शायद इस वर्ष बदल जाए दुनिया
इस वर्ष लोकतंत्र की प्रक्रिया दुनिया के 328 करोड़ लोगों को प्रभावित करेगी। इनकी 40% आबादी यानी 134 करोड़ लोग तो केवल भारत में हैं। विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों, विभिन्न विचारों और आस्थाओं के समर्थक इन चुनावों में भाग लेंगे और राजनीतिक परिवर्तन के जरिए उनके जीवन पर प्रभाव पड़ेगा। आज जो जिंदगी है शायद वह कल नहीं रहेगी। उनके जीवन के और जीने के दोनों के रंग- ढंग बदल जाएंगे। अफगानिस्तान से लेकर ऑस्ट्रिया , थाईलैंड और उरुग्वे तक लगभग 62 देशों में इस बार चुनाव होने वाले हैं और इन देशों के मतदाता अपने मुकद्दर को तय करने वाले नेताओं को चुनेंगे। इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर इलेक्ट्रोल सिस्टम के आंकड़ों के अनुसार दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी में नए नेता का चुनाव होगा। इससे कई मसलों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं जैसे विदेशी मामले , सुरक्षा सौदे ,घरेलू गठबंधन और स्थानीय नीति निर्माण। इससे संभवत दुनिया में बहुत बड़ी अनिश्चितता तक आ सकती है।
इन चुनावों से क्या होगा इनके सम्पूर्ण उत्तर तो अगले वर्ष ही मिलेंगे लेकिन इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित भारत होने वाला है। क्योंकि, भारत में इस वर्ष अप्रैल में चुनाव होंगे और यूरोपियन यूनियन मई में यूरोपीय संसद का चुनाव करेगा। यूरोपियन यूनियन का यह चुनाव पश्चिमी दुनिया को एक नई सोच की दिशा प्रदान करेगा साथ ही उस सोच को अमल में लाने के अवसर भी मुहैया कराएगा। यह दोनों चुनाव ऐसे होंगे जिस पर दुनिया में सबसे ज्यादा निगाह होगी और साथ ही 185 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित करेंगे। क्योंकि इन चुनावों से इतनी बड़ी आबादी की की अपेक्षाओं स्वरूप प्राप्त होगा और वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा अंतरराष्ट्रीय संबंध हो के ताने बाने बनेंगे। लेकिन इनके अलावा कई और बड़े चुनाव हैं ,जैसे थाईलैंड ,नाइजीरिया जहां 25.5 करोड़ लोग फरवरी में इंडोनेशिया और अफगानिस्तान की लगभग 30 करोड़ आबादी अप्रैल में फिलिपिंस और दक्षिण अफ्रीका की सवा 16 करोड़ आबादी मई में जापान के सवा करोड़ लोग जुलाई में, कनाडा और अर्जेंटीना की 810 लाख आबादी अक्टूबर में ,पोलैंड और ऑस्ट्रेलिया की 630 लाख जनता नवंबर में और रोमानिया के 190 लाख मतदाता दिसंबर में अपने मताधिकारों का उपयोग करेंगे । वे लोग जो दुनिया की व्यवस्था में परिवर्तन पर नजर रखते हैं उन्हें इन 15 चुनावों पर बहुत नजदीक से नजर रखनी पड़ेगी। फिनलैंड के 550 लाख मतदाता अप्रैल में , स्लोवाकिया के 540 लाख वोटर मई में, नीदरलैंड्स, बेल्जियम और लिथुआनिया के 130 करोड़ 50 लाख मतदाता मई में, लाटविया के 190 लाख जून में, बोलिविया- हैती और ग्रीस के लगभग 33 करोड़ मतदाता अक्टूबर में, क्रोशिया तथा ट्यूनीशिया के 1 करोड़ 57 लाख लोग दिसंबर में वोट डालेंगे। इनमें सबसे कम मतदाता कोकोस द्वीप में है जिसकी आबादी भाजपा से 96 है और उनकी शायर काउंसिल मैं ऑकलैंड और मोनसेरेट तावलू नौरू और जिब्राल्टर में मार्च, जुलाई तथा दिसंबर में चुनाव होंगे । राजनीतिक पार्टियां जनादेश के लिए संघर्ष करेंगी और अपने घोषणा पत्रों की व्याख्या करती चलेंगी इसमें अधिकांश में देश की आर्थिक दशा- दिशा के बारे में चर्चा होगी ,लेकिन उम्मीद है कि आर्थिक उथल-पुथल तथा वैश्विक बाजार में उतार-चढ़ाव कायम रहेगा। हो सकता है यह स्थिति वैश्विक फाटकेबाजों को मुनाफा दिला जाए । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि 2019 के यह 62 निर्वाचन दुनिया के भू राजनीतिक और भू आर्थिक सूचकांकों को प्रभावित करेंगे । इस बार की तरह अतीत में कभी भी परिवर्तनकारी निर्वाचन देखने को नहीं मिले हैं। यह एक तरह से राजनीतिक अर्थव्यवस्था की प्रयोगशाला बनेगी और इससे जो परिणाम प्राप्त होंगे वह उन देशों की सीमाओं से बाहर भी आएंगे। यह वर्ष समाज विज्ञानियों को अपनी नई अवधारणा गढ़ने तथा नई विश्व व्यवस्था के बारे में बताने में मदद करेगा। इन 62 देशों में इस वर्ष पसंद नापसंद की कई सतहें होंगी। दुनिया की नई परिभाषाएं तय होंगी और विश्व सही मायनों में उदारवाद व्यवस्था की ओर बढ़े सकता है। एक ऐसा विश्व तैयार होने की संभावना है जिसे उच्च वर्ग अपहृत नहीं कर सकता और इसमें ज्यादा आर्थिक सामाजिक तथा सांस्कृतिक समावेशन होगा। देखना यह है कि क्या यह चुनाव दुनिया को ज्यादा रूढ़ीवादी और "हम पहले" या "मैं केवल" जैसे भाव से मुक्त कराते हैं या नहीं। यह भी देखना है कि यह मिलजुल कर वैश्विक चुनौतियों का सामना करते हैं या नहीं करते हैं। या, फिर जैसा चल रहा है वैसा ही चलेगा। इन सब के जवाब 2019 के मध्य तक मिलने लगेंगे लेकिन एक सामूहिक तथा ठोस उत्तर इस वर्ष के अंत तक ही प्राप्त हो पाएगा। हो सकता है यह दुनिया बदल जाय।
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