नोटबंदी से जी एस टी तक
देश के अधिकांश लोग यह समझते हैं कि प्रधहानमंत्री नरेंद्र मोदी निहायत इंटेलिजेंट और दूरदर्शी व्यक्ति हैं। वे अपने देश और देशवासियों से बेहद प्रेम करते हैं। लेकिन एक राजनीतिज्ञ होनी की वजह से उन्हें यह तो समझना चाहिये कि कोई मुल्क केवल अक्खड़पन से से नहीं चल सकता और ना लोग लंतरानियों , डींगों और आधे सच की खुराकों से नहीं चुप रह सकते। इसलिये करनी और कथनी में समानता लाकर स्वंय को अपूर्ण और भग्न आश्वासनों के मलबे से बाहर निकालने के बदले वे आर्थिक लुभावनेपन का राग अलापने लगे हैं। यह नया राग है जी एस टी का। इसी तरह का एक राग पिछले नवम्बर में सुनने को मिला था। इसके नशे से जो आमजनता को हानि हुई उस पर तो बात ना करें वर्ना कीर्तनिये आप को जलील कर देंगे। वह जो कहावत है न खोटे सिक्के वाला कि ‘समय पर खोट सिक्का भी काम आ जाता है’, मोदी जी ने फिर से काले धन तथा आर्थिक अनुशासन का वह खोटा सिक्का जेब से बाहर निकाल लिया है। अभी देश कालेधन और आर्थिक अनुशासन के ‘छुआ- छुई’ वाले खेल से थक कर बैठा ही था कि ऊपर से नीचे रिसने वाली अर्थव्यवस्था का सर्कस शुरू हो गया। यह तो साफ है कि हम भारतीय दो साल तक ‘सुधारऔर जंग’ की ऐसी लगातार – धुआंधार ‘बमबाजी’ झेलपाने की कुव्वत नहीं रखते और श्रांत –क्लांत इस तरह श्लथ हो जायेंगे कि इन विषयों पर या शासन के सही तौर तरीकों पर बौद्धिक विमर्श के योग्य नहीं रहेंगे। यह एक तरह से जनता को ‘रीयल पोलिटिक’ के मसायल पर सोचने समझने के लायक नही रखने की मनो वैज्ञानिक राजनीतिक समरनीति है। मोदी जी ने भी भी काल के रॉबिनहुड की अपनी एक अलग छवि बना ली है। मोदी जी ने चार्टर्ड अकाउंटेंट्स की एक बैठक में दहाड़ते हुये कहा कि ‘जिन्होंने गरीबों को लूटा है उन्हें लूट की दौलत गरीबों को लौटानी होगी।’ लेकिन यह नहीं बताया कि इसके लिये सामाजिक अनुबंध का जो सिद्धांत है उनके मन में वह क्या है?मोदी जी की इसी दहाड़ में सुर मिलाते हुये योगी जी ने कहा कि ‘जीएसटी गरीबों का मुकद्दर बदल देगा।’ इन सब बातों से ऐसा लगता है कि लूट की दौलत को गरीबों में बांटेंगे मोदी जी। पर अगर यही मोदी जी का आर्थिक सिद्धांत है तो मान कर चलिये कि देश में ऐसी कारपोरेट संस्कृति का विकास जो मुनाफे को तिजोरियों में बुद कर लोगी और घाटे को समाज के सिर थोप देगी। अगर दूसरी तरह से सोचें तो यह भी कहा जा सकता है कि जी एस टी के पर्दे में सरकार टैक्स का दायरा बड़ा कर नोटबंदी , और बचत खातों पर व्याज दर घटने के बहाने जो गरीबों से लूट हुई है वह वसूलेगी। यह सही है कि अर्थ व्यवस्था में सबके लिये कुछ ना कुछ काम होता है पर समस्या ये है कि मोदी जी ने पेशेवरों का काम अफसरों के भरोसे छोड़ दिया है। अर्थ व्यवस्था को साफ सुथरा करने के चैम्पियन के तौर अपनी पीठ खुद ठोकने वाले एक आदमी के अहं के चतुर्दिक कोई बड़ा ढांचा खड़ा करने में व्यवहारिक कठिनाइयां होती हैं। यह भही मानना होगा कि सभी आर्थिक परीकथाओं का अंत सुखद नहीं होता खास कर उनका जो विकास की संसंगत धारणाओं पर टिकी नहीं होती।
अभी तो स्वच्छ भारत अभियानऔर कैशलेस डिजीटल इंडिया जैसी दो शहरी परीकथाएं सिर्फ कहावतें बनकर रह गयी हैं, उन्हें भी तो व्यवहारिक रूप देना है। ये सारी कथाएं अर्थशािस्त्रयों को हास्यास्पद लगती हैं लेकिन आमआदमी को ये आाशाजनक महसूस होती हैं और वह इस चक्रव्यूह में फंस जाता है और ‘बेताल ’ किसी का किसी बहाने ‘विक्रम’ के कंधे पर सवार रहता ही है। मोदी सरकार आत्ममुग्ध स्थिति में चल रही है। 15 लाख रुपये हर आदमी के खाते में जमा कराने के चुनावी आश्वासन को पूरा नहीं किये जाने के दोष से पार्टी ने खुद को मुक्त कर लिया क्योंकि उसे मालूम है कि जनता के मन में यह बात पहले से ही बैठी हुई है कि चाहे कितनी भी उदार सरकार हो किसी के खाते में फोकट में एक रुपया भी नहीं जमा करायेगी। लेकिन इस बार नोटबंदी से उत्पीड़ित जनता माफ करने के मूड में नहीं लगती है क्योंकि उसे यकीन है कि जी एस टी करप्शन के खिलाफ आधार बनेगा। नोटबंदी के दौरान कुछ अमीरों की क्षणिक कठिनाइयों के छद्म सुख से जनता संतुष्ट नहीं होने वाली। सरकार को यह स्पष्ट करना पड़ेगा कि लूट का माल अमीरों से गरीबों की ओर किस तरह आ रहा है। सबने देखा है कि नोटबंदी ने असंगठित क्षेत्र के गरीबों की कमर ही तोड़ दी। जमीनी स्तर पर कुछ हो इससे पहले मोदी जी को स्विस बैंक वाला बेताल अपने कंधे से उतारना होगा। इतना कहने से कि अब भारतीयों का स्विस बैंकों में धन घटा है , काम नहीं चलने वाला। इसलिये जरूरी है कि ऐसी व्यवस्था करें जिससे जिससे सबका भला हो, रोजगार बड़े और समृद्धि का समानुपातिक विभाजन हो वर्ना परीकथा का दुखद अंत आसन्न है।
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