामनवमी या रथयात्रा के जुलूस को लेकर दंगे भड़क जाते हैं। दर असल यह क्रिया नहीं है एक विर है जो लोगों को भीतर से उत्तेजित कर हिंसा के लिये ‘एक्टिवेट’ कर देता है। हिंसा की क्रिया और प्रभाव क्षेत्र बढ़ता जाता है। इस तरह की हिंसा के विरोध में हाल में एक आंदोलन भी हुआ था-‘नॉट इन माय नेम।’ इसका असर भी दिखा और प्रधानमंत्री अहमदाबाद में साबरमति आश्रम से जनता को सम्बोधित करने के लिये बाध्य हो गये। लेकिन क्या सम्बोधन पर्याप्त है। यह हिंसा क्षणिक उन्माद नहीं है बल्कि विचारों से उद्भूत है इस तरह के विचारों से उत्पन्न असुर के दमन के लिये सरकार को लगातार सचेष्ट रहना पड़ता है। साथ ही इससे जनता को बचाने की जिम्मेदारी भी सरकार की है। आजादी के 70 साल हो रहे हैं और हम बखूबी जानते हैं कि यह हमारे देश की सरकार ईस्ट इंडिया कम्पनी और ब्रिटिश शासन को यहां से हटा कर सत्ता में आयी।अगर इसने वैचारिक आतंकवाद को नहीं दबाया तो स्वतंत्रता तथा लोकतंत्र का अर्थ समाप्त हो जायेगा। भारत को सुशासन की जरूरत है। हमारे देश के शहीदों का वह गीत, ‘हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के….’,हमेंऔर हमारे नेताओं को याद रखना चाहिये।
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