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Tuesday, January 1, 2019

यह हमारे देश में क्या हो रहा है?

यह हमारे देश में क्या हो रहा है?

भारतीय सोचते हैं कि देश में जो हो रहा है उसके बारे में वह सब कुछ जानते हैं।  क्या सच में ऐसा है? हाल में फ्रांसीसी अनुसंधान संस्था इप्सोस के सर्वेक्षण के मुताबिक भारतीय  अपने देश  के बहुत से   तथ्य या तो जानते नहीं हैं या उन्हें इसके प्रति भयानक गलतफहमी  है।  गत 20 दिसंबर को जारी "पेरिल्स आफ परसेप्शन 2018" के सर्वे में पता चला है कि कई तथ्यों के बारे में भारतीय और उनकी समझ भ्रमित है। 37 देशों के इस सर्वेक्षण में भारतीयों का रैंक 12 है।जो एक नंबर में है वह पूरी तरह गलतफहमी में है। भारतीयों का इस तरह ना जानकार होना चिंता का विषय है। खासकर 2019 में होने वाले चुनाव के परिप्रेक्ष्य में यह तो और भी खतरनाक और चिंता का विषय है । अभी हाल में एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक शिक्षिका से यह पूछा गया उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का नाम क्या है तो उसने बताया नरेंद्र मोदी। अब आप सोच सकते हैं कि हमारी आम जनता में राजनीतिक चेतना कितनी है। कोलकाता के एक महिला पत्रकार से बातचीत के दौरान जब जयप्रकाश नारायण का जिक्र आया तो वह उस नाम से अनजान थीं। मिर्जा गालिब को उस महिला पत्रकार ने राजनीतिक नेता बताया। हमारी पढ़ी लिखी आबादी की चेतना का यह आलम है। यहां प्रश्न उठता है कि हमारे नौजवान किस आधार पर वोट देते हैं? क्या वह जानते हैं कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के कार्यालयों को क्या अधिकार हैं। क्या हम अपने देश का भविष्य ऐसे ही सुस्त दिमाग के लोगों द्वारा संचालित होने देंगे? एक शोध के मुताबिक हमारे नौजवान शहरी मतदाता "सूचना की लत " नामक मानसिक बीमारी से ग्रस्त हैं। गूगल और मोबाइल फोन आ जाने के कारण लगभग सभी लोगों को सूचना का अजीर्ण होता जा रहा है। जबकि उनके पास इसके लिए आवश्यक ज्ञान नहीं है। हमारे पास या कहें हमारे नौजवानों के पास इंडोनेशिया में बनी ताजा सड़क की तस्वीर ट्वीट से आती है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भक्तों  द्वारा बताया जाता है कि भारत के दूरदराज के गांव में ढांचागत विकास हो रहा है। जिन्हें "सूचना की लत" की बीमारी है वह इसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। इसमें उनकी भक्ति का भाव भी दिखता है और वह उस सूचना को आगे फॉरवर्ड कर देते हैं।  इसी तरह सोशल मीडिया में यह गलत सूचना घूमने लगती है । कोई यह नहीं जानना चाहता कि वह दूरदराज का गांव कौन सा है?
         नाजानकारी की इस पृष्ठभूमि में हमारे नेताओं के कांईयापन को देखें ? जब पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम अपने परिष्कृत अंदाज में यह बताते हैं कि मौद्रिक घाटा शुरू हो रहा है या मौजूदा एफआरबीएम कानून की गलत व्याख्या की जा सकती है।  तकनीकी शब्दावली में हम मूल बात को समझ नहीं पाते।  हमारे नौजवान मतदाताओं को राजनीतिक रूप से जागरूक होना चाहिए और यह केवल उन्हीं राजनीतिज्ञों द्वारा किया जा सकता है जो सचमुच मतदाताओं से जुड़े हों और ऐसी सूचनाएं उनको दे जो आसानी से समझ में आ जाएं। 2014 में  इस देश में मोदी जी की लहर उठी थी। यह एक तरह से सूचनाओं की धुआंधार बमबारी के कारण उठी थी । सूचनाओं के  वशीभूत नौजवानों ने उसकी जांच जरूरी नहीं समझी और जब गुजरात मॉडल लोकप्रिय हो गया तो लोगों ने यह जानने की जरूरत ही नहीं समझी कि  यह प्रचार का एक तरीका है। लगातार सूचनाओं की बमबारी से विचार शक्ति और निर्णय शक्ति दोनों मंद पड़ने लगती है। नतीजा यह होता है कि जो कहा जा रहा है उसे हम स्वीकार कर लेते हैं। टेलिविजन पर दृश्य और ध्वनि के माध्यम से प्रचार का यही हथकंडा है। जब गुजरात मॉडल की बात चल रही थी तो हमारे नौजवानों ने यह नहीं जानना चाहा क्या सच   है? क्या गुजरात सचमुच क्योटो में बदल गया है या गुजरात किसी दूसरे कानून से शासित है? यह  चालाकी भरा मार्केटिंग का एक तरीका था जिसमें कोई आंकड़े नहीं दिए गए थे। अब सवाल उठता है कि हम हकीकत की इस गैर हाजिरी को कैसे रोकेंगे? हमें नए मतदाताओं कोई बताना होगा कि वह अपने प्रतिनिधियों से प्रश्न पूछें। जब एक प्रतिनिधि या राजनीतिज्ञ नौकरी का वादा करता है तो हम केवल प्रभावित ना हों बल्कि उससे यह पूछें कि कहां मिलेगी नौकरी ? क्या कोई अवसर तैयार हुआ है या फिर सड़क के किनारे पकौड़ा बेचने वाला सुझाव मिलेगा? अगर कोई राजनीतिज्ञ वादा करता है कि दिल्ली में एक नया और विशाल स्कूल खोला जाएगा तो कम से कम उससे यह तो पूछिए कि जन संकुल दिल्ली में इतनी जगह कहां मिलेगी? क्यों नहीं मौजूदा स्कूलों में और क्लास रूम बनाए जा रहे हैं? अगर कोई बड़ी मूर्ति बनाई जाती है तो कम से कम यह पूछना बनता है कि उसके रखरखाव में कितना खर्च लगेगा?  क्या उस खर्चे से विकास का दूसरा काम नहीं किया जा सकता है?
        यहां एक सवाल है कि गलत सूचनाएं फैलाने वाले क्यों कायम हैं? क्योंकि, उन्हें यह भरोसा है कि उनका धोखा और जो भी गलत सूचनाएं वे फैला रहे हैं से उनका कुछ बिगड़ेगा नहीं। अभी हाल में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने एक नकली वीडियो ट्वीट किया, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी मध्यप्रदेश में किसानों को कर्ज माफी के वायदे से मुकर रहे हैं। यह अर्ध सत्य है। इस तरह की सूचनाएं चुनाव के ठीक पहले केवल मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए फैलाई जाती हैं। राजनीति कोई परमाणु विज्ञान नहीं है । जब कोई राजनीतिज्ञ पाखंड पूर्ण बातें करता है तो उसके और मतदाताओं के बीच की वार्ता बहुत जटिल हो जाती है। इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका है कि बुनियादी बात से जुड़े रहें और राजनीतिज्ञों को उनके वायदे के लिए जिम्मेदार ठहराएं।  चाहे वह वायदा रोजगार का हो ,अर्थव्यवस्था का हो भ्रष्टाचार नियंत्रण का हो या सामाजिक सुधार के बारे में हो तभी हमारा लोकतंत्र सच्चे मायनों में अस्तित्व में रहेगा।

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