पिछले दरवाजे से नोटबंदी
सरकार ने 2000 के नोट छापने बंद कर दिए हैं और अब इसे धीरे धीरे चलन से बाहर किया जा रहा है। नोट छापने बंद किए जाने का मतलब यह नहीं कि नोट बंद कर दिए गए। पुराने नोट चलते रहेंगे लेकिन अब नए नहीं आएंगे। सरकार ने कहा है कि बड़े मूल्य के इन नोटों का उपयोग काला धन इकट्ठा करने और नोट जमा करने तथा काले धन को सफेद करने के लिए किया जा रहा है। हालांकि, भारतीय रिजर्व बैंक ने इस तरह की कोई सूचना खुल्लम-खुल्ला नहीं जारी की है । लेकिन सत्ता के गलियारों में यह खबर चल रही है। नोटबंदी के बाद 2000 के नोट चालू किए गए थे ।नोटबंदी के दौरान हजार रुपये के नोट और ₹500 के नोट बंद कर दिए गए थे। नोटबंदी भी काले धन को खत्म करने के लिए की गई थी। उस समय नगदी की भयानक किल्लत हुई थी और इसके बाद सरकार ने ₹2000 के नोट जारी किए । नोटबंदी के बाद मार्च 2018 में 18.03 लाख करोड़ रुपयों के नोट जारी किए गए थे जिनमें 37% 2000 के नोट थे और 43% 500 के नोट थे। बाकी कम मूल्य के नोट थे। मोदी सरकार ने जब ₹1000 के बदले ₹2000 के नोट जारी किए थे तो उनकी तीखी आलोचना की गई थी कि उन्होंने इतने बड़े मूल्य के नोट जारी किए हैं, इससे काले धन को और बढ़ावा मिलेगा और नोट बंदी का उद्देश्य धरा का धरा रह जाएगा। यह भय लगता है सच हो गया । क्योंकि पिछले अप्रैल में देश के कई शहरों में बड़े नोटों की भारी कमी हो गई थी। सरकार को संदेह है कि चुनाव के पहले लोग रुपए जमा कर रहे हैं। यही नहीं नीरव मोदी के घोटाले के बाद लोग डर गए हैं। आयकर विभाग ने भी इस अवधि में बहुत बड़ी संख्या में 2000 के नोट ज़ब्त करने की सूचना दी थी। 2000 के नोट जारी करने के सरकार के फैसले की आलोचना करने वालों में कई बैंकर और अर्थशास्त्री भी शामिल थे। 2000 के नोट को चलन से बाहर करने की प्रक्रिया तो बहुत पहले से शुरू हो गई थी। रिजर्व बैंक की 2018 की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया है की 2017 - 18 में 7.8 करोड़ नोट जारी गए थे और इसके बाद 2018 में इसकी संख्या बढ़कर 336.3 करोड़ हो गई थी। 2016- 17 में 2000 के 328.5 करोड़ के नोट थे मार्च 2018 से 2000 के नोटों का चलन धीरे धीरे कम होने लगा। उल्टे ₹500 के नोट ज्यादा छपने लगे। 2017 -18 मई 588.2 करोड़ ₹500 के नोट थे।
जब नोटबंदी की गई थी तब भी दुनिया के सभी अर्थशास्त्रियों ने इसे बिल्कुल नाकाम बताया था। पिछले 2 वर्षों में नोट बंदी का असर अभी भी हमारे समाज और बाजार पर कायम है। एक तरफ जहां इससे विकास को आघात लगा वहीं जनता को भी भारी तकलीफ हुई। समाजशास्त्रियों के अनुसार गरीब तबकों में आतंक और चिंता जैसी मनोवैज्ञानिक व्याधियां भी पैदा होती देखी गईं।
यहां यहां प्रश्न उठता है कि जब काला धन बंद करने की गरज से नोट बंदी की गई थी और 2000 के नए नोट छापे गए थे तो उस समय यह नहीं सोचा जा सका कि इस कदम से फिर से काले धन को बढ़ावा मिलेगा। यही नहीं इससे अर्थव्यवस्था पर भी एक नया बोझ पड़ेगा। इससे सरकार की अदूरदर्शिता स्पष्ट झलकती है। विगत 8 दिसंबर को वित्त राज्य मंत्री पी राधाकृष्णन ने लोकसभा में एक लिखित जवाब में कहा था कि ₹500 के नोट छापने में 4968. 84 करोड़ रुपए खर्च हुए थे और 1695.7 करोड़ ₹500 के नोट छापे गए थे। जबकि 2000 के 365.4 करोड़ नोट छापे गए हैं और इनमें 1293.6 करोड़ रुपए खर्च हुए । यानी जिन नोटों को बंद करने का फैसला किया गया है उन नोटों को छापने में देश का 1293.6 करोड रुपया खर्च हो चुका है। यह रुपए यूं ही बर्बाद हो हो जाएंगे । इस राशि में एक आईआईटी ,एक आई आई एम तथा एक इसरो जैसी संस्था स्थापित हो सकती थी। इस राशि से 20हजार एकड़ जमीन की सिंचाई हो सकती थी और लगभग 200 छोटे बांधों की मरम्मत हो सकती थी। इतनी बड़ी रकम यूं ही रद्दी की टोकरी में चली जाएगी। जनता को सोचना यह है कि हमारा देश इस विलासिता को स्वीकार कर सकता है।
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