2019 की सबसे बड़ी चुनौती
देश के इतिहास में एक बहुत मशहूर भाषण का शीर्षक है "ट्राईस्ट विद डेस्टिनी" यानी मुकद्दर से वास्ता। वह रात जिस रात यह भाषण दिया गया था भारतीय इतिहास की अत्यंत परिवर्तनकारी रात थी। उस रात की सुबह भारत ने आजादी का पहला सूरज देखा। ठीक इसी तरह, यह वर्ष भारतीय राजनीति और समाज के इतिहास में संभवत सबसे ज्यादा परिवर्तनकारी वर्ष होने वाला है। इस वर्ष हमारे देश में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। एक जमाने में जब नरेंद्र मोदी भारतीय संसदीय चुनाव में उतरे थे तो वह उनके लिए बहुत ही सरल था। लेकिन इस वर्ष भी चुनाव होने वाले हैं। यह बड़ा ही जोर आजमाइश वाला है। विधानसभा चुनाव में जिस तरह परिणाम आए हैं उससे तो खतरा बढ़ गया लगता है। अगर हम प्रधानमंत्री द्वारा किए गए विभिन्न उदघाटनों को देखें तो पता चलेगा कि मोदी जी 2018 के शुरू से ही चुनाव के मूड में आ गए हैं। मोदी जी ने सुरंगे, पुल, विशाल मूर्तियां, हवाई अड्डे ,कारखाने, अस्पताल, अध- बनी सड़कें, दिल्ली मेट्रो का एक खंड जैसे कई परियोजनाओं का उद्घाटन किया और जहां तक उम्मीद है 2019 का यह महीना चुनावी प्रलोभनों की बरसात का महीना होगा। भाजपा ने 2014 में व्यवस्था विरोध के हथियार का इस्तेमाल किया था और इस समय तक उसने इस हथियार पर लगातार धार दिया है। यहां तक कि पुराने नेताओं के विचारों को स्वीकार करने वालों तक को नहीं बख्शा गया है। कोई अगर महात्मा गांधी की बात करता है तो उसे बंटवारे के लिए जिम्मेदार नेता कह कर गांधी का पिछलग्गू कह दिया जाता है। देश में सारी गड़बड़ियों के लिए जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार बताया जाता है । यह दूसरी बात है कि मोदी जी की जो सबसे बड़ी खूबी है वह है उनके बात करने का ढंग। यह नोट बंदी से लेकर कई अवसरों पर देखा जा चुका है। अब उसमें थोड़ी कमी आ रही है। सरकार क्या करती है यह प्रश्न चारो तरफ पूछा जा रहा है। मोदी जी किसानों को आश्वस्त नहीं कर पाए, सरकार की योजनाएं किसानों को दुख से मुक्त कराने में सफल नहीं हो सकीं। ना ही वे रोजगार के अवसर नौजवानों को मुहैया करा सके जैसा कि उन्होंने 2014 में वादा किया था। अब मोदी जी के सामने जो सबसे बड़ी कठिनाई है वह है कि वे जनता के बीच जाकर क्या कहेंगे? उन्हें एक नई बात निकालनी पड़ेगी ,नई उम्मीदों को जगाने वाले कुछ तथ्य तैयार करने पड़ेंगे ताकि लोग उन पर भरोसा कर सकें। शायद ऐसा होता हुआ नजर नहीं आ रहा है । जनता की राय विभाजित है। वही "आधे भरे गिलास " वाली कहावत का भाव व्याप्त हो रहा है। लोगों के मन में बात आ रही है कि मोदी सरकार नाकामयाब हो गई, भारत को आधुनिक तथा संपन्न राष्ट्र बनाने में असफल हो गई। उल्टे जाति वंश और गोत्र के आधार पर ध्रुवीकरण आरंभ हो गया। बड़ी बड़ी बातें काम का विकल्प बन गयी।
केवल भारत में ही ऐसा है यह बात नहीं है। यह अनिश्चितता वैश्विक फिनोमिना बनती जा रही है। इस वर्ष अमरीका- चीन में व्यापारिक युद्ध में हो सकता है। शांति के लिए 1 मार्च अंतिम तारीख तय की गई है। अब सवाल है कि क्या दोनों इसे पूरा कर पाएंगे। क्योंकि जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान जब चीन और अमरीका के नेता मिले थे तभी यह तारीख तय की गई थी। लेकिन इससे तो ऐसा लगता है कि चीन ने वाणिज्य रियायत के लिए थोड़ा समय ले लिया है। इसके अलावा अमरीका- चीन संबंध सुधार की संभावना नजर नहीं आती। चीन की विकसित होती अर्थव्यवस्था ने अमरीका को यह मानने पर मजबूर कर दिया है कि वह इसका प्रबल प्रतिद्वंदी है। चीन का लक्ष्य प्रथम श्रेणी के देश अमरीका को उसके दर्जे से हटाना है। जहां तक अर्थव्यवस्था की बात है चीन दुनिया का सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश बन जाएगा लेकिन अमरीका आने वाले दिनों में भी सर्वोच्च सैन्य शक्ति वाला राष्ट्र बना रहेगा। अमरीका की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी है। उसे चीन से तीन गुना ज्यादा सुरक्षा में व्यय करना पड़ता है। यही नहीं ट्रंप के राष्ट्रपतित्व में कई और स्थितियों पर से पर्दा हट रहा है। कुछ लोगों का मानना है की ट्रंप मनमानी कर रहे हैं और जिन नीतियों को वह मानते हैं उसे ही आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं । इन सब के बावजूद कुछ ऐसा नहीं दिख रहा है जिसे कहा जा सकता है कि रिपब्लिकन पार्टी ट्रंप से हाथ धोने को तैयार है। बशर्ते पार्टी अपनी प्रवृत्ति ना बदले तो यह तय है कि हम 2019 में लगभग वही देखेंगे जो देखते आए हैं।
एक और महत्वपूर्ण घटना घटने वाली है। इस वर्ष 2019 के मार्च में इंग्लैंड यूरोपियन यूनियन से अलग हो जाएगा। वहां इतना राजनीतिक घालमेल चल रहा है लेकिन अर्थव्यवस्था ठीक-ठाक चलेगी। इंग्लैंड दुनिया की पांचवीं आर्थिक महाशक्ति है और हो सकता है वह इस दशक में जर्मनी को पछाड़कर यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाए। ब्रेक्जिट एक दिशा में ब्रिटिश विकल्पों को बंद कर सकता है लेकिन उसके लिए कई नए अवसर प्रदान कर देगा। खास करके अमरीका और चीन के संदर्भ में। कुल मिलाकर राजनीतिक वातावरण में अजीब सी आशंकाएं उमड़ रही हैं। राजनीतिक थकान सी दिख रही है चारों तरफ।
भाजपा ने देश के भगवाकरण की कोशिश की और नतीजा यह हुआ की इसके खिलाफ कई राजनीतिक दल खड़े हो गए। लेकिन जो लोग धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की बात करते हैं वह भी गलत हैं। अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति नाकामयाब होती दिख रही है और उसी के फलस्वरूप प्रतियोगिता पूर्ण हिंदुत्व को बढ़ावा मिल रहा है। नरेंद्र मोदी ने भाजपा ने नया स्वरूप गढ़ने का प्रयास किया और इस कोशिश में पार्टी के मूलभूत सिद्धांतों को चुनौती दे दी। कांग्रेस की तरह हाईकमान की तानाशाही इस कैडर आधारित पार्टी पर नहीं चलती है। नतीजा यह हुआ कि पार्टी और संघ में तनाव हो गया। आज जो ताजा राजनीतिक स्थिति है उसमें भारत मोदी और राहुल के बगैर भी चल सकता है। भारत को इस समय नई दृष्टि की आवश्यकता है लेकिन वह विकल्प कहीं दिख नहीं रहा है। 2019 में भारत की यही सबसे बड़ी चुनौती होगी।
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