अभी भी पिंजरे का पंछी ही है सीबीआई
देश का शासन हिल गया है। संविधान के नए संशोधन से लोकतांत्रिक ढांचा बदल गया। जिस तरह संसद के दोनों सदनों में कुछ ही घंटों की बहस के बाद संविधान में इतना महत्वपूर्ण संशोधन कर दिया गया उससे लगता है कि संविधान संसद में खिलौना बन गया है। इस की रोशनी में अगर देखें तो सीबीआई का झंझट बहुत ज्यादा शर्मसार कर रहा है। 1946 के बाद से देश की सर्वोच्च जांच संस्था सीबीआई बदनामी का सबब बन गई है। सीबीआई के नाम सुनते ही अच्छे अच्छों को पसीना आ जाता था। लोग आज इस पर खिल खिला रहे हैं। कानून यह कहता है कि हर संस्थान की साख और उसके अधिकार की सीमा बरकरार रहनी चाहिए। संस्थाओं की चाहे वह छोटी हो या बड़ी संसद से लेकर निम्नतम स्तर की ,कह सकते हैं , पंचायत स्तर की, किसी भी संस्था में नैतिकता ही संविधान की नैतिकता है और उसके साख ही संविधान की साख है। अगर ऐसा नहीं होता है तो वह संस्था और उसके अधिकार सरकार के पिंजरे का पंछी बनकर रह जाता है। सुप्रीम कोर्ट के किसी जज ने सीबीआई के बारे में सही कहा था कि यह पिंजरे का तोता है।
23 अक्टूबर 2018 की भयानक रात के बाद आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक के पद से हटा दिया गया और नागेश्वर राव को अंतरिम अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। वर्मा के खिलाफ एक शिकायत केंद्रीय सतर्कता आयोग को सरकार ने 31 अगस्त को ही भेज दी थी। अब सवाल उठता है कि अगस्त से अक्टूबर तक का इंतजार क्यों हुआ? इस बीच एजेंसी के विशेष निर्देशक राकेश अस्थाना के खिलाफ भी आपराधिक मामला था कथित रूप से वह भी चालू कर दिया गया। अस्थाना के खिलाफ जो लोग जांच कर रहे थे उनका तबादला कर दिया गया। यह सब देख कर क्या लगता है कि सरकार निष्पक्ष थी? इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने वर्मा को पुनः पदस्थापित कर दिया। वे 31 जनवरी को रिटायर करने वाले थे। लेकिन अदालत ने भी जो प्रतिबंध लगाया उसे ऐसा लगता है कि उसे भी वर्मा पर पूरा भरोसा नहीं था। अदालत ने दो बंदिशें लागू कर दी थीं। पहला, वर्मा को यद्यपि निदेशक के पद पर फिर से बहाल कर दिया गया है लेकिन वह कोई बड़ा नीतिगत फैसला नहीं कर सकते, और दूसरा , विशेष नियुक्ति समिति 7 दिन के भीतर वर्मा के बारे में फैसला करेगी। विशेष नियुक्ति समिति( एस ए सी) में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के नामजद न्यायाधीश होते हैं। इसे निलंबन और स्थानांतरण का अधिकार है। वर्मा के खिलाफ जो आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया था वह बंद लिफाफे में था। ऐसे मामलों में सामान्य आदेश दो ही तरह के होते हैं या तो मामले को दरकिनार कर दिया जाता है या फिर उसे अधिकारियों पर छोड़ दिया जाता है। इस मामले में एक दिन में कमेटी बन गई । इसमें प्रधानमंत्री खुद थे ,विपक्ष की ओर से मलिकार्जुन खड़गे थे और सुप्रीम कोर्ट की तरफ से न्यायमूर्ति ए .के. सिकरी थे । वर्मा को अग्निशमन, होमगार्ड्स और सिविल डिफेंस का महानिदेशक बनाकर भेजा जा रहा था। क्योंकि स्थानांतरण सदा अधिकारियों के हाथ में होता है। उसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। लेकिन उसके लिए भी कारण बताना होता है। यह कानूनी समाधान कौन मुहैया कराएगा? इसमें कोई शक नहीं है कि यह स्थानांतरण एक तरह से पद से बर्खास्त किया जाना ही है। अब सवाल उठता है कि क्या वर्मा की बात सुनी जानी चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी के लिए सात दिन का वक्त दिया था लेकिन जल्दी बाजी में निर्णय का कोई आदेश नहीं दिया था। इतनी जल्दी बाजी क्या थी ? वर्मा की मुश्कें पहले ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा कसी जा चुकी थी। यकीनन, वर्मा ने अंतरिम निदेशक द्वारा किए गए तबादलों को रद्द कर दिया। इससे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को क्या समस्या थी? यहां विशेष नियुक्ति समिति (एस ए सी) की कार्रवाई बहुत ज्यादा साफ-सुथरी नहीं लग रही है। 2018 में वर्मा के खिलाफ जो सीवीसी की जांच थी उसके लिए पूर्व न्यायाधीश ए के पटनायक को सुप्रीम कोर्ट ने नियुक्त किया था। पटनायक ने कथित रूप से कहा कि विशेष नियुक्ति समिति कि ( एस ए सी) कार्रवाई बहुत जल्दबाजी में हुई है। पटनायक ने कहा कि "वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के सबूत नहीं थे, अच्छा होता कि कोर्ट ने उस बंद लिफाफे को खोला होता और उस आधार पर मामला शुरू होता।"
इन वास्तविकताओं के पश्चात वर्मा ने इस्तीफा दे दिया। वे इस बात से क्षुब्ध थे कि उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। वर्मा को होमगार्ड्स में भेजा जाना एक तरह उनका अपमान था। नागेश्वर राव को उनकी जगह फिर से तत्काल बुला लिया गया। इस बीच दिल्ली हाईकोर्ट ने विशेष निदेशक अस्थाना के मामले को रद्द करने से इंकार कर दिया। अब हो सकता है कि जांच का उन्हें लाभ मिले क्योंकि जो लोग भी जांच करेंगे वह पूरी तरह स्वतंत्र नहीं होंगे। अब यह देखिए कि गलती क्या हुई? 2018 के अक्टूबर में वर्मा को रातों-रात हटाया जाना एक षड्यंत्र था । सुप्रीम कोर्ट ने सही कहा था कि यह कानून में गलत नजीर होगी । उन्हें फिर से पद पर बहाल करने के बाद भी उनके अधिकारों को छीन लेना और विशेष नियुक्ति समिति (एस ए सी) की पेशकश करना दोनों बिल्कुल सही नहीं है। एस ए सी ने जिन प्रक्रियाओं को अपनाया वह कानूनी रूप में अत्यंत चतुर कदम था लेकिन जल्दबाजी भरा था। अदालत में इसको लेकर बहुत गुस्सा दिखा और कमेटी में उतनी ही जल्दबाजी दिखी। वास्तविक अराजकता तो मोदी सरकार ने शुरू की। वर्मा को निदेशक पद पर नियुक्त करने के बाद अस्थाना को विशेष निदेशक बनाने की क्या जरूरत थी? दोनों लगभग एक ही स्तर के पद हैं। यहां स्पष्ट रूप से निहित राजनीतिक स्वार्थ दिख रहा है। सरकार के इस कदम से तो यही लगता है कि सीबीआई अभी भी सरकारी पिंजरे का पंछी ही है। वह मुक्त गगन में आजाद नहीं उड़ सकता है।
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