दल बदालुओं के लिए फिर चुनाव लड़ना जरूरी हो
हाल में कई राज्यों में जो हुआ। यहां तक कि गोवा और तेलंगाना में भाजपा और टीआरएस के साथ के साथ कांग्रेस से विधायक टूट गए। इसके अलावा तेलुगू देशम पार्टी के सांसदों का राज्यसभा में भाजपा के साथ मिलना एक तरह से दलबदल कानून को कसौटी पर ला दिया है। कानून के तहत इन सब मामलों में दल बदलने वाले विधायकों और सांसदों को एक खास संख्या के साथ बाहर आना होगा वरना उनकी सदस्यता रद्द हो जाएगी। गोवा में कांग्रेस का एक विधायक भाजपा को पराजित कर आया था और अभी साल भर भी नहीं गुजरा कि यह सब हो गया। दलबदल विधेयक की रोशनी में इन सभी मामलों को देखने की जरूरत है। वस्तुतः यह सब राजनीतिक और संविधानिक नैतिकता का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन है। भारत में राजनीतिक पार्टियों के चतुर्दिक ही संसदीय राजनीति घूमती है और निर्वाचन के बाद विभिन्न पार्टियों के विजयी उम्मीदवार ही इसके सदस्य तथा आम जनता के प्रतिनिधि बनते हैं । उन्हें अपनी पार्टी के विपरीत आवाज उठाने या खुद की स्थिति का निर्णय करने का अधिकार नहीं होता। एक उम्मीदवार की प्राथमिक पहचान राजनीतिक होती है वह पहचान पार्टी की विचारधारा और उसके इतिहास के आधार पर सामने रहती है। मतदाताओं के लिए उम्मीदवार पार्टी की आवाज होता है। पार्टी का चुनाव चिन्ह ,चुनाव घोषणा पत्र झंडा इत्यादि उस उम्मीदवार या उस विधायक के दावे के पीछे कायम रहता है। उसे इसी आधार पर जनता निर्वाचित करती है। ऐसा कई बार होता है कि कोई नेता किसी पार्टी का चेहरा बन जाता है और उसी के नाम पर वोट मांगे जाते हैं ,जैसा कि 2019 के चुनाव में देखने को मिला। अब अगर कोई विधायक दल बदल करता है तो सबसे पहले वह जनादेश के साथ दगाबाजी करता है। यह एक तरह से चुनाव के माध्यम से तैयार विश्वास को भंग किया जाना है। बेशक किसी भी विधायक को अपनी इच्छा अनुसार पार्टी में जाने की आजादी है लेकिन जैसे ही वह इस आजादी का इस्तेमाल करता है तो इसका अर्थ होता है कि उसे दूसरी पार्टी आदर्श उसकी विचारधारा और अन्य बातें ज्यादा आकर्षित कर रही हैं। लेकिन इस तरह का बदलाव बताता है की वह विशिष्ट उम्मीदवार जनादेश को अपमानित कर रहा है। राजनीतिक नैतिकता का यह तकाजा है कि वह उम्मीदवार अपनी सीट छोड़कर दोबारा चुनाव लड़े। उदाहरण के लिए जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को छोड़ा तो वे दोबारा चुनाव लड़े। रामकृष्ण हेगड़े ने 1984 में कर्नाटक के मुख्यमंत्री का पद त्याग किया। उस साल लोकसभा चुनाव में तत्कालीन जनता पार्टी को भारी विजय मिली थी और हेगड़े पर दोबारा चुनाव लड़ने का दबाव भी नहीं था परंतु उन्होंने नैतिकता के दवाब में चुनाव लड़ने का फैसला किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह इलाहाबाद से विजई हुए और हेगडे दोबारा जीतकर मुख्यमंत्री बने। 2012 में सीपीआईएम के विधायक आर सेलवराज जब पार्टी छोड़कर कांग्रेस में गए तो उन्होंने दोबारा चुनाव लड़ा।
गोवा और तेलंगाना में जो दलबदल हुए हैं उसका दोष कांग्रेस पर है कि वह पार्टी अपने विधायकों को रोक नहीं पाई । यहां रोक पाने का निहित अर्थ धन और पद से है। विधायकों ने भी विकास तथा सुशासन के अदृश्य परदे के पीछे खड़े होकर दलबदल करने का अपना औचित्य बताया। कारण चाहे जो हो, किसी विधायक को दल बदलने का कारण अपने मतदाताओं को बताना जरूरी है और यह बताना चुनाव लड़ने के माध्यम से ही हो सकता है । अगर कोई सदस्य ऐसा नहीं करता है तो इसका मतलब है वह अपने निर्वाचकों का सामना नहीं किया है। सियासी अर्थशास्त्र में परिवर्तन ने राजनीतिक दलों और राजनीतिक प्रक्रिया में भी बदलाव ला दिया है। चुनाव में भारी धन की जरूरत ने चुनाव को एक महंगा काम बना दिया। अब चुनाव आस्था तथा विचारधारा के आधार पर नहीं होते हैं । उम्मीदवार भी राजनीतिक दलों का पल्ला इसलिए पकड़ते हैं कि कानून उनसे दूर रहे और वे अपना हित साधते रहें। कभी कभी जनता इसे चुनौती भी दे देती है । इसके उदाहरण धुर वामपंथी दलों का उदय, वीपी सिंह के जनमोर्चा का ताकतवर होना तथा अन्ना हजारे का सरकार विरोधी आंदोलन का प्रसार इत्यादि हैं। यह एक तरह से संसदीय राजनीति में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जनता के क्रोध का इजहार भी था। यही नहीं, यही फिनोमिना भूमि ,आजीविका, पर्यावरण इत्यादि से संबद्ध नए आंदोलनों में लोगों का शामिल होना भी है। इन सबमें एक तरह से कांग्रेस का हाथ है। क्योंकि आरंभ में संसदीय राजनीति में उसने ही अवक्षयण पैदा किया। संपूर्ण प्रक्रिया को रोकने के लिए एकमात्र यही उपाय है कि दल बदलने वाले विधायकों - सांसदों को चुनाव लड़ने के लिए बाध्य किया जाए।
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