बिखरती कांग्रेस: कारण क्या है
देश भर के कई राज्यों से खबर आ रही है के कांग्रेस से विधायक टूट कर दूसरी पार्टियों में जा रहे हैं। कई दिनों से यह अखबारों की सुर्खियां हैं। लेकिन, भारत की राजनीति के लिए यह नया नहीं है। लगभग हर राजनीतिक पार्टी के साथ कभी न कभी ऐसा होता है कि कुछ लोग किसी मौके पर एक से टूट कर दूसरे में चले जाते हैं। शुरू में इन खबरों को पढ़ने सुनने वाले थोड़ी हैरत में आते हैं। थोड़ी चर्चा करते हैं। बाद में अभ्यस्त हो जाते हैं और बस यही कहते हैं छोड़ो यार यह सब चलता है। निर्वाचकीय राजनीति का एक और पक्ष है वह है समाज का नैतिक पतन । हालांकि, यह स्थिति विश्वव्यापी है लेकिन इन दिनों इसे भारत में नया विचार माना जा रहा है और चालाकी भरी राजनीतिक रणनीति का दर्जा दिया जा रहा है। अब ऐसे में सारी स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि किसी की सहानुभूति किस तरफ है और साथ ही एक कारण और है कि जिस पक्ष से लोग टूट कर जा रहे हैं उसमें वैचारिक एवं आदर्श के खिंचाव का कम होना। यही नहीं, इसके साथ ही अवसरवादियों को चुनाव का टिकट देना भी एक कारण है। लेकिन यह सारे तर्क इस बात का जवाब नहीं देते कि झंडा बदलने वालों को किसी होटल या पर्यटन स्थल पर क्यों छुपाया जाता है ? ऊपरी तौर पर तो ऐसा लगता है कि झंडे बदलने वाले विधायक अपना निर्णय न बदल दें इसलिए ऐसा किया जाता है। लेकिन यह तो बाद की बात है । यहां सबसे महत्वपूर्ण है इस बात पर विचार करना कि एक नाव से दूसरे नाव पर सवार होने की प्रवृत्ति क्या है या उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों के बीच बदलते रिश्ते क्या हैं। परंपरागत तौर पर तो उम्मीदवार रणनीति तथा चुनाव लड़ने के लिए धन पर निर्भर करते हैं ,साथ ही पार्टी के कार्यकर्ता और बाहुबली की मतों को जुटाने की प्रक्रिया में पार्टी की साख पर निर्भर करते हैं। साधारणतः पार्टियां उम्मीदवारों के लिए इन सब चीजों का ध्यान रखती हैं। यकीनन उम्मीदवार भी अपने व्यक्तिगत कार्यकर्ताओं- समर्थकों को लेकर मैदान में उतरते हैं लेकिन इसके बावजूद बात पार्टी की ही चलती है और संबंधों में उसी का वर्चस्व रहता है। यह बात उस जमाने की है जब कहा जाता था की अगर सही पार्टी साथ में हो तो कोई भी चुनाव जीत सकता है।
लेकिन अब हालात बदलने लगे हैं। उन हालात के बदलाव की लहर दो तरह की होती है। पहली राजनीतिक तौर पर सत्तारूढ़ दल में जाने से ज्यादा लाभ का लोभ। इस स्थिति में राजनीतिक दल भी टिकट मांगने वालों को तौलते हैं कि उनकी माली हालत क्या है, उनके पास कितने लोग हैं और वह अपनी जाति तथा धर्म के कितने मतदाताओं को अपने साथ ला सकते हैं। उम्मीदवार की यह खूबी प्रतिद्वंदी दलों में स्थानीय स्तर पर प्रतियोगिता का सृजन करती है और आगे चलकर यह व्यक्तिवादी अपील में बदल जाती है। इसमें दूसरे प्रकार की लहर है कि जब बाहुबली, धनदाता और प्रभावशाली ग्रुप अपनी ताकत को पहचानने लगते हैं और यह समझने लगते हैं कि वह चुनाव के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं तो क्यों नहीं खुद पार्टी में चले जाएं। दूसरे को यह सारी सुविधाएं देने से तो ज्यादा यही अच्छा है। अब इससे संगठन में दरार आने लगती है और उम्मीदवार के चुनाव में उसके विजयी होने का पैमाना बदलने लगता है। एक तरह से टिकटों की नीलामी आरंभ हो जाती है। ऐसा होने पर उम्मीदवार की चुनाव में निर्भरता कम हो जाती है वह खुद चुनाव के अपने खर्चे निकाल लेता है। पार्टी के भीतर गुटों का बनना यह बताता है यह लोग पार्टी के तंत्र पर कम भरोसा करते हैं। इससे पार्टी हाईकमान और निर्वाचकों के बीच दूरी बढ़ने लगती है तथा एक नई स्थिति उत्पन्न होने लगती है । विचार पैदा लेता है कि पार्टी बहुत ज्यादा वोट नहीं प्राप्त कर सकती है अगर उस खास उम्मीदवार से पल्ला झाड़ ले तो ।इससे जो संदेश मतदाताओं के पास जाता है वह उम्मीदवार के पक्ष में ज्यादा होता है।
यदि राजनीतिक दल उम्मीदवारों या उनकी उम्मीदों से बहुत ज्यादा किनारा नहीं करते हैं तो सारी स्थितियों के बाद भी पार्टियों के पास बहुत कुछ देने के लिए होता है। यह स्थिति निर्दलीय उम्मीदवारों के साथ लागू नहीं होती । लेकिन जो पार्टी के साथ हैं उनके साथ पूरी तरह लागू होती है। सबसे बड़ी बात है कि पार्टी उम्मीदवारों को साख के लिए एक मंच देती है और यही नहीं, धन की कमी के मौके पर चुनाव लड़ने के लिए धन मुहैया कराती है। बड़े स्टार प्रचारकों को चुनाव प्रचार के लिए उपलब्ध कराती है तथा मंत्री पद की संभावनाएं पैदा करती है । अब एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने की यात्रा का पथ थोड़ा छोटा हो जाता है। ऐसे में एक महत्वाकांक्षी उम्मीदवार के लिए अपना परिश्रम, धन और ताकत लगाने के विकल्प खुल जाते हैं और वह जिस विकल्प को बेहतर समझता है उस ओर का रुख करता है, स्थानीय मतभेद को रोकता है। फिलहाल इस विकल्प के रूप में भारतीय जनता पार्टी का उदाहरण दिया जा सकता है। तो वह यानी भारतीय जनता पार्टी ऐसे उम्मीदवारों को बेशक अपने यहां स्वागत करेगी।
अब एक ऐसी पार्टी जिसका चुनाव तंत्र बेहतरीन हो और एक ऐसा स्थानीय उम्मीदवार जो अपनी संपूर्ण क्षमता को प्रस्तुत करता हो ऐसे संबंधों को पराजित करना कठिन हो जाता है। चुनाव पूर्व जिन्होंने ऐसा नहीं किया तो चुनाव के बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न होने की संभावना बनी रहती है। क्योंकि उसे महसूस होता है की हालात तेजी से बदल रहे हैं और निकट भविष्य में बदल जाएंगे। लेकिन इस दलील के विपरीत भी तर्क हैं । उदाहरण के लिए देखा जा सकता है कि इन दिनों भाजपा में वह लोग भी जाने को तैयार हैं जिन्होंने कभी उसे चुनौती दी थी इसका मतलब है की हमारी राजनीतिक व्यवस्था का बहुत बड़ा भाग हमेशा एकदम से दूसरे दल के बीच झूलता रहता है और उसे रोका नहीं जा सकता। आज जो एक पार्टी से दूसरे पार्टी के बीच भगदड़ मची है उसके पीछे मुख्यतः यही कारण है और इन कारणों को खत्म नहीं किया जा सकता।
0 comments:
Post a Comment