यह कौन सी हवा चल पड़ी है हमारे मुल्क में
पिछले कुछ महीनों से एक अजीब सा वैचारिक जुर्म हमारे देश में होते देखा जा रहा है। सोशल मीडिया पर किसी खबर को बताने के लिए ऐसे - ऐसे शब्दों का प्रयोग ,ऐसे-ऐसे मुहावरों का प्रयोग चल रहा है और बातों को बताने के ऐसे-ऐसे तरीके जिन्हें सुनकर हैरत होती है। कुछ चुनिंदा शब्दों का इस्तेमाल तो सामान्य है ,जैसे कांग्रेसी दलाल या भाजपाई भक्त इत्यादि। इन संज्ञाओं का चयन कुछ ऐसा है कि जिसे हमारे देश की वाक परंपरा अनुमति नहीं देती । ऐसी टिप्पणियां जिनकी कोई गहन आलोचना नहीं करता । उन तर्कों की अयोग्यता की ओर कोई इशारा नहीं होता और ना ही उनकी काट पेश की जाती है । सारी प्रक्रिया है एक ऐसे जंग की तरह है जिसमे विपक्षी को पूरी तरह कुचल डालने की जिद्द दिखाई पड़ती है। जॉर्ज ऑरवेल का बड़ा मशहूर उपन्यास है- '1984'। इस उपन्यास में सत्ता की कहानी है। इसका नायक एक ऐसा तानाशाह है जो हर चीज को अपने कब्जे में रखना चाहता है, चाहे वह अतीत की समझ हो या आज की हकीकत। उसके खिलाफ सोचना भी गलत है। कुछ ऐसा लगता है कि आज अज्ञानता ही शक्ति है और आजादी किसी चीज की नहीं है। एक तरह की जंग की शुरुआत हो चुकी है। पूरा देश दो खेमे में बंट गया है। एक नारे लगाता है "मोदी दोबारा आएंगे" दूसरा शोर मचाता है "मोदी को रोकना होगा।" दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन क्या यह सच है? ऑरवेल के उपन्यास की रोशनी में देखें । जो लोग मोदी को रोकना चाहते हैं या मोदी विरोधी हैं उनके बारे में खुद मोदी जी या उनके नेता क्या कहते हैं? उनका कहना है जिन लोगों को हमने लूटने से रोका और उन पर शिकंजा कसा वे सब के सब एक हो गए हैं। मोदी को वापस लाने वाले लोगों के प्रति वे धन्यवाद देते हैं। मोदी को रोकने वाले मुहिम में ऐसे-ऐसे लोग जुड़े हैं जो कभी एनडीए के साथ भी रहे हैं, जैसे शरद यादव चंद्रबाबू नायडू। इस मुहिम में वे पार्टियां भी शामिल हैं जो कभी भाजपा के साथ रही हैं। अब जो लोग मोदी को लाना चाहते हैं वह इन दिनों पार्टी के वफादार ना होकर मोदी से वफादारी की होड़ में लगे हैं। वे भाजपा का झंडा लिए लड़ पड़ते हैं। भाजपा का होर्डिंग लगाने के लिए दूसरों से भिड़ जाते हैं । लेकिन उनके शरीर पर जो टी-शर्ट होती है उस पर "मोदी अगेन" लिखा रहता है। उनकी आत्मा यह मंजूर नहीं करती कि वह दूसरा टी शर्ट पहनें, जिसमें लिखा हो "बीजेपी अगेन।" अब प्रश्न उठता है कि क्या यह टीशर्ट आडवाणी जी को पहनाया जायेगा या मुरली मनोहर जोशी जी को पहनाया जाएगा या इसी किस्म के नारे में छपी हुई साड़ी सुषमा जी और स्मृति जी पहनेंगीं। यही नहीं आर एस एस का कोई बड़ा नेता क्या ऐसा कोई लिबास पहनेगा। शायद नहीं। यह मुहिम जो लोग चला रहे हैं उनके साथ भी सभी लोग नहीं हैं। यह स्थिति जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास के बिग ब्रदर की तरह है जहां उसी की बात चलेगी वही सर्वोच्च है। दूसरे अगर उसके विरोध में सोचते हैं तो गलत हैं।
मोदी को लाने और रोकने के इस अभियान पर जरा गौर करना जरूरी है। क्योंकि मोदी को लाने के अभियान में सिर्फ नरेंद्र मोदी केंद्र में हैं लेकिन इसका मतलब सिर्फ नरेंद्र मोदी नहीं बल्कि पूरी बीजेपी है। लेकिन सिर्फ मोदी का ही नाम क्यों आ रहा है? अगर चुनाव के बाद हालात बदलते हैं और कोई दूसरा नेता मोदी जी की जगह पार्टी से पेश किया जाता है तो क्या उसे स्वीकार नहीं किया जाएगा? यह मुहिम बताती है कि बिग ब्रदर की तरह मोदी जी के अलावा कोई नहीं है। वह विवशता बनते जा रहे हैं। लोकतांत्रिक देश में इस तरह व्यक्ति केंद्रित विवशता क्यों ? क्या यह तानाशाही की ओर बढ़ता कदम नहीं है? याद करें 1975 में इसी तरह एक तानाशाह का उदय हुआ था उसका क्या हश्र हुआ? यह तो ठीक उसी तरह हो गया जैसे क्रिकेट के मैदान में कोई बड़ा खिलाड़ी है किसी बड़ी कंपनी का शर्ट पहन लेता है। इस पर हर क्रिकेट प्रेमी का दिल कचोटता है। इश्तेहार बनते खिलाड़ियों का धीरे-धीरे इतना अवमूल्यन हो गया कि अब खुलेआम उनकी बिक्री होती है। क्या आगे चलकर हमारे राजनीतिज्ञों यही हश्र होगा? क्योंकि मनोविज्ञान धीरे धीरे उसी तरफ इशारा कर रहा है। जिस तरह क्रिकेट में पैसे लेकर खेलने वाले खिलाड़ियों को देश से जोड़ दिया जाता है और उनकी हार और जीत पर लोग दुखी हो जाते हैं या खुशी से उछल पड़ते हैं क्या हमारी राजनीति में इस तरह के अवसर नहीं दिखाई पड़े रहे हैं?
इसलिए दोनों स्थितियां चाहे मोदी विरोधी हो या मोदी समर्थक दोनों भाजपा विरोधी हैं। यह दोनों हालात विपरीत होते हुए भी एक दूसरे के मददगार हैं। यह बीजेपी को हानि पहुंचा सकते हैं। इन सब के बावजूद जो सबसे बड़ी बात है वह कि यह जो हवा हमारे मुल्क में चल चुकी है वह हमारी वैचारिक ता को हमारी सियासी समझ को कहां ले जाएगी क्या धीरे-धीरे हमारे विचार हमारे समय हमारी समझ कुंद हो जाएगी और एक राष्ट्र के रूप में हम एक नेता के पिछलग्गू हो जाएंगे।
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