राहुल गांधी से बहस के लिए क्यों नहीं तैयार हुए मोदी जी
पिछले हफ्ते कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राफेल सौदे पर खुली बहस की चुनौती दी । इसके पहले उन्होंने यह भी सुझाव दिया था कि वह एक विस्तृत संयुक्त बहस के लिए भी तैयार हैं। मोदी जी ने यह चुनौती स्वीकार नहीं की। एक टेलीविजन चैनल में इस विषय पर एक बहस का आयोजन किया और भाजपा के प्रवक्ता से पूछा गया कि मोदी जी आखिर क्यों नहीं तैयार हैं? उसका कोई जवाब नहीं था। पाठकों को याद होगा कि 2013 में मोदी जी तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसी तरह बहस की चुनौती दिया करते थे। अपनी भाषण कला से अत्यंत आश्वस्त नरेंद्र मोदी को यह विश्वास था कि वे मनमोहन सिंह को उखाड़ देंगे। 2014 में ऐसे तमाम मत मिले थे जिनको यकीन था कि मोदी जी का यह विश्वास बिल्कुल सही है। अचानक चुनाव प्रचार के दौरान यह एक अत्यंत आदर्श प्रचार का तरीका बन गया। हमारे देश के चुनाव में किसी भी प्रार्थी की योग्यता और साख इस बात पर निर्भर होती है कि टेलीविजन के मतदान में किसे कितना प्वाइंट मिला है । अंग्रेजी बोलने वाला शहरी मध्यवर्गीय समुदाय इस तरीके को आदर्श मानने लगा है और उन्हें भरोसा हो गया था कि मोदी - सिंह का जो शो होगा उससे मोदी जी को बहुत ज्यादा टीआरपी मिलेगी । बहस के मामले में एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर मिनटों में धराशाई हो जाएंगे । यह शो कुछ ऐसा ही होगा जैसा डब्लू डब्लू ई की कुश्ती का शो होता है। धीमे-धीमे बोलने वाले मनमोहन सिंह के सामने माइक पर गरजने वाले मोदी को खड़ा कर दिया जाता तो यह तय था कि मतदाताओं की पसंद मोदी होते। बहस नहीं हुई । परंतु मोदी जी के चुनाव अभियान का बंदोबस्त करने वालों ने टीवी पर दोनों के भाषणों से टुकड़े इस तरह दिखाने शुरू कर दिए जैसे बहस हो रही हो। इसमें मनमोहन सिंह का भाषण 15 अगस्त 2013 को लाल किले की प्राचीर से किया गया संबोधन था। टीवी के कुछ एंकरों ने निष्कर्ष भी दे दिए कि मनमोहन सिंह बड़े अजीब लग रहे थे और अटक अटक कर बोल रहे थे। इससे मोदी बहादुर और बेहतरीन भाषण करने वाले एक ऐसे नेता के रूप में उभर कर आए जो सामने वाले को मिनटों में मटिया मेट कर दे। देश के मध्य वर्ग के मन में यह बात बैठ गई कि मोदी शेर हैं और सिंह मेमना । कॉरपोरेट सेक्टर के एक्सक्यूटिव के मन में यह बात बैठ गयी कि मोदी अत्यंत साहसी सीईओ हैं जो देश को अमरीका की ऊंचाई तक ले जायेंगे तथा सुरक्षा परिषद में गरजेंगे और भारत की छवि सुपर पावर की हो जाएगी। पिछले वर्ष तक यह विचार कायम रहा। 2014- 15 में अगर एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर फिल्म रिलीज हो गई होती तो हमारे देश के भोले भाले मध्य वर्ग को और प्रभावित कर दिया होता लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है । मध्यवर्ग उनकी छवि का खोखला पन महसूस करने लग गया है। वाजपेई - आडवाणी काल में भी बाजपेई जी को मुखौटा कहा जाता था और आडवाणी जी को चेहरा । अब मोदी जी के जमाने में यह बदल कर आदमी हो गया और उनकी छवि उनका होलोग्राम हो गई है। दोनों इस डिजिटल भारत में लेजर से चमकते हैं । यह खोखलापन खुद मोदी जी को और उनके चुनाव प्रबंधकों को महसूस होने लगा है और यही कारण है उन्होंने राहुल गांधी की चुनौती नहीं स्वीकार की । मीडिया ने तो राहुल गांधी की छवि पप्पू की तरह बना दी थी। उनको इस तरह वर्णित किया गया था मानो एक जोकर हैं। अचानक जोकर ने पलट कर हमला किया और लोगों को बचने का अवकाश नहीं मिला ।
अमरीकी राष्ट्रपति स्टाइल की बहस हमेशा से भद्दी होती रही है। यहां तक कि अमरीका में भी इसे नहीं पसंद करते हैं लेकिन यह मतदाताओं की धारणाओं को कहीं न कहीं स्पर्श करती है । अतएव जब राहुल गांधी ने मोदी जी को चुनौती दी तो जो अमरीकी सोच वाला वर्ग भारत में था और जो एन आर आई थे वह सब चुप हो गए और सोचने लगे अगर मोदी जवाब नहीं दे पाए तो क्या होगा ? क्या मोदी जी की टीआरपी गिर जाएगी ? यदि राहुल गांधी की रेटिंग बढ़ जाती है तो इसका मतलब होगा चुनाव के पहले ही चुनाव हार जाना। इसलिए अच्छा होगा कि मोदी जी को बढ़ावा देने वाले को इंटरव्यू दे दिया जाए। जिसने मोदी जी का इंटरव्यू किया उसने राहुल का क्यों नहीं किया या मनमोहन सिंह का क्यों नहीं किया ? अचानक उसे सभी निजी चैनलों ने ऊंची कीमत देकर दिखाया क्यों नहीं? कोई स्वतंत्र एजेंसी को यह इंटरव्यू क्यों नहीं दिया गया । अमरीका के राष्ट्रपति स्टाइल की बहस व्यर्थ होती है । मोदी पर आरोप लग सकते थे कि वह अमरिकी राष्ट्रपति की तरह शासन चला रहे हैं। लेकिन वे राहुल से बहस के लिए तैयार नहीं हुए।
अब महत्वपूर्ण प्रश्न है 2019 में क्या होगा? क्या मोदी दोबारा बहुमत पाएंगे? हो सकता है उनका वोट प्रतिशत घट जाए। अगर बहुमत नहीं पाते हैं तो क्या चुनाव के पहले या बाद में विपक्ष एकजुट हो पाएगा? क्या मोदी जी को बहुदलीय सरकार बनाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा और क्या वह सरकार चला पाएंगे? भाजपा और संघ के छोटे कार्यकर्ता मोदीजी से ऊब चुके हैं लेकिन क्या वे सचमुच मोदीजी के विरुद्ध वोट डाल सकेंगे? यह कुछ सवाल हैं जिसका कोई जवाब नहीं देता नाही इस पर कोई जनमत संग्रह होता है। सही चुनाव यह प्रदर्शित करेगा कि राजनीति की दुनिया में हमारे नेता कहां हैं। इसके बाद मीडिया और राजनीतिक पंडित यह बताने लगेंगे कि वह किस तरह सही हुए या चुपचाप चुनाव के परिणाम का विश्लेषण करते पाए जाएंगे और इसके बाद धरती का सबसे बड़ा राजनीतिक शो खत्म हो जाएगा।
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