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Tuesday, January 29, 2019

कोशिशें गांधी को इनकार करने की

कोशिशें गांधी को इनकार करने की

विख्यात इतिहासकार डॉ. बी बी मिश्र ने अपनी पुस्तक पोलिटिकल पार्टीज इन इंडिया में गांधी जी की हत्या का जिक्र करते हुए मैल्कम डार्लिंग की डायरी का हवाला देते  हुए लिखा है कि गांधी जी की शहादत ने भारत को बचा लिया। मैल्कम भारतीय सिविल सेवा के अफसर थे, रिटायर जिंदगी गुजार रहे थे । मैल्कम ने 31 जनवरी 1948 को लिखा कि " कल गांधी की हत्या हो गयी ... अब यह कहना बड़ा कठिन है कि क्या होगा , लेकिन यह कुछ ऐसा ही हुआ है जैसे किसी जहाज की पेंदी में  छेद हो गया हो। फिर से बिखराव अपरिहार्य महसूस होता है, और अब भारत में बचे 4 करोड़ मुसलमानों का क्या होगा ?" मैल्कम बड़े ही संवेदनशील अफसर थे और भारतीय अपेक्षाओं के प्रति उनकी बहुत सहानुभूति थी। बटवारे के वक्त वे पंजाब में तैनात थे और बतवारे के भय ने उन्हें अपने विचारों पर दुबारा सोचने पर मजबूर कर दिया । मैल्कम की तरह कई अन्य पश्चिमी विचारकों ने भी यही सोचा था कि भारत 18 वीं शताब्दी में लौट रहा है जब पूरा देश रजवाड़ों में विभाजित था। सब ने यही सोचा कि भारत में हिंदुओं और मुस्लिमों में भारी खून- खराबा होगा क्योंकि अब शांति का मसीहा नहीं रहा।
      लेकिन , ऐसा नहीं हुआ और गांधी की मौत का जो सबसे पहला लाभ हुआ वह था भारत के दो दिग्गज नेता जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल में सुलह हो गयी। नए भारत में नेहरू प्रधानमंत्री तथा समवर्ती विदेश मंत्री एवं पटेल उप प्रधानमंत्री और समवर्ती गृह मंत्री तथा रजवाड़ों के मंत्री थे। गांधी की मृत्यु के पहले नेहरू और पटेल में बेहद असहमति थी। दोनों एक दूसरे के साथ काम करने  को तैयार नहीं थे और  इस्तीफा देने ही वाले थे। 30 जनवरी को प्रार्थना सभा में जाने के पहले गांधी ने उनसे लंबी वार्ता की। गांधी की हत्या ने इन दोनों नेताओं को अपना मतभेद समाप्त कर देने के लिए बाध्य कर दिया। 
   नेहरू ने पटेल को लिखा, " बापू की मृत्यु के बाद हर चीज बदल गयी और हमें ज्यादा कठिन दुनिया से मुखातिब होना पड़ेगा। अब पुराने विवाद समाप्त हो गए हैं और मुझे लगता है कि जितना हो सके मिलजुल कर काम करना समय की मांग है।" पटेल ने भी जवाब में लिखा कि " हम आपकी बात से सहमत हैं , उनकी मौत ने सबकुछ बदल दिया और अब इस दुखद समय में देश के लिए मिलजुल कर काम करना होगा।" इस बीच नेहरू और पटेल दोनों आकाशवाणी गए और पटेल ने देशवासियों से अपील की कि " बदले की भावना को भूल जाएं और महात्मा जी के बताए गए प्रेम और अहिंसा की राह पर चलें। हमने उनके जीवनकाल में उनकी राह का अनुकरण नहीं किया अब उनकी मृत्यु के बाद तो उस राह पर चलें।" नेहरू ने अपने प्रसारण में कहा कि " हमें साम्प्रदायिकता के उस जहर का मुकाबला करना होगा जीने हमारे वक्त के महा पुरुष को मार डाला।" इस संदेश का भारी असर हुआ। गांधी की हत्या के बाद हिंसा थम गई। हिन्दू डारे हुए थे , मुस्लिमों ने भी हमले बंद  कर दिए। गांधी की मृत्यु के बाद नेताओं को महसूस हुआ कि जल्दी ही एक लोकतांत्रिक संविधान , स्वतंत्र विदेश नीति और आर्थिक नीतियों  की जरूरत है।   अगर पटेल और नेहरू अलग हो जाते आज जो भारत का स्वरूप है वह नहीं रहता।
    अब जरा सोचें कि 1948 से 2018 के बीच कितना बदला हमारे देश में! आज अवांतर सत्य(पोस्ट ट्रुथ) का बोलबाला हो रहा है। लोकतंत्र के मुखौटे में अधिनायकवादी शासन का प्रयास चल रहा है। असहिष्णुता का प्रसार हो रहा है। समय के मोड़ पर हमें यह सोचना जरूरी है कि गांधी कितने प्रासंगिक हैं? कुछ लोग गांधी आज भी भारत के बटवारे का दोषी मानते हैं और उनके दोष को प्रमाणित करने के लिए  तरह-तरह के तर्क दिए जाते हैं। लेकिन, 1934 के बाद के हालातों का अगर समाज वैज्ञानिक अध्ययन करें तो पाएंगे कि बटवारे के लिए देसी मुसलमान जितने दोषी थे कट्टरपंथी हिन्दू भी उतने ही दोषी थे। जितनी मुसलमानों की भावना दोषी थी उतनी हिंदुत्व की तीखी प्रतिक्रिया भी दोषी थी। वह कौन सी धारा थी कि " सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा " लिखने वाले  शायर ने  पाकिस्तान की अवधारणा पेश की। दूसरी तरफ प्रांतीय हिन्दू महासभा द्वारा प्रकाशित स्वातंत्र्य वीर सावरकर (खंड 6, पृष्ठ 296) में लिखा गया कि  1937 में हिन्दू महासभा के खुले अधिवेशन में वीर सावरकर ने अपने अध्यक्षयीय भाषण में कहा -" भारत को अब एकरूप और समशील राष्ट्र नहीं कहा जा सकता है, यहां अब दो राष्ट्र हैं , हिन्दू और मुसलमान।"
कहने का अर्थ है कि गांधी दोषी नहीं थे उन्हें इनकार करने की कोशिशें हो रहीं हैं। गांधी के बारे में बस इतना ही कहना है कि सात दशक से ज्यादा की इस अवधि में भी गांधी खबरों का हिस्सा रहते हैं। बेशक इतिहास उनके साथ अच्छा सलूक नहीं कर रहा है।

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