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Monday, July 3, 2017

संतों, घर में झगड़ा भारी

संतो, घर में झगड़ा भारी
2017 का राष्ट्रपति चुनाव का मुकाबला दिलचस्प होता जा रहा है। वैसे तो सियासत में हर बात जायज होती है पर इस बार तो ऐसे ऐसे अफसाने बन रहे हैं कि देश भौंचक है। जो अबसे 20या 25 साल पहले संभव नहीं था उसी बात पर अभी ताल ठोके जा रहे हैं। वह (बे)ताल भी कुछ इस तरह लोगों के सिर पर सवार है कि पूरी जनता फकत बिम्बों को ही लेकर ही करताल बजात रही है। आगे बढ़ने के पहले यह जान लें कि राजनीति में बिम्ब बयानों और विचारों के प्रतिनिधि हुआ करते हैं। ये लोगों में ऊर्जा का संचार करते र्हैं तथा उनहें हतोत्साहित भी कर सकते हैं। वाणिज्य में बिम्ब ब्रैंड में बदल जाते हैं और उसमें लाभ हानि के तत्व जुड़ जाते हैं इस लिये यहां आकर ब्रैंड उस वस्तु की खूबियों का भी बयान है। इसके साथ ही अलग अलग वर्ग में अलग अलग विचार पैदा करते हैं। जैसे जो लोग गरीब है वे उस खास ब्रैंड की खूबियों कमियों के अलावा उसके मूल्यों पर भी विचार करता है। मध्य वर्ग उसके टिकाऊपन के बारे में सोचता है। यही बात तब होती है जब एक पार्टी देश के सर्वोच्च पद के लिये कोई उम्मीदवार खड़े करती है तो लोग उसके गुण- दोष पर अलग- अलग रूप में सोचने लगते हैं। हममें से बहुतों को याद होगा कि 1977-1980 के मध्य जनता पार्टी के शासनकाल में एक दलित (कांग्रेसी शब्द कोश में हरिजन) को प्रधानमंत्री बनाये जाने की गुंजायश हुई थी पर उस समय सत्ताधारी गटबंधन के ताकतवर अंग और जाट नेता चौदारी चरण सिंह ने लंगड़ी मार दी और हरिजन नेता बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री बनते बनते रह गये। यह तथ्य बताता है कि विगत 40 वर्षों में कितना बदल गया भारत। इस बार बाबू जगजीवन राम की पुत्री मीरा कुमार राष्ट्रपति के चुनाव में सत्तारूढ़ दल के राम नाथ कोविंद का मुकाबला कर रहीं हैं। एक दलित के विजयी होने की पूरी सुनिश्चितता है। ऊपर जैसा कहा गया कि सियासत में बिम्ब बयानों और विचारों के प्रतिनिधि होते हैं। अबसे 25 साल पहले जो अकल्पनीय था वह अब हो रहा है। सभी पार्टिया बाबा साहेब अम्बेडकर को सम्मान दे रहीं हैं क्योंकि अब दलित एक बड़ा वोट बैंक हो गया है। देश में 18 प्रतिशत आबादी के साथ दलित वर्ग अब सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह में से एक हो गया है। चुनावों में सबको वोट देने का अधिकार और गुप्त मतदान की प्रक्रिया परिलवर्तन का वाहक बनी और इसने समाज को बदल दिया। ऊंच नीच के स्तरों में उदग्रवत गठित पारतीय समाज अब क्षैतिज गटन के करीब पहुच गया है। एक ऐसा समाज बन रहा है जिसमें सब बराबर हो सकते हैं। लेकिन तब भी बीच में कई छोलदारिया हैं क्योंकि वोट बैंक की राजनीति नंे सबको अलग अलग टुकड़ों बांटा हुआ है। यह एक खतरनाक विभाजन है। अभी मुस्लिम भी अलग अलग फिरकों- जातियों में बंटे हैं। यहां तक कि उत्तर भारत के मुस्लिम समुदायों और दक्षिण भारत तथा उत्तर पूर्व के मुस्लिम समुदायों के सामाजिक गठन में भारी फर्क है।देश के कथित धर्मनिरपेक्षवादियों को आघात ना लगे तो कहा जा सकता है कि देश में एक मुस्लिम पार्टी बन जाय तो इसमें हैरत नहीं होगी। क्योंकि अभी जितने मुस्लिम महाज हैं वे सब कांग्रेस और कई अनय दलों के एजेंट हैं। यह एक खतरनाक संकेत है और जिस दिन मुस्लिम समुदाय को अपना एक अलग ‘कांसीराम’ मिला उस दिन नजारा दूसरा होगा।

हमारे देश में बातों को किस तरह नया रूप दिया जाता है कि मिथक अपना स्वरूप बदल देते हैं। अम्बेडकर को सामने रख कर दलित का ढोल पीटा जा रहा है लेकिन यह नहीं बताया जा रहा है कि अम्बेडकर दलितों के हिमायती नहीं वे जातियों के विरोधी थे। वे बौद्दा केवल इसलिये बन गये कि इस जातिबद्ध समाज से अलग हो जाएं। वह एक गुस्सा था जाति व्यवस्था के प्रति, उनमें उसे इंकार कर देने की क्षमता थी पर आज सियासत में उनहें जहां बिम्ब के रूप में इस्तेमाल कर वोट बैंक को मजबूत करने कोशिश हो रही है। ऐसे विचार राष्ट्रीय एकता, अखंता और सामाजिक सौहार्द के लिये शुभ नहीं हैं। रामनाथ कोविंद को यह कह कर खड़ा किया गया कि इससे दलित सशक्तिकरण होगा। यह समाज को एक झांसा है। भाजपा जो बहुनियादी तौर पर और ऐतिहासिक तौर पर दलित विरोधी रही है वह दलित समर्थक होने का नकाब पहन रही है। यह मनोवैज्ञानिक तौर पर प्रतीकवाद को बिम्बवाद में बदलने का प्रयास है। क्योंकि दलितों के भी अपने फिरके हैं। सभी दलित एक नहीं हैं। अभी देश के सर्वोच्च पद के उममीदवार रामनाथ कोविंद ने 2010 में रंगनाथ आयोग का विरोध करते हुये कहा था कि मुस्लिम दलित और इसाई दलित दलित वर्ग में नहीं हैं। ‘इस्लाम और ईसाइयत भारत के लिये असंगत हैं।’ कैसी विडम्बना है कि भारत में हर 18 मिनट पर दलितों के विरूद्ध एक अपराध होते हैं। उनमें केवल 6 प्रतिशत मामलों में सजा हो पाती है ऐसे में एक दलित राष्ट्रपति ! दलित प्रतीकवाद और जातिवाद समानांतर नहीं चल सकते हैं। समाज में या शासन में जब कोई बिम्ब अपना विचार खो देता है तो वह व्यर्थ हो जाता है। राष्ट्रपति का पद हमारे लोकतंत्र के शासन के बिमब है और सामाजिक कारणों से उसके व्यर्थ होने का खतरा बढ़ जाता है।  

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