चुनाव यानी खुली जंग
कहते हैं कि सियासत में एक हफ्ता बहुत होता है लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि हफ्ते के भीतर हफ्ता समाया हुआ है। अगर आप याद करें कि पिछले हफ्ते क्या हुआ तो शायद याद नहीं कर पाएंगे। हफ्ते भर में इतना कुछ हो गया रहता है कि वह याददाश्त की सीमा से बाहर होता है। बड़ी अजीब स्थिति है लगता है बहुत कुछ घटने वाला है, कोई डायनामाइट फटने वाला है। हवा में धुआं और बारूद की गंध घुली हुई सी महसूस हो रही है। ऐसे हालात 2014 में भी नहीं हुए थे। बेशक दांव बहुत ऊंचे हैं ,लेकिन जो हो रहा है उससे भी ज्यादा है। पहली बार ऐसा लग रहा है कि दोनों पक्ष ऐसी तैयारी में है कि "अभी नहीं तो कभी नहीं।" भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चुनाव को पानीपत की तीसरी जंग कहा है। रामलीला मैदान में उन्होंने अपने भाषण में कहा कि 2019 भाजपा के लिए निर्णायक युद्ध होगा। उन्होंने मराठाओं का उदाहरण दिया। उन्होंने कहा कि मराठा 131 युद्ध जीत गए लेकिन पानीपत में हार गए और यही कारण है कि 200 बरस तक उन्हें गुलामी भुगतनी पड़ी। कांग्रेस ने इतना कुछ नहीं कहा है लेकिन उसे मालूम है कि एक और पराजय पूरे खानदान को मैदान से बाहर कर देगी। मायावती की तरह क्षेत्रीय नेता जानते हैं की 2019 उनके लिए बहुत बड़ी बात है। अगर भाजपा बहुमत के साथ चली आती है तो उनकी तरह की कई पार्टियों को अस्तित्व का खतरा पैदा हो जाएगा। मैदान में जमे रहने के लिए जरूरी है कुछ करना होगा और भाजपा को रोकना होगा। यही कारण है कि वह हर चीज दांव पर लगा रहे हैं। यहां तक कि अपने शत्रुओं से भी हाथ मिलाने को तैयार हैं। यह टिके रहने का एक तरीका है।
उधर दूसरी तरफ, हाशिए पर एक और बात या एक और घटना घट रही है। 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बहुत प्रशंसक थे और वे सोशल मीडिया पर बुरी तरह सक्रिय थे। इस बार कांग्रेस ने उसी तरह का तरीका खोज लिया है। कांग्रेस ने भी भाजपा के आईटी सेल की तरह एक सेल बना लिया है। कांग्रेस सदस्य बुद्धिजीवियों पेशेवरों और मीडिया के साथ हाथ मिलाकर चलती रही है और वह इस बार भी नई नई तरह की बातें नए-नए बोल नए-नए नारे लेकर मैदान में आ रही है। इसका ताजा उदाहरण है सीबीआई बनाम सीबीआई का ड्रामा। इससे पढ़े लिखे लोगों के बीच में गंभीर संशय उत्पन्न हो रहा है। यह उनके लिए तो अच्छा है जो पार्टी के आदर्शों और सिद्धांतों पर आस्था रखते हैं लेकिन जो लोग बुद्धिजीवी हैं वह गंभीर चिंता में हैं कि क्या इस तरह के एजेंडा का समर्थन किया जाए। यही नहीं, जनता के बीच भाषण के लिए यह बड़ा बढ़िया मुद्दा है। वह कहते हैं की मोहब्बत और जंग में सब कुछ जायज है लेकिन यहां तो मोहब्बत कहीं दिखाई नहीं दे रही है। दोनों तरफ से मोर्चे बंध गए हैं । लेकिन अभी बहुत कुछ सोचना अच्छा नहीं होगा। क्योंकि ,यह कैसी समस्या है जो केवल भारत में ही नहीं है यह पूरी दुनिया में कायम है। यह अमरीका के चुनाव में भी हुआ था और उसके वायरस भारत में भी आ गये। वैसे भी भारतीय बहुत ज्यादा बातूनी और तर्कपसंद होते हैं। नतीजा यह होता है एक तरफ तो हम तरह-तरह की बातें लोगों से करते हैं और दूसरी तरफ झूठे समाचारों की व्याख्या में लग जाते हैं। यह दोनों हालात मिलकर एक घातक मसाला पैदा करते हैं , बिल्कुल बारूद की तरह । जब देश का चिंतनशील समाज इससे जुड़ जाता है तो यह और खतरनाक हो जाता है। इन दिनों कुछ ऐसा ही दिख रहा है। इसलिए डर है कि दिनों दिन स्थितियां बिगड़ती जायेंगी। गंभीरता से सोचने से एक निराशाजनक तस्वीर उभरती है। कुछ बहुत अशुभ जो हमारे देश में होने वाला है। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि यह लोकतंत्र के नए अवतार का हिस्सा हो। कुछ भी कहना मुश्किल है। अगर काले बादल छाए हों तो उसमें रोशनी की तलाश बहुत कठिन होती है। जब वास्तविकता समझ में नहीं आती और जो सच बोलने के लिए मशहूर हैं वह भी समझौता करते नजर आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में जनता को बोलना पड़ता है। उसे खड़ा होना पड़ेगा जैसा सीबीआई के संबंध में न्यायमूर्ति ए के सीकरी के मामले में हुआ। उनके अवकाश प्राप्त वरिष्ठ साथी न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू नए सच की दरियाफ़्त की और सब कुछ सामने रखा पर जस्टिस सिकरी का इंकार बड़ा चिंतनीय था ।
यह विश्वास करना वास्तविक नहीं होगा कि हम फिर उसी पुराने भिन्नता वादी व्यवस्था में चले जाएंगे। यह तू तू ,मैं मैं और घूमती आवाज रुकेगी। क्योंकि इस पूरी व्यवस्था में एक अजीब सा ठहराव दिख रहा है। लोग राजनीति से ऊब गए से लगते हैं आत्म संशोधन के लिए उन्हें फिर मुख्यधारा में लाना होगा । जब चुनाव खत्म होंगे तो हम सब एक नई व्यवस्था का सूत्रपात करेंगे ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी को सांस लेने के लिए ताजा हवा मिल सके। उनके मन में स्वस्थ विचार पनप सकें वरना हम इतिहास के अपराधी हो जाएंगे।
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