कांग्रेस को नेता नहीं विचारधारा की जरूरत है
कांग्रेस पार्टी के भीतर टूट-फूट की घटनाएं हो रही हैं। कर्नाटक और गोवा के उदाहरण अभी ताजा है। कर्नाटक में शक्ति परीक्षण तय हो चुका है और यदि कोई चमत्कार नहीं होता है तो परिणाम का अनुमान लगभग सब को है यहां गौर से देखें तो निशाने पर कांग्रेस पार्टी और उसके इक्का-दुक्का समर्थक दल हैं। इस बिखराव को बल दिया है भारतीय जनता पार्टी ने। फिलहाल देश में राजनीति के दो ही ध्रुव हैं एक अत्यंत ताकतवर और तेजी से विस्तारित होती भारतीय जनता पार्टी और दूसरी धीरे धीरे विखंडित होती कांग्रेस पार्टी। कांग्रेस पार्टी के विरोधी तथा शुभचिंतक दोनों एक ही सवाल पूछ रहे हैं कि क्या कांग्रेस की विचारधारा अब पुरानी हो चुकी है , इसकी क्षमता समाप्त हो चुकी है, इसमें अब नई प्रतिभाएं क्यों नहीं आ रही हैं , इसका आधार क्यों डगमगा रहा है और क्या पार्टी समाप्त हो जाएगी?
अगर इतिहास को देखें तो कांग्रेस की मूल विचारधारा अभी भी पुरानी नहीं पड़ी है बल्कि पिछले कुछ दशकों से पार्टी उस विचारधारा से थोड़ी अलग हो गई है। उसी तरह इसके समर्थकों का आधार भी सिकुड़ गया है। जिन लोगों ने कांग्रेस का राजनीतिक इतिहास पढ़ा है उन्हें यह मालूम है कि इसकी विचारधारा उदार और नैतिक दृष्टिकोण के चतुर्दिक घूमती है। इसकी उदारता का उद्देश्य ही कांग्रेस की पहचान है। महात्मा गांधी का नैतिक अभियान और जवाहरलाल नेहरू का आधुनिकतावाद ने कांग्रेस को आधार प्रदान किया है और कांग्रेस के चरित्र का सृजन किया है। अब इसका नैतिक ताना-बाना खत्म हो चुका है और इसकी विचारधारा में गिरावट आ गई है। जिसके फलस्वरूप कांग्रेस का मूल चरित्र समाप्त हो गया है। कांग्रेस के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरह प्रतिबद्ध सदस्य नहीं हैं और ना ही वामपंथी दलों की तरह कार्ड धारक हैं। अब यदि यह पार्टी दोबारा खड़ी होनी चाहती है तो इसे अपनी विचारधारा को वापस लाना होगा। कांग्रेस का गठन 1885 में हुआ था इसके गठन के 4 वर्षों के बाद जवाहरलाल नेहरू का जन्म हुआ। इसके बाद लगभग कई दशकों के बाद भी नेहरू की छाया कांग्रेस पर कायम रही। कह सकते हैं कि लगभग एक सदी तक और भाजपा को अभी भी उस साए से खतरा महसूस होता है। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी अभी भी कांग्रेस मुक्त भारत के नारे लगाती है।
यहां सवाल है कि आखिर क्या हुआ कि पार्टी इस तरह से खत्म हो गई और समाप्ति की गति बहुत तेजी से बढ़ती जा रही है । दरअसल , कांग्रेस का गठन एक संस्कृति उन्मुख भारत में हुआ था और जब वह संस्कृति आहिस्ता आहिस्ता अन्य संस्कृतियों से प्रभावित होने लगी तो उनके दुर्गुण भी इसमें प्रवेश करने लगे और अंततः सामाजिक चिंता की जगह व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं स्थापित हो गईं। चुनाव जीतना ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। चुनाव जीतने के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है। इसलिए राजनीति में धन प्रमुख हो गया। ऐसे वातावरण में व्यक्तिवाद और कुटिलता ने राजनीतिक चेतना की जगह दखल कर ली। आज स्थिति यह हो गई कि कांग्रेस पार्टी का , यहां तक कि युवा कांग्रेस का भी, समाज से संपर्क भंग हो गया और इस शून्य में एक नए मध्य वर्ग का विकास हुआ। राजीव गांधी की आधुनिकतावादी और मनमोहन सिंह की उदारतावादी राजनीति ने इस नए मध्यवर्ग को अवसरवादी बना दिया। नतीजा यह हो गया कि पार्टी की सैद्धांतिक विरासत अब अप्रासंगिक लगने लगी।
यहीं आकर भारतीय जनता पार्टी द्वारा राष्ट्रवाद और धर्म को एक साथ जोड़ने के सामाजिक प्रयासों की व्याख्या मिलती है । उसने कांग्रेस की इस चूक से सबक सीखा है और बड़ी होशियारी से समाज के नए मध्यवर्ग के भीतर से अवसर वाद को धीरे धीरे खत्म करने का प्रयास कर रही है। यह ध्यान देने की बात है कि कांग्रेस ही आरंभ में एक राष्ट्रवादी और समाजसेवी राजनीतिक संगठन थी आज कांग्रेस पार्टी और उसके नेतृत्व को मालूम नहीं है कि उसे कैसे आघात लगा। हालात पर अगर निगाह रखें तो पता चलता है कि भाजपा को कांग्रेस पार्टी से कोई दुराव नहीं है। वह कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर रही है। वह केवल गांधी परिवार से दूरी बना रही है और उसका निशाना भी गांधी परिवार ही है पार्टी नहीं। उसे मालूम है कि अगर परिवार की राजनीतिक मृत्यु हो जाती है तो कांग्रेस भी समाप्त हो जाएगी। इसीलिए नरेंद्र मोदी और उनके साथी लगातार सोनिया और राहुल पर आघात कर रहे हैं। भाजपा की रणनीति है कि कांग्रेस को विचारधारा के स्तर पर समाप्त कर दिया जाए और बहुत दूर तक उसे सफलता मिल चुकी है। आज देश के 18 से 35 वर्ष की आयु वर्ग के नौजवान नहीं जानते की स्वतंत्रता के बाद शासन करने वाले जवाहरलाल नेहरू के सिद्धांत क्या थे? इसलिए कांग्रेस को यदि अपना वजूद कायम रखना है तो उसे अपनी विचारधारा को फिर से स्थापित करना पड़ेगा। क्योंकि कांग्रेस पार्टी को नेताओं की जरूरत नहीं है विचारधारा की जरूरत है।
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