कर्नाटक का नाटक खत्म
कर्नाटक में सियासी स्टंट और रोमांच से भरा नाटक खत्म हो गया और 14 महीने पुरानी एचडी कुमार स्वामी की सरकार का पतन हो गया और इसी के साथ भारत में एक बार और लोकतंत्र भी पराजित हो गया। लंबे चले नाटक के बाद विधानसभा में विश्वास मत के दौरान कांग्रेस और जनता दल सेकुलर सरकार को 99 वोट मिले तथा भाजपा को 105 मत मिले। इस तरह से सरकार गिर गई । राहुल गांधी ने ट्वीट किया : "अपने पहले दिन से ही कांग्रेस जेडीएस गठबंधन भीतर और बाहर निहित स्वार्थ वाले लोगों के निशाने पर आ गई थी। जिन्होंने इस गठबंधन को सत्ता के अपने रास्ते के लिए रुकावट माना था उनके लालच की आज जीत हो गई ,लोकतंत्र इमानदारी और कर्नाटक की जनता हार गई । " इस पर भाजपा ने प्रतिक्रिया जाहिर की और उसने अपने आधिकारिक टि्वटर में लिखा : "यह आपके अपवित्र गठबंधन और सत्ता के लालच पर कर्नाटक की जीत है।" कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बीजेपी पर संस्थाओं और लोकतंत्र को योजनाबद्ध ढंग से कमजोर करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि "एक न एक दिन यह झूठ बेनकाब होगा।" इस नाटक का सूत्रपात तब हुआ जब कई हफ्ते पहले सत्ता पक्ष के 16 विधायकों ने इस्तीफा दे दिया था । सरकार के पतन के साथ ही भाजपा के लिए सरकार बनाने का रास्ता साफ हो गया।
वैसे भी कर्नाटक का इतिहास राजनीतिक रूप से उथल-पुथल भरा रहा है। केवल तीन मुख्यमंत्री ही 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा कर सके हैं। इनमें पहले निजलिंगप्पा 1962 से 68 तक ,दूसरे बी देवराज अर्स 1972 से 77 तक और तीसरे सिद्धारमैया 2013 से 2018 तक।
कांग्रेस तथा जनता दल सेकुलर का आरोप है कि पूरे के पूरे नाटक की पटकथा भाजपा ने लिखी थी लेकिन यह भी सच है की गलती केवल भाजपा की नहीं थी। कांग्रेस गठबंधन भी अपना घर नहीं संभाल सकी। कर्नाटक में जो कुछ भी हुआ वह भारतीय राजनीतिक आचरण के सामने कई गंभीर सवाल खड़े करता है। पहला सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? 2018 में जब चुनाव हुए थे तो जनता दल सेकुलर और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़े थे लेकिन, जब सरकार बनाने की बात आई तो दोनों मिल गए और कांग्रेसी ने जे डी (एस) के नेता कुमार स्वामी को मुख्यमंत्री पद पर आसीन करा दिया। सरकार खड़ी हो गई लेकिन बुनियाद कमजोर थी। सरकार के भीतर लगातार तनाव कायम रहा। कांग्रेस के कुछ नेता अनवरत मुख्यमंत्री के खिलाफ बोलते रहे। कांग्रेस की ओर से इसे रोकने की कोशिश नहीं की गई। लोकसभा चुनाव के दौरान दोनों तरफ से आरोप उछाले जाने लगे। यहां तक कि मुख्यमंत्री कुमार स्वामी के पुत्र को लोकसभा चुनाव में पराजित करने की कांग्रेस की कोशिशों के बारे में भी काफी शोर हुआ। इससे अंदाजा लगता है के बहुत पहले से कुछ न कुछ पक रहा था और सब कुछ ठीक-ठाक नहीं था।
दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के भीतर भी झगड़े चल रहे थे। कांग्रेस- जनता दल (सेकुलर) सरकार को गिराने में माना जाता है कि कांग्रेस के नेता रामलिंगा रेड्डी की मुख्य भूमिका थी। रेड्डी लगातार आठ बार विधानसभा चुनाव जीत चुके थे और उन्हें मंत्री नहीं बनाए जाने की वजह से वे काफी नाराज थे। उनके साथ 8 विधायकों के इस्तीफे से पार्टी डगमगाने लगी। डैमेज कंट्रोल की गरज से उन्हें उपमुख्यमंत्री पद का ऑफर दिया गया था लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। यही नहीं कहा तो यह भी जाता है संकट मोचक की भूमिका निभाने वाले डीके शिवकुमार की महत्वाकांक्षा भी कहीं न कहीं इस पर आघात कर रही थी। यही नहीं पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को बरदाश्त नहीं था कि ज्यादा सीटों के बावजूद मुख्यमंत्री पद जनता दल सेकुलर को मिले और वह लगातार मुख्यमंत्री कुमार स्वामी की आलोचना करते रहते थे। यही नहीं इस पूरे मामले को लेकर कांग्रेस हाईकमान भी उतनी गंभीर या चिंतित नहीं दिखाई पड़ रही थी जितना उसे होना चाहिए था। जब यह संकट आरंभ हुआ तो दिल्ली दरबार से एक दो बयान ही आए। कांग्रेसी विधायक रमेश सहित कई विधायकों का भाजपा से मिलना जुलना आम बात हो गई थी और यह भी अफवाहें फैल रही थी कि यह लोग पार्टी छोड़ सकते हैं। कांग्रेस विधायक जिन्होंने इस्तीफे दिए उनमें प्रमुख राशन बेग लगातार पार्टी का मजाक उड़ाते थे और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते थे। लेकिन इन्हें रोकने के लिए राज्य आलाकमान या केंद्रीय हाईकमान की ओर से किसी प्रकार का प्रयास नहीं देखा गया। कांग्रेस ने कभी सोचा ही नहीं की कर्नाटक केवल एक राज्य नहीं है। भाजपा के लिए यह दक्षिण भारत में प्रवेश द्वार भी है। गोवा का उदाहरण सबके सामने था और इतनी राजनीतिक समझ तो जरूरी थी कि अगर कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनती है तो दक्षिण भारत में उसके प्रसार की सुविधा हो जाएगी । उत्तर भारत को खो चुकी कांग्रेस दक्षिण को बचाने के लिए भी तत्पर नहीं दिखी।
बहुतों को याद होगा कि 2018 में भी कर्नाटक में एक सियासी नाटक का मंचन हुआ था। विधानसभा चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला था 225 सदस्यों वाली विधानसभा में भाजपा के 104 विधायक थे और नियम के मुताबिक सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण इसे सरकार बनाने का आमंत्रण मिला। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। आधी को सुनवाई हुई और कोर्ट ने येदुरप्पा को कहा कि वह बहुमत साबित किए बिना सरकार नहीं बना सकते। फिर बहुमत साबित करने का समय आया उससे पहले ही येदुरप्पा ने इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस जनता दल (सेकुलर) ने मिलकर सरकार बनाई । बुनियाद में ही गड़बड़ थी। सबसे बड़ी पार्टी होने का दर्द भाजपा के भीतर ही भीतर सालता रहा और उसी दर्द ने सरकार को गिराने के लिए भाजपा को उकसाना शुरू किया।
मंगलवार को विश्वास मत के पहले पूरे बेंगलुरु शहर में धारा 144 लागू कर दी गई। मुख्यमंत्री कुमार स्वामी ने विश्वास मत से पहले राज्य की जनता को संबोधित करते हुए कहा कि" पिछले दिनों विधानसभा में जो कुछ हुआ है उसके लिए उन्हें अफसोस है। कर्नाटक में सरकार गिराने और नई सरकार बनाने एक क्रम में जितना कुछ हुआ वह लंबे समय तक राजनीति के इतिहास में लिखा जाता रहेगा।" पूरी स्थिति को देखकर यह कहा जा सकता है कि बेशक सरकार ने विश्वास खोया है लेकिन इसी के साथ लोकतांत्रिक तरीकों ने भी विश्वास खो दिया। इसमें अवसरवाद स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है। जिसका उद्देश्य सत्ता में बने रहना है । भाजपा खुद को एक आदर्शवादी पार्टी कहती है उसे भी राजनीतिक स्वार्थ में सरकार बनाने के पहले विचार करना चाहिए था। कर्नाटक में नए चुनाव होने चाहिए और राजनीतिक प्रतिनिधियों को दोबारा जनादेश हासिल करना चाहिए।
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