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Monday, July 24, 2017

देश में सुलग रहा है किसान आंदोलन

देश में सुलग रहा है किसान आंदोलन

देश में धीरे धीरे खाद्यान्न का संकट होता जा रहा है। खाद्यान्न का सबसे बड़ा सम्बंध देश की कृषि व्यवस्था है और उस व्यवस्था के तहत खेतों से उपभोक्ता के बीच एक लम्बी श्रृंखला होती है और इस श्रृंखला के अंतिम छोर पर उपभोक्ता होता है और आरंभिक सिरे पर किसान। किसी भी खाद्य संकट में सबसे ज्यादा मार झेलता है बिचारा उपभोक्ता। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश में विगत 20 वर्षों में 3 लाख से ज्यादा किसानों ने खुदकुशी की। वैसे किसानों की स्थिति हमारे देश में कभही अच्ची नहीं रही। बेशक हमारे नेता इसे छिपाने के लिये जितनी बातें कहें। भारत माता ग्रामवासिनी के नारों से लेकर सबका साथ सबका वशस तक के नारे अबतक खोखले साबित हुये। चाहे वह होरी हो या जुम्मन अब तक किसानों की दशा नहीं सुधरी।

तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है।

… और आहिसता आहिस्ता हालात यहां तक पहुंच गये कि किसान आत्म हत्या करने लगे। यही कारण है कि किसानों का आंदोलन बढ़ता जा रहा है। किसान राजनीति के हथियार बनते जा रहे हैं।जिस तरह भूख और लाचारी एक औरत को अपनी अना बेचकर रोटी खरीदने के लिये मजबूर कर देती है उसी तरह एक किसान को अपने हल और हंसुए पिघला कर बंदूकें बना लेने का हुनर सिखा देती है। किसान राजनीति के हाथ के हथियार बन रहे हैं और शातिर राजनीतिज्ञ इन्हें एक जुट कर राजनीतिक आंदोलन खड़ा कर रहे हैं। धीरे धीरे अखिल भारतीय स्तर पर एक किसान आंदोलन स्वरूप ले रहा है। यह देश के इतिहास में एक व्यापक और महत्वपूर्ण  किसान आंदोलन का स्वरूप लेगा।

सवाल है कि किसानों को खेतों तथा हलों को छोड़ कर क्यों राजपथ पर मुट्ठयां ताने खड़े होने पर बाध्य होना पड़ा? जो लोग खेती को समझते हैं वे अंदाजा लगा सकते हैं कि इसकी जड़ें कथित हरित क्रांति में पैबस्त हैं। यही नहीं सरकार द्वारा गरीब किसान को अनदेखा किया जाना भी एक कारण है। हरित क्रांति से खेती रासायनिक खादों , कीटनाशकों , संकर बीजों पर निर्भर हो गयी। इससे शुरू में तो पैदावार बढ़ी पर बाद में संकट पैदा होने लगा। संकर बीजों में कीड़ों के प्रति प्रतिरोध कम था तो कीटनाशी रसायनों का उपयोग शुरू हो गया। धीर धीर उनका उपयोग बड़ता गया और अनाज जहरीले होते गये। यही नहीं खेतों में उनके उपयोग के बाद उस क्षेत्र की हवा में घुला जहर भी किसानों को अपने भीतर लेने के लिये मजबूर होना पड़ा। ये कीटनाशी जहां फसल के कीड़ों को मारलते हैं वहीं मिट्टी में व्याप्त बैक्टीरिया को भी मार देते हैं तथा रह सही कसर खाद के नाम पर नाईट्रजिन और अमोनिया पूरी कर देते हें। मिट्टी के पोषक तत्व खत्म हो जते हैं और उसमें जहर ही जहर बच जाता है। यही नहीं दिनोंदिन धरती का गिरता जल स्तर एक् तरफ ऊसर बनाता है दूसरी तरफ सिंचाई महंगी करता जाता है। बांधों को कृषि के लिये वरदान कह कर बनाया गया और वे बाड़ों का कारण बनकर अभिशाप साबित हो रहे हैं। धीरे धीरे सूखा और बाढ़ की समस्याएं आने लगीं जो जलवायु परिवर्तन के कारण और घातक होने लगीं। सरकार ने निम्नतम समर्थन मूल्य की नीति अपनायी इससे तो मजदूरी नहीं निकल पाती है। सरकार मनरेगा जैसी योजनाएं बनाती हैं और लगातार उसमें कटौती करती जाती है। बाढ़ या सूखे से होने वाली क्षति का मुआवजा नहीं मिलता लेकिन कर्ज मिलता है और उसपर व्याज भी लिया जाता है। बड़े उद्योगपतियों से कर्ज वसूली नहीं होती पर अलगू का खेत या बैल बधहार नीलाम हो जाते हैं। कर्जदार उद्योगपति का बेटा बड़े उद्योग लगाता है औकिर्जदार किसान का बेटा हल-हंसुआ छोड़ कर शहरों में मजदूरी के लिये धक्के खाता है।

हरियाली पहने हुये खेत देखते राह

मुझे शहर ले गये पेट पकड़ कर बांह

भारत में आधी से ज्यादा आबादी खेती पर निर्भर है, चाहे वह निर्भरता परोक्ष हो प्रत्यक्ष। ऐसे किसानों के दुख को नजरअंदाज करना कठिन होगा। सरकारें अरसे से किसानों की पीड़ा का बीज बो रहीं हैं। अगर यह बंद नहीं हुआ तो परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहाना होगा। 

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