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Sunday, January 27, 2019

लोकतंत्र में अधिकारों की व्याख्या पर भी ध्यान दें 

लोकतंत्र में अधिकारों की व्याख्या पर भी ध्यान दें 

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने गणतंत्र दिवस के अपने भाषण में कहा कि   चुनाव सिर्फ राजनीतिक प्रक्रिया नहीं है, यह हमारे ज्ञान और हमारी क्रिया के लिए है  सामूहिक आह्वान है। यह  हमारे समानअधिकारवादी समाज की उम्मीदों और लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्धता का नवीकरण है। चुनाव  लोकतांत्रिक भारत के लोगों की  सामूहिक इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करता है।  ऐसे में मतदान  एक पवित्र कार्य बन जाता है।  राष्ट्रपति ने आगे कहा,  महात्मा गांधी के सबक हमारे लोकतंत्र के लिए एक कीर्तिमान हैं। महात्मा गांधी ने  वंचित समाज को उनकी स्थिति से मुक्त कराया। राष्ट्रपति ने कहा , किसी दूसरे नागरिक की गरिमा और निजी  भावना का उपहास किये बिना , किसी के नजरिये से या इतिहास की किसी घटना के बारे में हैम असहमत हो सकते है , ऐसे उदारतापूर्ण व्यवहार को ही भाईचारा कहते हैं। उन्होंने कहा , हमारा समाज केवल एक बुनियादी कानून ही नहीं बल्कि सामाजिक बदलाव का दस्तावेज भी है। सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों के जीवन को खुशहाल बनाना ही हमारे लोकतंत्र की सफलता की कसौटी है। गरीबी के अभिशाप को कम से कम समय में जड़ से मिटा देना हमारा पुनीत कर्तव्य है। यह कर्तव्य पूरा करके ही हम संतोष का अनुभव कर सकते हैं।
   थोड़ा पीछे चलते हैं और देखते हैं कि भारत प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पहले भाषण में क्या क्या कहा था। उन्होंने कहा था , " हमारे गणराज्य का उद्देश्य इसके नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता और समता प्राप्त करना तथा इस विशाल देश की सीमाओं में निवास करने वाले लोगों में भ्रातृ भाव बढ़ाना है, जो विभिन्न धर्मों को मानते हैं , अनेक भाषाएं बोलते हैं और अपने विभिन्न रीति रिवाजों का पालन करते हैं। 
राष्ट्रपति कोविंद  का  भाषण अत्यंत सारगर्भित है।  लेकिन हमारी सरकार क्या कर रही है? जब नागरिकों उम्मीदों की बात आती है तो सरकार व्यक्तिगत आजादी को ताकतवर बनाने से चूक  जाती है। इस विडंबना के दो कारण हैं-  एक तो हमारा  लोकतंत्र या कहें  जनता की ताकत और दूसरा सरकार द्वारा ताकत में कटौती के प्रयास। इन दोनों विडंबनाओं को इन दिनों घट रही घटनाओं के आलोक में देखा जा सकता है। नए वर्ष की शुरुआत दो विभिन्न वैधानिक तंत्रों के आरंभ किये जाने से हुई। सरकार जिन विचारों को पसंद नहीं करती उनके शमन के लिए  उन तंत्रों का उपयोग  किया जा रहा है। जे एन यू के एक छात्र पर और एक बुद्धिजीवी पर देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया गया । ये लोग बिना किसी क़ानूनी मदद के जेलों में पड़े हैं। यही नहीं मणिपुर के एक पत्रकार को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत जेल भेज दिया गया। 
      अब यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न है  कि लोकतांत्रिक उद्देश्य  का दमन करने वाली सरकार की ताकतों को स्वीकार करते हुए लोकतांत्रिक उत्साह कैसे अभिव्यक्त कर सकते  हैं? इस बनात पर कोई संदेह नहीं कि भारत मतदान के माध्यम से जनता के दावों और राजनीतिक स्पर्धाओं के मामले में एक जीवंत लोकतंत्र है। लेकिन जीवंतता के बावजूद जब अभिव्यक्ति की आज़ादी के संदर्भ में  कानून के शासन की बात आती है तो हमारा कीर्तिमान बहुत उम्दा नहीं है।  2014 के आसपास लोकनीति द्वारा किये गए एक अध्ययन के अनुसार व्यक्तिगत आज़ादी के मामले लोगों की राय बहुत अच्छी नहीं है। चुनाव की तुलना और अमीर गरीब के बीच के घटते फासले की जब बात हुई तो केवल 18 प्रतिशत लोगों ने राय दी कि अभिव्यक्ति की आज़ादी लोकतंत्र का अनिवार्य हिस्सा है। इसी तरह राजनीतिक तौर पर एकजुट होने के मामले में 17 प्रतिशत लोगों की राय थी कि यह जरूरी है । जब लोकतंत्र की बात आती है तो शासन और कल्याण उस पर भारी पड़ता है। समाज में उदारवादी नियमों को लागू करने में लोगों की अनिक्षा के संदर्भ में सरकार और राजनीतिक नेताओं पर अतिरिक्त भार है। लेकिन हमारे राजनीतिक नेता इस जिम्मेदारी को पूरा करने में असफल हैं।
  राष्ट्रपति के भाषण में गांधी जी के सबक की चर्चा हुई पर इस बात पर कुछ नहीं कहा जा सका कि अधिकारों की गांधी की व्याख्या से सरकारों ने क्या सीखा? यहां  बात केवल वर्तमान सरकार की ही नहीं है बल्कि इस लोकतंत्र की अबतक की सभी सरकारों ने किसी ना किसी तरह से नागरिकों के अधिकारों में कटौती किया है।

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