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Tuesday, January 22, 2019

नेताजी: गाथा एक कर्मवीर की

नेताजी: गाथा एक कर्मवीर की

सुभाष चंद्र बोस के परिवारजनों के साहसी प्रयासों के बाद अंततः यह साबित हो गया कि वे 1949 के बाद भी जीवित थे। लेकिन टेलीविजन चैनलों पर दो एक बार यह बात बताए जाने के बाद सब चुप हो गए। हो सकता है कि जो लोग  इस सच को जनता के सामने नहीं लाना चाहते थे  या नापसंद करते थे । उनके   दबाव के कारण ऐसा हुआ हो। अब तक यह भी पता नहीं चला है कौन किन लोगों ने इसे रुकवाया? क्या इसे सरकार ने रुकवाया या फिर स्थानीय या राज्य सरकार में से किसी ने या फिर किसी कॉरपोरेट विज्ञापनदाता ने या कोई ऐसा फाइनेंसियल पार्टनर दुबई या मॉरीशस से डोर खींच रहा हो। किसने इसे रुकवाया?  इसका प्रसारण सुभाष चंद्र बोस के लापता होने और उनकी मृत्यु की पूरी गाथा से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस हकीकत को दबाने से किसको लाभ है? सन्मार्ग का विश्लेषण है कि वह विमान दुर्घटना में नहीं मरे थे। क्योंकि जब उन्होंने अंडमान को छोड़ा उस दिन किसी भी विमान दुर्घटना की कोई खबर कहीं नहीं है खासतौर पर बर्मा के ऊपर। इसका मतलब है कि उनके जीवित होने की खबर के सामने आने 66 साल के बीच की सभी सरकारों ने जानबूझकर हकीकत को दबाया। जबकि, सुभाष बाबू के परिवार वालों ने यह बार-बार देश को बताया वे जीवित हैं और भारत आना चाहते हैं। सुभाष चंद्र बोस से संबंधित कुछ फाइलें भी सामने आई लेकिन उससे कुछ हुआ नहीं। 
      सन्मार्ग इनकी सच्चाई की तलाश करने वालों और पाठकों के सामने कुछ सवाल रखना चाहता है। मसलन, सुभाष बाबू की पुत्री 72 वर्षीय अनिता बोस बार-बार  भारतीयों से कहा वे उनके जीवन या उनकी मृत्यु से ज्यादा चिंतित अपने से हैं। उन्होंने कहा कि सुभाष बाबू की मौत से ज्यादा उनकी जिंदगी से सीखा जा सकता है। इन प्रश्नों का उत्तर यह बताएगा कि सरकारें क्या कुछ छिपा रही हैं। वे भारत को और उसकी संस्कृति को आजाद कराना चाहते थे। वह तो आज भी गुलाम है। वे इस हकीकत को जानते थे। क्या देश में कोई भी सुभाष चंद्र बोस की जिंदगी के बारे में नहीं जानता है। क्या उस समय के भारत के शासक इस हकीकत को नहीं जानते थे, क्या नेहरू या लौह पुरुष पटेल जानते थे, क्या कथित देशभक्त या राष्ट्रवादी इससे अवगत हैं ? अगर हैं तो उनकी चुप्पी के पीछे क्या कारण है?
चलें मान लेते हैं कि वह 1949 में काल कलवित हो गए थे। फिर भी वे 1945 से 1949 तक कहां रहे ? क्या बर्मा में या ब्रिटिश जेलों में या फिर भारतीय जेलों में? क्या वे भारत में मरे तो उनकी अंत्येष्टि किसने की और अगर भारत के बाहर उनकी मृत्यु हुई तो उन्हें कहां दफनाया गया? क्या ब्रिटिश सरकार या वहां की खुफिया एजेंसियां इस हकीकत को जानती थीं?  द्वितीय विश्व युद्ध के समय समस्त संचार तंत्र ब्रिटिश नियंत्रण में थे। अगर, ब्रिटिश शासन इस सच को जानता था और भारतीय नेताओं को इस ने मिला कर रखा तो क्या 1990 तक सभी नेता और खुफिया एजेंसियां हर आयोग को इस बारे में क्यों गुमराह करती  रहीं ? सुभाष बाबू की 1945 में एक विमान दुर्घटना में मृत्यु हो गई और उन्हें जापान में दफनाया गया। किसने यह सूचना सभी आयोगों को दी? क्यों आयोगों के गठन पर जनता का करोड़ों रुपया बर्बाद हुआ या फिर आयोगों का दिखावा कर हमारे राजनीतिज्ञों सारे रुपए हजम कर लिए। किसने किस को सूचित किया। भारत ने कभी भी उस जापानी डॉक्टर की रिपोर्ट पर विचार नहीं किया, जिसने कहा था कि जो शव सामने है वह सुभाष बाबू का नहीं है। यह खबर भारत के देशभक्तों के बीच क्यों नहीं आई और अगर आई तो उन्होंने इस उलझन को सुलझाने की कोशिश क्यों नहीं की? भारत ने अनिता बोस के उस दावे को क्यों नजरअंदाज कर दिया जिसमें वह बार-बार कहती रहीं कि 1949 तक सुभाष बाबू से बातचीत होती रही है। क्या कारण है इसके पीछे क्यों एक देशभक्त नेता के बारे में हमारे नेताओं ने सूचना छुपाई। अगर नेताजी का स्वर्गवास 1949 में हुआ तो क्यों उनकी बेटी अपने पिता की लाश को ही सही वापस मांगने के लिए बार-बार भारत और जर्मनी की सरकार के दरवाजे खटखटाती रही? क्या यह व्यर्थ बात है या सचमुच कुछ जानती थी।
     अगर यह मान लिया जाए कि बोस ने अंडमान या नागालैंड से उड़ान भरी थी।  वह यकीनन सैनिक विमान होगा। उस समय अंडमान ,नगालैंड और बर्मा के बीच कोई भी विमान भेदी तोप नहीं था।  यह क्षेत्र सुभाष बाबू के नियंत्रण में था। उनका गंतव्य अगर जापान था तो वे अंडमान से जापान के ऊपर उड़ रहे थे । अगर नगालैंड से बर्मा के बाहर जा रहे थे तो वह  चीन के ऊपर से उड़ रहा था। फिर क्या हुआ क्यों उनका विमान बर्मा आ गया? क्या विमान को उड़ा दिया गया था या उसे जबरदस्ती उतारा गया? क्या विमान के मलबे की जांच हुई या होमी भाभा की विमान की तरह  उसकी तरफ से आंख मूंद लिया गया। विमान को उड़ाने या उसे जबरदस्ती  उतारने की क्षमता किसमें थी। 1945 में कोई भी एंटी एयरक्राफ्ट मिसाइल नहीं थी बस विमान भेदी तोप थे जिनकी मार 3000 मीटर तक थी। ब्रिटिश सरकार पास तो आज भी ऐसे बमबाज विमान नहीं हैं जो प्रशांत महासागर और हिंद महासागर को पार कर विमान उड़ा दें। तो क्या 1945 में वे वैसा कर सकते थे? उस समय ब्रिटिश वायु सेना की क्षमता बहुत घट गई थी। उसके पास उस समय महज 3 ऐसे विमान थे जो दूर तक उड़ान भर सकें। सुभाष बाबू मित्सुबिसी विमान से आए थे जो तीस हजार फुट की ऊंचाई तक जाता था और विमान भेदी तोपों की मार से बाहर रहता था। क्या अनुभवी जापानी पायलटों ने सुभाष बाबू के उड़ान पथ की रिपोर्ट नहीं दी। सुभाष बाबू जापान में उतर जाते तो वे गांधी के साथ मिल सकते थे और कांग्रेस का सारा समीकरण उलट देते तथा खुद वास्तविक नेता बन जाते। स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से बातचीत करते।  वस्तुतः गांधी ऐसा नहीं चाहते थे अगर ऐसा हुआ होता तो भारत विभाजित नहीं होता।
      मान लेते हैं कि विमान को बर्मा के ऊपर मार गिराया गया ।  द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बर्मा अंग्रेजों के कब्जे में था तो फिर अंग्रेजों ने अमेरिकियों और जापानियों को क्यों यह समझाया और उनका शव जापान ले जाने दिया । उस समय अमेरिका के कब्जे में  केवल फिलिपिंस हवाई अड्डा था और वहां से वह प्रशांत महासागर और हिंद महासागर के ऊपर का क्षेत्र नियंत्रित करता था। उस समय इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा आजाद देश नहीं थे। जो देश थे वे जापान के साथ थे।  चीन के पास कोई अच्छा हवाई अड्डा भी नहीं था और ना ही बर्मा के पास और ना थाईलैंड के पास, तो अंडमान से जापान जाने के लिए एकमात्र रास्ता था फिलिपिंस होकर। अब सवाल उठता है कि क्या अमेरिकियों ने सुभाष बाबू का जहाज जबरदस्ती उतारा ? क्योंकि वे एक जापानी फौजी विमान में जा रहे थे। अगर ऐसा हुआ भी हो तो उन्हें अच्छी तरह मालूम था सुभाष चंद्र बोस आजाद हिंद फौज (इंडियन नेशनल आर्मी) के कमांडर इन चीफ थे ,और जापान के साथ थे। जिनेवा समझौते के मुताबिक उन्हें युद्ध बंदी का दर्जा दिया जा सकता था। सुभाष बाबू ने भारतीय लोकतंत्र की स्थापना की और उसे कई देशों ने मंजूरी दी।  अमेरिका इसे जानता था। पूरी दुनिया जान गई कि भारत अस्तित्व में आ गया है तो कैसे उसके कमांडर इन चीफ को हिरासत में रखा जा सकता था।  अगर वे जीवित थे तो इस सच को क्यों छुपाया गया? किसके कारण छुपाया गया? अगर जापानी चाहते तो उन्हें बर्मा से ले जा सकते थे। जरूर किसी की राजनीतिक आकांक्षा को सुभाष बाबू से खतरा था और उसने अंग्रेजों से सांठगांठ कर इसे स्थाई रूप से समाप्त कर दिया या फिर अंग्रेज यह सोचते थे कि उनके रिहा होने से भारत के विभाजन और आजादी का नाटक नहीं चलेगा। इसलिए उन्होंने इस सच को छिपाया। चलिए मान लेते हैं  बाद में ही उनकी मृत्यु हुई तो कैसे हुई-  क्या उन्हें मीठा जहर दिया गया या दिल का दौरा पड़ा या फिर उसी तरह से जैसे चर्चील ने गांधी को समाप्त किया।
        माउंटबेटन के दबाब से ब्रिटिश फौज ने अमेरिकियों से सांठगांठ की और उन पर दबाव डाला की बोस के विमान को उतार लिया जाए और जब तक भारत विभाजन ना हो जाए तब तक उन्हें हिरासत में रखा जाय।  इससे भारत के अलावा कई पक्षों के जियोपोलिटिकल हितों को लाभ मिलता है। जब अमेरिकियों ने सुभाष बाबू को हिरासत में रखने से मना कर दिया तो अंग्रेजों ने रूसियों को भरमाया कि सुभाष बाबू कम्युनिस्ट  विरोधी हैं इसलिए उन्हें वे ले जाएं। उन्होंने रूसियों से यह भी वादा किया कि कश्मीर भारत के साथ मिल जाएगा और रूस का भारत से सड़क के रास्ते संपर्क हो जाएगा। इस सौदेबाजी के बाद अंग्रेजों ने ईरानी लड़ाकों को पश्तो जनजाति के छद्म में कश्मीर में घुसा दिया और वहां स्थापित कर दिया  जहां से रूस रास्ता निकालना चाहता था। ब्रिटिश हुकूमत ने  यह सारा दोष नेहरू के मत्थे मढ़ दिया । नतीजा देख कर रूसी हैरान रह गए। उन्होंने इसका बदला आइरिश रिपब्लिकन आर्मी को उच्चस्तरीय विस्फोटक देकर लिया। इन विस्फोटकों से आई आर ए के लड़ाकों ने माउंटबेटन और उसके पूरे परिवार को उड़ा दिया । क्या भारत ऐसा कर सकता है? क्या भारत इस तरह का बदला ले सकता है? अगर बोस को भारत लाया गया होता हमारी सीमा थाईलैंड से लेकर ईरान तक होती। एक सुभाष बाबू को रास्ते से हटाने से इस क्षेत्र में कई देश बन गये जो ब्रिटिश हितों की रक्षा करते हैं।
           सुभाष चंद्र बोस ने इंडियन नेशनल आर्मी या आजाद हिंद फौज की स्थापना की।  जापान ने इसे समर्थन दिया। यह "भारत सरकार" की फौज थी इसका मुख्यालय सिंगापुर में था। जिस दिन आजाद हिंद फौज की स्थापना हुई उसी दिन भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला रखी गई । सुभाष चंद्र बोस इसके सुप्रीम कमांडर थे। अगर भारत इतिहास को संशोधित करना चाहता है तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि  सुभाष चंद्र बोस भारतीय लोकतंत्र के पहले राष्ट्रपति थे। यही कारण था की बोस ने कभी भी निर्वासन में सरकार का गठन नहीं किया बल्कि सीना तान कर सिंगापुर और वर्मा तथा भारत के कई भागों को अपने कब्जे में लिया,  सरकार की स्थापना की नई करेंसी जारी की ।
       यह माउंटबेटन के लिए भयानक पराजय की तरह था।  जब उन्हें भारत का वायसराय बनाया गया एक तरह से उन्होंने सुभाष बाबू पर मनोवैज्ञानिक विजय हासिल की तथा बर्मा को भारत से विभाजित कर दिया। वह भारत का पहला विभाजन था ब्रिटिश चाहते थे कि जब तक उनकी विभाजन की योजना और कश्मीर को काटे जाने का षड्यंत्र पूरा  ना हो जाए तब तक सुभाष बाबू जेल में रहें।  जब सब कुछ हो गया तो सुभाष बाबू को मृत घोषित कर दिया गया और वह गुमनामी की जिंदगी जीते रहे।
सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के संपूर्ण विवरण को खोज पाने में नाकामी यह बताती है कि हम में भारत और भारतीयों के प्रति क्या हो रहा है इसे लेकर कोई भी दिलचस्पी नहीं है। जरा गौर करें , आज तक लगभग 35 सौ भारतीय जिनमें कई राष्ट्रपति थे, प्रधानमंत्री थे, राजा थे, वैज्ञानिक थे, ट्रेड यूनियन के नेता थे ,मुख्यमंत्री थे, केंद्रीय मंत्री थे, खुफिया विभागों के प्रमुख थे और गंभीर तथा वफादार पुलिस ऑफिसर थे सब के सब या तो विमान दुर्घटना में या हृदय गति रुकने से अथवा रहस्यमय आत्महत्या से मारे गए।  इनकी बाद में कोई जांच नहीं हुई । हम सुस्त ही नहीं लापरवाह भी हैं । यह सच है कि ये लोग जो मारे गए इन की औलाद ने भी सच जानने का प्रयास नहीं किया और अगर किया भी तो सरकारों ने साथ नहीं दिया । हमारी जो सबसे बड़ी जांच एजेंसी है उसके पास हेलीकॉप्टर या विमान दुर्घटनाओं की जांच करने की विशेषज्ञता नहीं है और उसे डीजीसीए पर निर्भर होना पड़ता है। भारत में बहुत कम ऐसा हुआ है कि विमान या हेलीकाप्टर दुर्घटनाओं में ब्लैक बॉक्स  की जांच हुई ताकि हम विभिन्न बिंदुओं को मिलाकर सच का संधान कर सकें सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु के कारणों की जांच होती लेकिन राजनीतिक नेताओं ने उसे दबा दिया। जो हमारी देशभक्त सरकार  है क्या वह इस पर विचार करेगी और इस परेशानी से उलझेगी।

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