अनिश्चितता में झूलता भारत का मुकद्दर
इस साल दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। इस चुनाव में 134 करोड़ लोगों का मुकद्दर लगभग 95 करोड़ वोटर तय करेंगे। वे तय करेंगे कि हमारा देश जिस दक्षिणावर्ती दिशा में जा रहा है उधर ही जाएगा या थोड़ा पीछे लौटकर पहले की तरह मध्य मार्ग पर स्थिर हो जाएगा। वैसे विचारधारा कोई बहुत महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन इन दिनों जो भारत के विविधतापूर्ण समाज को हिंदुत्व की रस्सी में बांधने का प्रयास चल रहा है वह प्रयास कहां तक सफल होगा यह भी इस बार चुनाव में तय हो जाएगा। पूरी दुनिया में वैश्विकवाद ,उदारवाद तथा संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ एक लहर उठ रही है। कई देशों में यह लहर कामयाब भी हुई है। इस चुनाव से यह भी तय होगा यह लहर भारत में कहां तक असर पैदा कर रही है। भारतीय राष्ट्रीयता इस बार अपने इतिहास के सबसे बड़े चुनाव में उदारवादी ताकतों और लंपट सियासी ताकतों के बीच के टकराव में संतुलन की तलाश करेगी। यह चुनाव तय करेगा कि हमारे देश में गठबंधन की राजनीति को बढ़ावा मिलेगा या बहुमत की राजनीति को। यही नहीं एक ताकतवर विपक्ष फिर से सामने खड़ा होगा या फिर वही निर्बल विपक्ष रहेगा। देखना यह है कि हमारे नेता प्रचार और जुमलेबाजी से बाज आते हैं या नहीं और हमारी राजनीतिक बहस वास्तविकता के मुद्दों पर टिकती है या नहीं यह इस वर्ष एक बहुत बड़ा सवाल है। नौजवान भारत अपने लिए भविष्य की ओर देख रहा है दूसरी तरफ दकियानूसी जुमलेबाजी है। नेता इस हुनर में बहुत ही माहिर है कि प्रचार के जोर पर सपनों के द्वार पर मतदाताओं को उलझा कर भ्रमित कर दें। यही कारण है कि हमारे नेता भारी प्रचार युद्ध चलाते हैं। 2014 में तो डिजिटल प्रचार का दौर भी आरंभ गया। इस वर्ष यह और भी जोरदार होगा। भ्रामक सूचनाएं और गलत जानकारियों के आधार पर देश की जनता को भरमाने की कोशिश होगी । साथ ही जाति और धर्म के आधार पर विचारों को विभाजित कर ध्रुवीकरण का प्रयास भी होगा। इस वर्ष मतदाताओं को लुभाने के नए-नए फार्मूले सामने आएंगे। गवर्नेंस की चर्चा होगी लेकिन यह एक वहम है जो बहुत जल्दी स्पष्ट नहीं होता । धीरे-धीरे इसका स्वरूप निखरता तब तक देर हो चुकी रहती है।
ताजा दौर में बेरोजगारी सबसे बड़ा मसला है। मतदाता किसी भी सरकार की ओर इसे ही दूर करने की उम्मीद से देख रहे हैं। उन्हें लुभाने के लिए मिथ्या प्रचार का हथकंडा अपनाया जाएगा। पिछले साल मई में लोकनीति सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के सर्वे के अनुसार हमारे देश के उत्तरी भाग के मतदाता नौकरियों को लेकर बेहद चिंतित थे। इस क्षेत्र के लगभग 37% मतदाताओं के लिए यह सबसे बड़ी समस्या है। दक्षिण भारत में इसका असर थोड़ा कम है। यहां 16% ही लोग इसे सबसे बड़ी समस्या मानते हैं। यह बता देना जरूरी है कि 2014 में भाजपा नीत गठबंधन को उत्तर क्षेत्र की 151 में से 131 सीटें मिली थी। इस बार बेरोजगारी की समस्या इन सीटों की बलि ले सकती है। यही नहीं किसानों में भी भारी गुस्सा है । बेरोजगारी को लेकर कई क्षेत्रों में व्यापक आंदोलन हुए। अलग-अलग समुदाय के लोग अलग-अलग आरक्षण की मांग लेकर आंदोलन से जुड़े। क्योंकि आंदोलनकारी कृषि से भी जुड़े थे इसलिए यह आंदोलन कृषि और बेरोजगारी का संबंधित आंदोलन था। कुछ विश्लेषकों का मानना है की बेरोजगारी चुनाव का मसला नहीं बनेगी। आंकड़े बताते हैं कि विगत 4 वर्षों से नौकरी का खोजना एक बहुत बड़ी समस्या है। फिर भी कुछ लोग भाजपा को वोट देने को तैयार हैं। अलबत्ता बड़ी संख्या में लोग यह मानने लगे हैं कि भाजपा समस्याओं को सुलझा नहीं पा रही हैं और बिल्कुल बेकार हो गई है। दिलचस्प बात यह है कि इस सर्वे में पाया गया है कि 15% लोगों का मत है कि कांग्रेस ही इस समस्या को सुलझा सकती है । हालांकि बीजेपी को चाहने वाले अभी भी आगे हैं। 2014 के चुनाव के दौरान भाजपा का सबसे बड़ा मुद्दा देश में महंगाई और भ्रष्टाचार था। इस बार कांग्रेस बेरोजगारी को लेकर तानाबाना बुन रही है। यह कितना असरदार हो सकता है यह तो भविष्य ही बताएगा। देखने वाली बात यह है कि जिन राज्यों में कांग्रेस ने प्रचार किया वहां बेरोजगारी को लेकर लंबे - लंबे वादे किए हैं । जैसे पंजाब में हर परिवार से एक नौजवान को नौकरी का वादा ,बेरोजगारी भत्ता इत्यादि। लेकिन 2014 के बाद संभवत मतदाता सजग हो गया है। हालात ऐसे दिख रहे हैं कि कांग्रेस को अपनी बात पर भरोसा दिलाने के लिए उसे मतदाताओं के समक्ष ठोस योजना लेकर आना होगा ,वरना उसके वायदों का भी कोई असर नहीं होगा । सबसे बड़ी समस्या तब आएगी जब किसी भी पार्टी को बहुमत ना मिले या बहुत कम का अंतर हो। उस समय संसदीय लोकतंत्र का माखौल उड़ता हुआ सा दिखेगा।
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