गरीबों के लिए क्या है हुजूर ?
इन दिनों सोशल मीडिया में मोदी जी के कुछ चित्र और कुछ टेंपलेट्स वायरल हो रहे हैं। उनमें मोदी जी को विश्व नेताओं के साथ दिखाया गया है । ब्रिटेन में एक सम्मेलन में उन्हें अध्यक्षता करते हुए दिखाया गया है। टेंपलेट्स में यह बताया गया है कि मोदी जी ने विजय माल्या को धर दबोचा, पाकिस्तान की कमर तोड़ दी ,चीन का घमंड चकनाचूर कर दिया वगैरह। लेकिन यह कहीं नहीं दिखता है कि भारतीय गरीबों के लिए उन्होंने क्या किया? उनके लिए क्या समाधान है उनके पास? लोगों में राय है कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा आर्थिक मसलों के कारण हार गई । उन आर्थिक मसलों में किसानों का असंतोष और बेरोजगारी महत्वपूर्ण थे । बेशक यह महत्वपूर्ण है । क्योंकि देश के नौजवानों को अगर नौकरी मिल जाए तो खेती पर से दबाव हट जाए और थोड़ी सी राहत सबको मिले हमारे ।देश में नौकरी के दो ही संगठित क्षेत्र हैं। दफ्तर और मिल - कारखाने। मिल -कारखानों में तो नौकरी मिलने से रही । वह धीरे- धीरे बंद हो रहे हैं । जैसे कलकत्ता की जूट मिलें लगभग बंद होने की कगार पर हैं और उन में काम करने वाले सैकड़ों या कहें हजारों मजदूर सड़कों पर आ गए हैं। उनमें से कुछ तो भीख मांग कर काम चला रहे हैं और कुछ अपने गांव लौट गए हैं। इससे खेतों पर दबाव बढ़ गया है। जहां तक ऑफिसों का सवाल है वहां तो अंग्रेजी बोलने वालों का राज है। जो हिंदी बोलता है उसे चपरासी तक की नौकरी नहीं मिलती। अंग्रेजी बोलना इस समय श्रेष्ठता की पहचान है और लोग अंग्रेजी बोल कर चाहे वह 90% गलत ही क्यों न हो अपना वर्चस्व प्रदर्शित करते हैं। रोजगार या नौकरी की तलाश में गांव छोड़कर शहर जाने वाला ही यह महसूस कर सकता है कि वहां जीवन कितना कठिन है। गांव छोड़कर शहर आने वाले लोगों में अधिकतर कम पढ़े लिखे या फिर अनपढ़ होते हैं। उन्हें केवल मजदूरी का काम मिलता है। इसमें भी अच्छी मजदूरी वाला काम जैसे राजमिस्त्री, फिटर, इलेक्ट्रिशियन इत्यादि का काम हुनरमंद या अनुभवी लोग ले जाते हैं। केवल मामूली तनख्वाह पर सीमेंट -बालू ढोने वाले काम ही मिलते हैं या फिर दरबान इत्यादि का काम मिलता है। पेट की आग बुझाने के लिए पुरुष इन कामों को पकड़ लेते हैं और उनके साथ गई महिलाएं घरों में चौका- बर्तन करने लगती हैं। कई पुरुष एक कमरे में रह लेते हैं। बस का भाड़ा नहीं दे पाने या खर्च बचाने की गरज से पैदल काम पर जाते हैं । गांव में उनकी राह देख रहे परिवार को पैसे भेजने के लिए अपने ऊपर कम से कम खर्च करते हैं और कुपोषण का शिकार होकर बीमारियों से ग्रस्त हो जाते हैं । किसी भी पुराने औद्योगिक शहर से अगर आप बाहर की तरफ यात्रा करें तो टीन और एस्बेस्टस की झुग्गियों वाले मकान कतार में दिख जाएंगे और उनमें जीवन जीने वाले लोग हमारे आपके बीच के ही हैं। उनकी जिंदगी इतनी कठोर और दर्दनाक है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। कर्ज लेकर गांव की गिरवी जमीन छुड़ाने और फिर कर्ज लेकर शहर में झुग्गी खरीदने की किस्तों में जिंदगी तमाम हो जाती है । बहुत कम भाग्यशाली लोग होते हैं जो अपना पेट काटकर अपने बच्चों को शिक्षित कर हुनर मंद बनाकर थोड़ा ऊंचा रोजगार हासिल करने लायक बनाते हैं। क्योंकि वे बच्चे किसी एलीट स्कूल में नहीं पढ़े इसलिए अंग्रेजी नहीं बोल सकते और इससे उन में निराशा भरने लगती है। वे अक्सर अपने मालिकों की दया पर निर्भर करते हैं। उन्हें कोई सुरक्षा हासिल नहीं है। सरकार ने जो न्यूनतम वेतन तय किया है वह तो हमेशा सपना ही रहता है। उनका जीवन एक तरह से बदहाल और प्राय छोटा होता है। इसलिए सब सरकारी नौकरियों की ओर देखते हैं। लेकिन सरकारी नौकरियां कहां मिलती हैं। जिसको मिलती है वह खुशकिस्मत है जिसे नहीं मिलती वह अपने को कोसता हुआ निराशा में जीवन जीता रहता है ।
सोचा था उनके देश में महंगी है जिंदगी
पर जिंदगी का भाव वहां और भी खराब है
भारत संविधान के मुताबिक एक कल्याणकारी राज्य है लेकिन इन दिनों सरकार अनुबंध पर काम लेने लगी है। वह अनुबंध पर कर्मचारियों को रख लेती है और वर्षों तक वे कर्मचारी अस्थाई बने रहते है। उन्हें अपने साथ काम करने वाले स्थाई कर्मचारियों को देख कर भारी निराशा होती है यह कड़वी सच्चाई है।
जिंदगानी का कोई मकसद नहीं है
एक भी कद आज आदम कद नहीं है
हमारे लोकतंत्र की यह विडंबना है और नेताओं ने इस मनोविज्ञान को समझ लिया है। वह इस हालात को बदलने का वादा करते हैं उस वादे के चक्कर में फंसकर आदमी उस नेता को वोट देता है । परंतु होता है ऐसा कहां ? अगर कभी मौका मिला भी नौकरियों में आरक्षण है। खास करके जाति के आधार पर या फिर उस आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन होता है। लोग उसमें शामिल होते हैं इस उम्मीद में कुछ तो बदल जाएगा । लेकिन कुछ नहीं होता। कोई पार्टी कर्जे माफ करने की बात करती है और वोट बटोर कर ले जाती है। खेती फायदेमंद रह नहीं गई और जो फसल हुई है उसकी अच्छी कीमत की कोई गारंटी नहीं है। नौजवान नौकरियों के लिए संघर्ष करते रहते हैं यह संघर्ष भीतर और बाहर दोनों तरफ चलता है । यह एक तरह का शहर के भीतर शहर है। शहर के बाहर वाला शहर तो सपनों का संसार है । शहर के भीतर वाले शहर में जाकर हमारे नौजवान क्या कर सकते हैं?
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये कीमत चुकाई है
सामूहिक पहचान जीवन को ज्यादा मानीखेज बनाती है। एक निरर्थक जीवन किसी तरह सार्थक दिखने लगता है और यही कारण है नौजवान राजनीति की दुनिया है दाखिल होते हैं। वे यह नहीं समझ पाते यह राजनीतिज्ञ मवेशियों के उन व्यापारियों की तरह हैं जो मवेशियों की टोह में लगे रहते हैं। क्योंकि इसे धार्मिक मंजूरी मिली हुई है और जिन मवेशियों को पकड़ा है उससे पैसे भी बनते हैं। सुविधा भी पैदा होती है तथा उसे पीटकर मन का भड़ास निकालने का सुकून मिलता है। राजनीति में हमारे नौजवानों के साथ यही होता है। लेकिन उन्हें मिलता क्या है। फकत एक पहचान। एक झंडे के नीचे खड़े रहने का सामूहिक सुख इसके अलावा यह राजनीतिज्ञ हमारे नौजवानों को क्या दे पाते हैं । नौजवान इसे नहीं समझते। दुख उठाकर ,गले फाड़ कर, काम छोड़ कर झंडा लिए पीछे -पीछे घूमते हैं।राजनीतिज्ञ उन्हें जोड़े रखते हैं क्योंकि उनके बल पर वोट हासिल किया जा सकता है, लोगों को धमकाया जा सकता है और बड़े-बड़े जुलूस निकाले जा सकते हैं। यह स्थिति एक तरह से दर्द निवारक दवा का काम करती है स्थाई उपचार नहीं करती। इससे समाज धीरे-धीरे निराशा से भरता जाएगा और राजनीतिज्ञों की ताकत बढ़ती जाएगी। चाहे वह राफेल की तू तू मैं मैं हो या 56 इंच का सीना दिखा कर विदेशों में फोटो खिंचवाने का प्रचार हो लेकिन आम जनता को ,भारत के करोड़ों गरीब लोगों को क्या मिलता है?
आंख पर पट्टी रहे अक्ल पर ताला रहे
अपने शाहे वक्त का यूं ही मर्तबा आला रहे
यहां तक कि पीने का अच्छा पानी नहीं मिल पाता है हवा जहर भरी हुई है खाने को अन्न नहीं है। क्या एक ऐसे ही देश की कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी।
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे
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