कर्नाटक में सांप और सीढ़ी की सियासत
कर्नाटक का राजनीतिक इतिहास देखें तो ऐसा लगता है की वहां का गठबंधन अभिशप्त है और जिसके कारण वहां लगातार राजनीतिक उथल पुथल हो रही है। अब कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा सदन में बहुमत साबित कर लिया हैं और बीच में कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष ने कांग्रेस तथा जनता दल सेकुलर के 14 विधायकों को अयोग्य करार दे दिया विधानसभा अध्यक्ष रमेश कुमार का मानना है कि इन विधायकों ने दल बदल कानूनों का उल्लंघन किया है। कांग्रेस और जनता दल सेकुलर के नेताओं में बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने के लिए विधानसभा अध्यक्ष से अनुरोध किया था। इसके पहले भी 25 जुलाई को 3 कांग्रेसी विधायकों को अयोग्य ठहरा दिया गया था और इस तरह कर्नाटक में अयोग्य ठहराए गए कुल विधायकों की संख्या अब तक 17 हो गई। इस बीच रमेश कुमार ने पद से इस्तीफा भी दे दिया। भारतीय गणतंत्र का मजा देखिए कि 17 विधायकों क्या योग्यता भी रिकॉर्ड नहीं बना सकी। पिछले साल तमिलनाडु में 18 विधायकों को अयोग्य ठहराया गया था। कर्नाटक में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने अपने टि्वटर के माध्यम से विधानसभा अध्यक्ष के फैसले का स्वागत किया है और कहा है कि "उनके इस ईमानदारी भरे फैसले से भाजपा के जाल में फंसने वाले देश के सारे प्रतिनिधियों को कठोर संदेश जाएगा।" इसमें एक नया दिलचस्प मोड़ भी दिखाई पड़ रहा है कि जिन विधायकों को अयोग्य ठहराया गया है वह सुप्रीम कोर्ट में फरियाद करने जा रहे हैं। लेकिन अभीतक विधानसभा में आंकड़ों का समीकरण गड़बड़ होता नहीं नजर आ रहा है। क्योंकि 17 विधायकों के अयोग्य ठहराए जाने के बाद विधानसभा में कुल विधायकों की संख्या 208 हो गई यानी अब भाजपा को बहुमत साबित करने के लिए 104 वोट हासिल करने पड़ेंगे। फिलहाल भाजपा के पास 105 विधायक हैं और एक निर्दलीय भी है। दूसरी तरफ कांग्रेस के पास 65 और जेडीएस के पास 34 विधायक यानी इस गठबंधन के पास कुल 99 विधायक हो गए। अगर बसपा विधायक एन महेश भाजपा के खिलाफ भी वोट देते हैं तब भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। भाजपा ध्वनिमत से जीत गयी है। लेकिन यदि सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्य करार दिए गए विधायकों की अयोग्यता रद्द कर दी तो गड़बड़ हो सकती है हालांकि उम्मीद है फिर सुप्रीम कोर्ट की ओर से इस मामले में फैसला देर से आएगा और उसके पहले चुनावों की घोषणा हो सकती है। क्योंकि अपने अंतरिम आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संवैधानिक मामलों में स्पीकर की शक्तियों के आधार पर ही चर्चा हो सकती है और क्या कोई अदालत स्पीकर को इस संबंध में निर्देश दे सकती है। सारे मामले एक दूसरे से जुड़े हुए दिखाई पड़ते हैं इसलिए बहुत जल्द फैसला आने की उम्मीद नहीं है । इस मामले में एक और दिलचस्प सवाल है कि क्या अदालत यह भी फैसला करेगी कि इस्तीफा दे देने वाले विधायकों पर पार्टी का व्हिप लागू होता है या नहीं । कांग्रेस जेडीएस के बागी विधायकों की दलील है की इस्तीफा देने के काफी समय के बाद व्हिप जारी किया गया। यदि अयोग्यता कायम रही तो इन 17 सीटों पर उप चुनाव होंगे और अपना बहुमत साबित कर उसे बनाए रखने के लिए भाजपा को 8 से 10 सीटें जीतनी होंगी। क्योंकि भाजपा को अपना वजूद बनाए रखने के लिए नई स्थिति में 113 विधायकों के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। संभावना है की महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के साथ ही कर्नाटक की भी इन सीटों पर उपचुनाव हो।
वर्तमान स्थिति में येदुरप्पा ने अपना बहुमत साबित कर लिया है। कर्नाटक में जो कुछ हो रहा है वह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है। खास कर आने वाले दिनों में यदि इस तरह की घटनाएं होने लगीं तो लोकतंत्र एक मजाक बनकर रह जाएगा। जनता के प्रतिनिधि बनकर जाने वाले यह विधायक जनता की मेहनत की कमाई पर क्या कर रहे हैं यह आने वाले चुनाव में एक नजीर बन सकती है। कर्नाटक में जो कुछ भी हो रहा है लगता है यह सांप और सीढ़ी का सियासी खेल है। कोई सीढ़ियों से चढ़ता हुआ शीर्ष पर पहुंचता है तो वहां इस्तीफे या अन्य छोटे बड़े सांप उसे निगल कर फिर नीचे पहुंचा देते हैं। कर्नाटक में गठबंधन का कोई ऐसा फार्मूला नहीं दिखाई पड़ रहा है जो सरकार को पूरी अवधि तक चला सके। यहां तक कि देवगौड़ा और रामकृष्ण हेगड़े भी गठबंधन की राजनीति को पूरी तरह नहीं संचालित कर पाए थे। कर्नाटक में गठबंधन की राजनीति की यह उथल-पुथल 1983 में तब शुरू हुई जब हेगड़े ने बाहर से समर्थन हासिल कर सरकार बनाई। 2 वर्ष के बाद हेगड़े को इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि उनकी सरकार लोकसभा चुनाव में अच्छा नहीं कर पाई थी। दो दशक में कर्नाटक में कोई भी गठबंधन की सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी है। लेकिन सारे सियासी नाटकों में सबसे ज्यादा हानि बेचारे कॉमन मैन को ही है। उसे बड़े कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है। यहां सबसे महत्वपूर्ण है एक स्थाई सरकार। क्योंकि आम जनता को शासन चाहिए तथा राज्य के विकास के लिए राज्य एवं केंद्र में एक संयोजन चाहिए। लोकतंत्र में स्थायित्व जरूरी है और इसी के माध्यम से शासन तथा कार्य क्षमता को बढ़ावा मिलेगा।
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