नोटबंदी का नाटक
"मित्रों! कल रात से देश में चलने वाले सभी 1000 और 500 के नोट रद्दी के टुकड़े में बदल जाएंगे और आतंकियों को सीमा पार से मिलने वाली मदद समाप्त हो जाएगी और आतंकवाद ध्वस्त हो जाएगा।" इसी घोषणा के साथ देश की अर्थव्यवस्था मैं हाय हाय मच गई। ए टी एम के सामने लगी सर्पीली कतारों से लाशें निकलने लगीं और सरकार सफलता के नए-नए आंकड़े गढ़ने लगी। "जगत" रो रहा था और "भगत" कीर्तन गा रहे थे। बुझते चूल्हे और पेट की सुलगती आग को तरह तरह की कहानियां सुनाई जा रही थीं। नोटबंदी की असफलता से गुस्साई जनता रिजर्व बैंक पर अपना गुस्सा उतार रही थी । रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को इस लिए हटा दिया गया क्यों वे नोटबंदी की आलोचना कर रहे थे। उन्होंने साफ -साफ कहा था कि यह बिना सोचे समझे निर्णय लिया गया है। नए गवर्नर उर्जित पटेल आए और उन्होंने बैंकों में वापस आए 1000 और 500 के नोटों को गिनकर जनता को बताया कि जितने नोट चलन में थे उनके 99.3 प्रतिशत वापस आ गए। रिजर्व बैंक के अनुसार 8 नवंबर 2016 से पहले 500 और ₹1000 के लगभग 15.41 लाख करोड़ रुपए मूल्य के नोट चलन में थे जिनमें 15.31 लाख करोड़ के नोट वापस आ गए हैं। रिजर्व बैंक ने यह भी बताया है बाजार में नोटों का चलन पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 37.7 प्रतिशत बढ़ा है । 31 मार्च 2018 बाजार में 18.03 लाख करोड़ रुपए के नोट मौजूद थे वहीं पिछले वर्ष इसी अवधि में बाजार में 13.10 लाख करोड़ के नोट थे। एक तरह से नोटबंदी की सारी कसरत बेकार है और यह भी साबित हो गया कि मोदी सरकार ने जो महत्वकांक्षा पाली थी वह भी गलत थी।
काले धन का खौफ दिखाकर सत्ता में आने वाली सरकार कितनी गलत थी यह नोटबंदी के फेल होने से पता चलता है। इससे साफ जाहिर होता है कि देश में इन नोटों की शक्ल में कोई काला धन नहीं था या अगर था तो सरकार उसे निकाल नहीं पाई। कुछ लोग यह कहते हैं कि यह काले धन को निकालने की कोशिश नहीं थी बल्कि नेताओं के काले धन को सफेद करने की साजिश थी । इसकी मिसाल गुजरात के उस सहकारी बैंक से दी जा सकती है जिसके डायरेक्टर खुद अमित शाह हैं । उस बैंक में नोटबंदी के दौरान बहुत बड़ी संख्या में नोटों की अदला बदली हुई और मजे की बात यह है कि इसकी जांच भी नहीं करवाई गई । ऐसा क्यों हुआ ?
फिलहाल जो रिपोर्ट आई है उसके आधार पर इस तर्क को बल मिलता है कि सरकार यह कहती चल रही है कि बैंकों ने उसे सहयोग नहीं किया या उनकी व्यवस्था फेल हो गई यह बहाना या दोषारोपण सही नहीं है । नोटबंदी के दौरान सोशल मीडिया में "भगत पार्टी" जितना कुछ कह रही थी वह शायद भूल गए होगी , लेकिन सरकार को जनता के समक्ष यह सफाई देनी पड़ेगी कि उसने ऐसा कदम क्यों उठाया ? कितनी सोचनीय बात है कि सरकार ने नोटबंदी के असफल होने के बारे में अभी तक कुछ नहीं कहा है, कोई स्वीकारोक्ति उसकी तरफ से नहीं आई है। आम जनता को जो भी जानकारी मिली है वह रिजर्व बैंक की रिपोर्ट के जरिए मिली है। जनता देख रही है कि ना आतंकवाद की कमर टूटी है और ना डिजिटल लेनदेन बहुत ज्यादा बढ़ा है।
रिजर्व बैंक ने एक चौंकाने वाली जानकारी भी दी है कि 2017- 18 मई 5. 22 लाख मूल्य के नकली नोट पकड़े गए हैं। इनमें ₹500 के 1.16 लाख और 1000 के 1.3 लाख नोट भी शामिल हैं। इस दौरान 100 और ₹50 के नोट भी नकली पाये जा रहे हैं। हालांकि, यह पुरानी बात है कि ये नकली नोट विकास को धीमा कर सकते हैं या अनौपचारिक क्षेत्र को हानि पहुंचा सकते हैं। सबसे ज्यादा रोजगार निर्माण के क्षेत्र में हैं खासकर जो अकुशल मज़दूरों के लिए। यह क्षेत्र बुरी तरह प्रसभवित हुआ है और बहुत बड़ी संख्या में लोग बेरोजगार हो गए हैं।इनका क्या होगा?
इससे कई स्थितियों बिल्कुल स्पष्ट हो रही है । पहली कि, यह उम्मीद ही गलत थी कि बड़ी संख्या में ब्लैक मनी है जो बैंकों में वापस नहीं आएगी फिर खोज खोजकर काला धन निकाला जाएगा। ऐसा लगता है कि इसका मुख्य कारण ही गलत बताया गया। योजना थी कि काले धन के रूप में जो राशि मिलेगी यानी जो काला धन आएगा उसे केंद्र को सौंप दिया जाएगा । यह तो हुआ ही नहीं । दूसरा कि सरकार अघोषित धन को बैंकों से बदलने वालों को पकड़ नहीं सकी।
रिजर्व बैंक की इस घोषणा के बाद भी मोदी सरकार नए-नए तर्क दे रही है। वित्त मंत्री अरुण जेटली कह रहे हैं कि नोटबंदी का उद्देश्य अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाना था। उनका कहना है इसके बाद से आयकर दाताओं की संख्या बढ़ी है। लेकिन अर्थव्यवस्था की मंदी के बारे में उनका कुछ कहना नहीं है । सरकार के जुमले से जिस अर्थव्यवस्था से 107 करोड़ रुपए बाहर निकल गए उसका क्या हाल होगा इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । कांग्रेस ने मोदीजी पर निशाना साधा है और पूछा है कि क्या इस तरह के विध्वंसक कदम के लिए सरकार देश से माफी मांगेगी? कांग्रेस के प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने मोदी जी पर झूठ बोलने का स्पष्ट आरोप लगाया है और कहा है कि 2017 को स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने कहा था कि तीन लाख करोड़ रुपए वापस आ रहे हैं क्या इस झूठ के लिए वे माफी मांगेंगे।
बेशक नोटबंदी से थोड़ा फायदा हुआ है। जैसे कैशलेस लेन-देन का चलन बढ़ा है। करेंसी के रूप में बचत भी बढ़ी है ,जो बताती है किन लोगों में अभी भी नोटों के प्रति लगाव है । वैसे कैशलेस लेन-देन भी एक साजिश ही थी। सरकार ने देखा कि नोटबंदी फेल कर रही है तो उसने इसे कैशलेस लेनदेन के प्रोत्साहन से जोड़ दिया। कैशलेस लेनदेन कितना सफल हुआ है यह बात रिजर्व बैंक ने पहले ही बताई है। रिजर्व बैंक ने बताया था कि नोटबंदी के दौरान जितने मूल्य के नोट बंद किए गए थे उससे ज्यादा मूल्य के नोट जारी किए गए हैं।
सरकार को नोटबंदी के कारण उत्पन्न समस्याओं को समाप्त करने की दिशा में सोचना चाहिए। जैसे ₹1000 के नोट के बदले ₹2000 के नोट का चलन शुरु करने से कठिनाइयां बढ़ीं हैं। सरकार ने इन्हें कम करने की कोशिश तो की है लेकिन अभी बहुत बाकी है। अर्थव्यवस्था पर आघात अक्सर बहुत लाभ नहीं पहुंचाते हैं । नोटबंदी के नकारात्मक पक्ष पर प्रकाश पड़ने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके अन्य सिपहसालार इस पर बात नहीं कर रहे हैं। वरना, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में नोटबंदी को एक मुद्दा बनाया गया था और 56 इंच सीना फैलाकर मोदी जी कहते थे कि जिन लोगों ने लाइनों में कष्ट उठाया है उन्हें बहुत लाभ मिलेगा और दूसरी बात जो कहते थे कई राजनीतिक पार्टियां रातोरात कंगाल हो गयीं। दोनों बातें गलत साबित हुईं। गरीब खुद को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है। यहीं नहीं इससे राष्ट्रीय वित्त व्यवस्था को भी आघात लगा है । 500 और ₹2000 के नए नोटों की छपाई में 7,965 करोड़ रुपए खर्च हुए जो अब तक की सबसे बड़ी राशि है। इस खर्च से क्या मिला समझ में नहीं आ रहा है और बड़े मूल्य के नोटों को काले धन के रूप में जमा करना भी आसान हो गया है।
Friday, August 31, 2018
नोटबंदी का नाटक
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Thursday, August 30, 2018
भारत पाक संबंध और द्विपक्षीय वार्ता
भारत पाक संबंध और द्विपक्षीय वार्ता
हमारे देश के जो लोग पाकिस्तान से बातचीत के लिए दबाव दे रहे हैं वही लोग इस मामले में भारत की सोच में दोष भी ढूंढ रहे हैं । आम जनता को उनकी गलत दलीलों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। एक कहावत है कि हम दोस्त अपनी मर्जी के मुताबिक ढूंढ सकते हैं पड़ोसी नहीं। चूंकि पाकिस्तान को हम भौगोलिक रूप से अपने पड़ोस से अलग नहीं कर सकते तो इसके साथ बातचीत करनी ही होगी। भारत में दोष खोजने के लिए जो दलीलें पेश की जाती हैं वह सही होतीं बशर्ते पड़ोसी एक पड़ोसी की तरह पेश आता। वह तो लगातार शांति भंग करने में लगा हुआ है। वह भारत के एक हिस्से में जमा हुआ है और आगे बढ़ने की कोशिश में लगा है। इसके लिए वह हिंसा का भी सहारा ले रहा है। ऐसी स्थिति में क्या एक पड़ोसी के साथ सभ्य व्यवहार और सभ्य तरीके से बातचीत करनी होगी ? इस उम्मीद में कि वह हिंसा त्याग देगा, अपना आचरण बदल लेगा और जो भारत का जो हिस्सा जबरदस्ती दखल कर चुका है उसे छोड़ देगा । शायद नहीं अंत में एक ही राह बचती है वह है हम खुद की हिफाज़त करें । वैसे शांति से रहना उसके हित में है। तरह- तरह समस्या पैदा करने वाले पड़ोसी के साथ क्या किया जाए ,क्या बातचीत की जाए? दशकों का तजुर्बा यह बताता है कि इस दिशा में सकारात्मक विचार बेकार साबित होते हैं। वस्तुतः वह इसे हमारी कमजोरी समझता है। इसलिए हमें इससे सबक लेनी चाहिए और शांति के खोखले मंत्र नहीं जपने चाहिए।
इस बात पर बल देना कि हमारे पास वार्ता के सिवा और कोई विकल्प नहीं है यह पाकिस्तान की दबावमूलक रणनीति का शिकार होने के बराबर है और यह मानना है कि सिर झुका कर रहना ही व्यवहारिक है। इस वास्तविकता से अलग कि पाकिस्तान ने शिमला समझौते पर कुछ नहीं कहा है और न किया है। वह राष्ट्र संघ प्रस्ताव के अनुरूप आत्म निर्णय की बात करता है । शिमला समझौते में कई जगह इस बात का उल्लेख है कि दोनों पक्ष शांतिपूर्ण ढंग से अपने मतभेदों को सुलझा लें तथा जम्मू कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर किसी तरह के बल का प्रयोग ना करें। परंतु कारगिल, हमारी संसद पर हमला ,उड़ी, पठानकोट हमले जैसी अन्य कई घटनाओं में पाकिस्तान की पूरी भूमिका थी। वह नियंत्रण रेखा के उस पार से घुसकर कश्मीर में आतंकवाद फैलाता है। शिमला समझौते में सिफारिश की गयी थी कि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमाओं में बदल दिया जाना चाहिए, लेकिन यह पाकिस्तान को कभी मंजूर नहीं हुआ । अब जब से चीन पाकिस्तान में आर्थिक गलियारे के रूप में संबंध बना है तो वह हमारी सुरक्षा को खुली चुनौती दे रहा है। चीन भी कश्मीर में कब्जे को वैध बता रहा है। हमारे देश में कुछ लोग हैं जो वार्ता के पक्ष में तो हैं लेकिन भारत की खुली आलोचना करते हैं कि भारत खुद को बड़ा समझता है और पाकिस्तान को बराबरी का दर्जा नहीं देता। उसकी संप्रभुता का सम्मान नहीं करता । लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भारत पाकिस्तान की संप्रभुता का कहीं अनादर नहीं करता और ना ही उसके आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करता है । भारत सदा उसकी संप्रभुता को अपने बराबर समझता है और उसे बराबरी का दर्जा देता है। 1947 - 48 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला किया था तो भारत ने राष्ट्र संघ में फरियाद की थी। यह सबूत है कि भारत उसको बराबरी का दर्जा देता है। 1971 में पाकिस्तान की भयानक पराजय के बाद भी शिमला समझौते में पाकिस्तान को बराबर का दर्जा दिया गया और उसके बाद दोनों देशों के बीच जो भी घोषणाएं हुई उनमें भी उसे पूरा सम्मान दिया गया । एक और उदाहरण है कि आतंकियों के खून खराबे के बावजूद भारत सिंधु जल समझौते के प्रावधानों को पूरी तरह सम्मान देता है। दूसरी तरफ पाकिस्तान यह कहते चलता है एक मुस्लिम सैनिक 10 हिंदुओं के बराबर है। यही नहीं कुछ साल पहले उसने भारत की गरीबी का भी मजाक उड़ाया था और कहा था सब बनिए हैं । पाकिस्तान की समस्या यह नहीं है कि हम उसे बराबरी का दर्जा देते हैं या नहीं बल्कि उसकी समस्या है कैसे भारत के बराबर हुआ जाए। अगर भारत के पास एक परमाणु बम है तो उसके पास भी होना चाहिए । भारत के पास अगर कोई हथियार है तो उसके पास भी होना चाहिए। भारत न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में तब तक शामिल ना हो सके जब तक वह इसमें शामिल नहीं हो जाता। राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का वह इसी मानसिकता के कारण विरोध करता है। वह जानता है कि दक्षिण एशिया में शांति और सुरक्षा के लिए दोनों देशो में संतुलन जरूरी है और भारत कभी पहल नही करेगा।भारत ने जम्मू और कश्मीर का बड़ा हिस्सा 1947 - 48 में पाकिस्तान को दे दिया। 1966 में भारत हाजी पीर दर्रे को वापस कर दिया। अतीत में वार्ता में आतंकवाद को शामिल नहीं किया गया ।
जो लोग भारत पाकिस्तान वार्ता के मामले में भारत में दोष ढूंढ रहे हैं उन्हें यह स्पष्ट करना पड़ेगा कि वे समस्या के समाधान के लिए और क्या देना चाहते हैं?
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Wednesday, August 29, 2018
बेहतर है सच स्वीकार करें राहुल
बेहतर है सच स्वीकार करें राहुल
लंदन में राहुल गांधी ने 1984 के सिख विरोधी दंगे के बारे में जो कुछ कहा वह कांग्रेस द्वारा सच पर पर्दा डालने की कोशिश थी । राहुल गांधी को यह उम्मीद नहीं थी इस बयान के बाद इतने सवाल खड़े हो जाएंगे इतनी तीखी प्रतिक्रिया आएगी। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कि सिख विरोधी दंगा जो दिल्ली, कानपुर और कई अन्य जगहों पर हुआ वह भारतीय समाज पर हुए अतीत में आघातों से थोड़ा हल्का था। हमारे समाज ने इसके पहले भी अपने ऊपर कई और बड़े प्रहार झेले हैं। जरनैल सिंह भिंडरावाला द्वारा पंजाब में किया गया खून खराबा इसका उदाहरण है। इन घटनाओं को लोग भूल गए। इसमें जितना खून बहा था और जितनी बर्बादी हुई थी उससे कम खून सिख विरोधी दंगे में बहा ।1975 में गुरु तेग बहादुर की शहादत मनाने के लिए बहुत बड़ा जलसा हुआ। उसमें इंदिरा गांधी भी शामिल हुई थीं और दमदमी टकसाल के तत्कालीन नेता भी । इसके बाद ही जरनैल सिंह भिंडरांवाले और खालिस्तान आंदोलन प्रकाश में आया। कांग्रेस ने 1978 के शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के चुनाव में भिंडरावाला के उम्मीदवारों का समर्थन किया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति और उस काल में कांग्रेस के नेता ज्ञानी जैल सिंह ने दल खालसा नाम के उस अलगाववादी संगठन की आरंभिक बैठकों को धन भी दिया था। अप्रैल 1980 में निरंकारी नेता बाबा गुरबचन सिंह को दिल्ली में गोली मार दी गई थी।
इस सिलसिले में पहली झड़प अमृत धारियों और निरंकारियों के बीच 1978 में हुई थी जिसमें हिंदू और सिख दोनों मारे गए थे। कुलदीप नैयर ने अपनी जीवनी में लिखा है कि संजय गांधी और जैल सिंह ने भिंडरावाला को बढ़ावा देने की नीति अपनाई थी ताकि अकालियों पर लगाम लगाई जा सके। इसके बाद पंजाब में भयानक खून खराबा आरंभ हो गया । कुलदीप नैयर के अनुमान के अनुसार 1970 के बाद पंजाब में 1993 के मध्य तक लगभग 20 हजार लोग मारे गए । पंजाब में निर्णायक युद्ध "ऑपरेशन ब्लू स्टार" के माध्यम से लड़ा गया। बताया जाता है कि ज्ञानी जैल सिंह ने कथित रूप से इस ऑपरेशन की सूचना जरनैल सिंह भिंडरावाला को दे दी थी। इसके बाद भी ऑपरेशन हुआ और भारी संख्या में लोग मारे गए । स्वर्ण मंदिर के भीतर से भिंडरावाला सहित 42 लोगों के शव मिले। लाइब्रेरी जल गई थी। भारतीय सेना के 321 जवान शहीद हो गए थे। 6 महीने के बाद इंदिरा जी को उनके दो सिख अंग रक्षकों ने गोली मार दी। इसके बाद दंगा शुरू हो गया। बताया जाता है की कांग्रेस कार्यालय में नारे लग रहे थे "खून का बदला खून" से लेंगे। हालांकि, बाद में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने नारे लगाने वालों की निंदा की । कई क्षेत्रों में निर्दोष सिख मारे गए और उन्हें लूट लिया गया। कई लोग बताते हैं इस दंगे को भड़काया था कांग्रेस नेता एच के एल भगत ने । लेकिन कभी उससे पूछताछ नहीं हुई, क्योंकि वे कथित रूप से मानसिक व्याधि से पीड़ित थे। जब दंगा भड़का था तो पुलिस अधिकारी , फायर ब्रिगेड के लोग और अन्य सरकारी कर्मचारी तथा कांग्रेस के कार्यकर्ता किनारे हो गए थे । निर्दोष सिखों को काटा जा रहा था। सिख विरोधी दंगा कहे जाने से पंजाब में मारे गए 20 हजार लोगों का प्रश्न गुम हो जाता है। इस दौरान कई सिख नेता खालिस्तानियों के हाथों मारे गए । इनमें संत हरचंद सिंह लोंगोवाल ,सीपीआई के विधायक अर्जुन सिंह मस्ताना ,जाट सिख नेता दर्शन सिंह कनाडियन इत्यादि शामिल थे । कभी इस हकीकत की जांच नहीं हुई। मामला अदालत में गया ही नहीं । कांग्रेस को अतीत पर पर्दा डालने से बेहतर है कि वह सच्चाई को स्वीकार करते हुए खेद जाहिर करे।
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Tuesday, August 28, 2018
सड़कों पर शोर और धर्म का राजधर्म
सड़कों पर शोर और धर्म का राजधर्म
सावन बीत गया और इसी के साथ खत्म हो गया कांवरियों का आतंक उनकी कथाएं और उनकी चर्चा। हर साल कांवरिए जल लेकर कर निकलते हैं। किसी न किसी मंदिर में भगवान शिव पर अर्पित करने के लिए। लेकिन ऐसा आतंक कभी नहीं था ना उनकी कभी ऐसी चर्चा थी। इस साल उन का उत्पात इतना ज्यादा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट तक को संज्ञान लेना पड़ा। कांवरियों के पथ में जगह जगह शिविर लगाए जाते हैं और आम लोग उधर से डरे सहमे से निकलते हैं क्योंकि अगर कांवरियों से कहीं टकराव हो गया तो समस्या हो जाएगी। इस बात की इतनी चर्चा कभी नहीं थी । लोग साल के एक महीने को मामूली दिक्कत मानकर बर्दाश्त कर लेते थे। लेकिन इस साल हिंदुत्व का जैसा सर्वव्यापी माहौल बनाया गया है उसी के साथ उसका विरोध भी बढ़ता गया है। उत्तर प्रदेश में तो बड़े पुलिस अफसरों और मुख्यमंत्री ने खुद हेलीकॉप्टर से फूल बरसाकर इस विरोध को और भी प्रज्वलित कर दिया। क्योंकि कांवरियों के उत्पात को हिंदुत्व की परियोजना के रूप में देखा गया । जरा सोचें क्या आप की बगल से कुछ ट्रक गुजर रहे हों जिस पर तेज आवाज में बंबईया फिल्म के धुन बजती हो और कुछ लोग उस धुन पर नाच रहे हों तो क्या आपके मन में भगवान शिव के प्रति श्रद्धा होगी या उस स्थिति को देखकर खौफ? शोर के नशे में कांवरिए सम्मोहन की अवस्था में लगते हैं। व्यापक शोर किसी भी भीड़ के लिए नशे की मानिंद होता है। सड़क पर बेखौफ नाचते कांवरियों से अगर कोई वाहन छू गया तो क्या होगा इसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। बंगाल में तो इस दौरान कोई अप्रिय घटना नहीं घटी लेकिन दिल्ली, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में कई वाहन और घर - दुकान इन शिव भक्तों के प्रकोप का शिकार हुए । पूजा पंडालों में और सड़क पर चलते हुए भक्तों की भीड़ में बजते हुए डीजे को जिन्होंने भोगा है वह अच्छी तरह जानते हैं कि इसका भक्ति ,अध्यात्म और संगीत की कोमल भावनाओं से कोई रिश्ता नहीं है।
इन कांवर यात्राओं का एक अर्थशास्त्र भी विकसित हो चुका है । चंदे से धन जमा कर रास्ते भर में तंबू और भंडारों की व्यवस्था होती है। यह व्यवस्था कहीं भी किसी भी सड़क पर खड़ी कर दी जाती है, और इसके लिए सरकारी अफसरों से अनुमति भी नहीं ली जाती है। बेरोजगारी से जूझते अनिश्चित भविष्य वाले नौजवानों को इन यात्राओं में ज्यादा दिलचस्पी होती है। क्योंकि, कुछ समय के लिए ही सही उन्हें अपनी निरुद्देश्य भटकती जिंदगी एक राह पर दिखती है । यही कारण है कि दिनों दिन कांवर यात्रा में भीड़ बढ़ती जा रही है साथ में उत्पात भी। पहले ऐसा नहीं था। कांवरियों की तादाद कम थी और उनके स्वागत - आवभगत के लिए इस तरह की तैयारियां भी नहीं थी । यह एक धार्मिक आयोजन का हिस्सा था, हिंदुत्व का हिस्सा नहीं । धीरे धीरे इस में मिलावट होती गई और उग्र हिंदुत्व बढ़ता गया । इन के तेवर गोरक्षकों से कम नहीं हैं। ऐसा भी हो सकता है इनमें बहुत से लोग ऐसे भी शामिल हों जो गोरक्षक भी हों। खबरों पर अगर विश्वास करें तो आक्रामक नौजवानों की भीड़ देश में बढ़ती जा रही है और वह अनौपचारिक रूप से संगठित भी हो रहे हैं । उनमें से कुछ लोग मॉब लिंचिंग में व्यस्त हैं तो कुछ सोशल मीडिया में गाली गलौज करने में ।। किसी की भी पगड़ी उछाल देने में इन्हें देर नहीं लगती। अराजक और उग्र नौजवानों का राजनीति में उपयोग आजादी के बाद इस देश में सबसे पहले संजय गांधी के जमाने में देखा गया । आज फिर ऐसे ही नौजवान दिख रहे हैं। यह लोग समाज से उपेक्षित थे अचानक हिंदुत्व की परियोजना ने इन्हें समाज में इज्जत दिलाई। इतिहास गवाह है कि दिशाहीन नौजवानों का उपयोग हमेशा से एकाधिकारवादी नेता गैर संवैधानिक ताकत के लिए करते रहे हैं। बहुत से ऐसे काम होते हैं जो सरकार या पार्टी के अनुशासन में नहीं किए जा सकते। यह सारे काम ये नौजवान ही करते हैं और इनकी वफादारी अपने नेता के प्रति होती है। वक्त जरूरत वह नेता इन नौजवानों को अपनी निजी सेना की तरह उपयोग भी कर सकता है। जिन्होंने इतिहास पढ़ा होगा वे चीन के माओ की " द ग्रेट लीप फॉरवर्ड" नीति के बारे में जानते होंगे । 50 के दशक में इस नीति ने चीन की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया था और जब देंग जियाओ पिंग ने माओ को किनारा करना शुरू किया तो माओ ने सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर ऐसे नौजवानों की भीड़ को सक्रिय कर दिया। इन नौजवानों ने पार्टी और सरकार के समस्त ढांचे को तबाह ओ बर्बाद कर दिया। इस ताकत का एहसास उन नौजवानों में किसी नशे से कम नहीं था । संजय गांधी के जमाने में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। युवा कांग्रेस के कार्यकर्ता किसी की भी टोपी उछाल देते थे। आज हिंदुत्ववादी नौजवान भी कुछ वैसा ही कर रहे हैं। उनसे उदारवादी भाजपा नेता भी सहमते हैं । सुषमा स्वराज का ट्रोल किया जाना और जयंत सिन्हा द्वारा मॉब लिंचिंग के अभियुक्तों को हार पहनाना कुछ इसी तरह की घटना है। धर्म के नाम पर अगर इस तरह का माहौल बनता है तो इससे धर्म का भला नहीं होता। बेशक देखने में ऐसा लगता है कि धार्मिकता का प्रसार हो रहा है। जैसे ही धर्म में से अध्यात्मिकता नैतिकता और दूसरे के दुख से दुखी होने का भाव खत्म हो जाता है तो धर्म सत्ता का व्यापार बन जाता है और ऐसा धर्म लोगों को वास्तविकता से परे कर देता है। माओ के सांस्कृतिक क्रांति के नौजवानों और संजय गांधी के सेकुलर नौजवानों की तुलना में ऐसे दिशाहीन युवकों से बड़ा खतरा है । क्योंकि धर्म एक स्थाई भाव है और इसका उन्माद ज्यादा दिनों तक टिकता है। आगे जाकर यही स्थिति देश के लिए भी बुरी बन सकती है । इन नौजवानों पर क्रोधित होने के बजाय इनसे सहानुभूति पूर्वक बात की जाए। उन्हें समझाया जाए ताकि हमारे समाज के नौजवान धर्म के नाम पर भस्मासुर ना बनें।
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