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Friday, July 26, 2019

लोकतंत्र का मखौल

लोकतंत्र का मखौल

कभी मशहूर शायर इकबाल ने लिखा था
जम्हूरियत वह तर्ज ए हुकूमत है कि जिस में
  बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
पता नहीं इकबाल ने हालात के किन दबाव के कारण यह लिखा था लेकिन इन दिनों जो कुछ कर्नाटक में हुआ या उसके पहले गोवा में हुआ या जैसी  चर्चा है महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में होने वाला है उनसे तो लगता है कि इकबाल की बात बिल्कुल सही है। इसे रोकने के लिए कुछ साल पहले दल बदल कानून बना। लेकिन उस कानून की कर्नाटक में कैसे धज्जियां उड़ी यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। जिस तरह कर्नाटक की सरकार को गिराया गया उससे तो लगता है दल बदल कानून कुछ नहीं कर सकता। कर्नाटक का मसला भारतीय लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए एक मखौल है । दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए लज्जा का विषय है। लज्जा का विषय इसलिए नहीं कि सरकार में कुछ ऐसा नहीं था जिस पर गर्व किया जा सके बल्कि इसलिए कि जनता दल (सेकुलर) और कांग्रेस की सरकार भी एक धोखा थी। लेकिन, जिस तरह से इसे गिराया गया उससे यह साबित होता है कि धन और दिल्ली में सत्ता पर बैठे लोगों की शह थी।  चाणक्य का मानना था कि जहां भी धन एवं सत्ता का अनुचित गठबंधन होगा वहां जनता केवल दर्शक बनी रह जाएगी। उसके किए कुछ नहीं हो सकता है। यह नैतिकता के तकाजों का सरासर उल्लंघन था और संविधान में शामिल किए गए दल बदल कानून का मजाक था। ऐसी स्थिति में बिचारे "कॉमन मैन" कि जो पहली प्रतिक्रिया होती है वह है की ऐसे कानून बनाए जाएं जो दलबदल रोक सकें। मजबूरी यह है कि मौजूदा कानून बहुत ही कठोर है। मौजूदा कानून राजनीतिक दल को अपने सदस्यों को आदेश देने की सुविधा देता है कि वह किसी भी तरह के प्रस्ताव पर खास तरह से मतदान करें। इसमें सिर्फ विश्वास मत ही शामिल नहीं है। किसी भी प्रकार का मत और इसके लिए नेतृत्व व्हिप जारी कर सकता है। व्हिप का उल्लंघन करने वालों को अयोग्य करार दिया जाता है । इसमें सिर्फ एक अपवाद है वह है सही तरीके से अलग होना। शुरू- शुरू में सदस्यता बचाने के लिए किसी भी सदन में किसी भी पार्टी  के  विधायकों -सांसदों की आधी संख्या  का अलग होना जरूरी था। बाद में इसे बढ़ाकर दो तिहाई कर दिया गया।  इस कानून में कई चोर दरवाजे हैं । गोवा में कांग्रेस विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने के लिए इसी प्रावधान का इस्तेमाल किया और तेलंगाना में भाजपा के सदस्यों ने तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल होने के लिए भी है इसी प्रकार के प्रावधान का उपयोग किया। अब तो एक ही रास्ता बचा है कि दल बदलने की सीमा को शत प्रतिशत कर दिया जाए या फिर यह कर दिया जाए कि विधायक या सांसद अगर अपनी पार्टी छोड़ता है चाहे छोड़ने वालों की  संख्या कितनी भी हो उसकी या उनकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी।
        कर्नाटक में 2008 के  विधानसभा चुनाव के बाद ऑपरेशन कमल के पहले दौर के बाद भाजपा ने एक नया चोर दरवाजा खोल दिया । वह था कि विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे कर दल बदले और फिर दूसरे  दल  या बदले गए दल के झंडे तले  चुनाव लड़ कर  सदन में आ जाएं। इस बार भी भाजपा ने एक ही रास्ता चुना। किसी भी राजनीतिक विभाजन का कोई अभियान नहीं था और इसे इस्तीफे के जरिए अंजाम दिया गया। बेशक इसमें पैसों का बहुत बड़ा खेल था।  इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि अगर उपचुनाव होते हैं तो वह स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे। अब अगर इस तरह की घटनाओं को रोकना है तो इस्तीफा देना ही गैर कानूनी घोषित कर दिया जाए । जो लोग पार्टी से इस्तीफा देंगे उन्हें कुछ वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए। अब तो केवल इसी तरह की सुधार की जरूरत है , परंतु इसका भी कोई चोर दरवाजा निकल आएगा। दलबदल रोकने के लिए कोई भी अचूक उपाय नहीं है। जितना कड़ा कानून होगा दल बदल की कीमत उतनी ही बढ़ जाएगी। बेशक इससे दल बदल की प्रक्रिया थोड़ी धीमी होगी लेकिन रुकेगी नहीं। आज पार्टी के भीतर विभाजन दो तरह के होते हैं एक तो विधायक बागी हो जाएं दूसरे कि इस्तीफा दे दें । अब अगर कानून बनता है तो अजीब हास्यास्पद स्थिति हो जाएगी। पूरे के पूरे विधायक इस्तीफा दे देंगे। जो कोई भी नहीं चाहता। सुधार का दूसरा विकल्प है कि दल बदलने वाले विधायकों के लिए कुछ वर्षों की अवधि के लिए राजनीति के दरवाजे ही बंद कर दिए जाए। इससे एक नई बुराई पैदा लेगी और हमें एक बुराई को मिटाने के लिए दूसरी बुराई से दो-चार होना पड़ेगा तब इसका क्या समाधान हो? इसका एकमात्र समाधान है कि जनता के बीच जाया जाए। राजनीतिज्ञों को बदनामी का डर ज्यादा होता है और उन्हें ऐसा करने के लिए बदनाम कर दिया जाए। पूरी राजनीतिक नेता अपना भविष्य दांव पर नहीं लगाएगा ऐसा होने पर यदि व जनता के बीच जाता है और दोबारा चुनाव लड़ता है तो उसका जीतना मुश्किल हो  जाएगा। इसके अलावा कोई उपाय नहीं है। राजनीति में अचूक उपाय की तलाश एक मृगतृष्णा है।
  फिर इस मजाक को जम्हूरियत का नाम दिया
     हमें डराने लगे वो हमारी ताकत से
          

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