खाद्य असुरक्षा के बरअक्स विकास
हालांकि देशभर में पिछले 7 वर्षों में आमदनी बढ़ी है। बेशक, आमदनी का विकास अलग-अलग राज्यों में अलग अलग है लेकिन लगभग सभी जगह यह दिखाई पड़ रहा है कि बच्चे अपने मां बाप के पेशे को नहीं अपना रहे हैं। गांव में पढ़े-लिखे बच्चों के लिए खेती को कोई पेशा नहीं माना जा रहा है। जबकि कृषि उपज बढ़ रही है। जनवरी 2019 के एक अध्ययन में पाया गया है कि 2005 के मुकाबले 2012 में किसानों के कम बच्चों ने खेती को अपना पेशा बनाया। यह कमी 21.1% तक पाई गई। आजादी के बाद पहली बार पाया गया है कि कृषि क्षेत्र से मजदूरों की एक बड़ी तादाद गैर कृषि क्षेत्रों में आई है। कृषि क्षेत्र में रोजगार बुरी तरह लड़खड़ा गया है। कृषि क्षेत्र में रोजगार की कमी का मुख्य कारण है कि अधिकांश नौजवान पढ़ लिख कर अच्छी नौकरियों की उम्मीद से शहर आ जाते हैं। शोध के मुताबिक कितने नौजवानों को नौकरियां मिलती हैं इसके साथ ही यह जरूरी है कि उन्हें कैसी नौकरियां मिलती हैं। शोध में पाया गया है कि आर्थिक गतिशीलता के लिए सबसे जरूरी है रोजगार और उसके साथ ही रोजगार की गुणवत्ता। इस शोध में 2004 - 5 में प्रकाशित भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण के हवाले से कहा गया है 2005 से 2012 के बीच आर्थिक गतिशीलता में विकास हुआ है। लेकिन इसी के साथ यह भी पाया गया है कि गरीब बच्चे अपना खानदानी पेशा खास करके खेती बारी को नहीं अपना रहे हैं। इसका अनुपात 62.7% से घटकर 58.6% हो गया है। इसी के साथ ही ग्राम एवं कृषि आधारित अन्य पेशों में भी गिरावट आई है और वह 53.5% से घटकर 32.4% हो गई है । 2005 से 2012 के बीच का अध्ययन करने पर पहली बार यह पता चला कि आजादी के बाद भारत में बहुत बड़ी संख्या में श्रमिक कृषि क्षेत्र से गैर कृषि क्षेत्र में चले गए हैं। क्योंकि कृषि क्षेत्र में रोजगार इस संभावनाएं बुरी तरह कम हुई है। बहुत बड़ी संख्या में लोग गांव से खेती बारी और अन्य कृषि आधारित रोजगारों को छोड़कर गैर कृषि आधारित क्षेत्रों में कामकाज के लिए चले गए हैं। खास करके ये लोग अधिक आमदनी के लिए ऐसा कर रहे हैं और जो गांव से जा रहे हैं। उनमें अधिकांश युवक निर्माण के क्षेत्र में मजदूरी कर रहे हैं। हालांकि अंतरपीढ़ीय आर्थिक गतिशीलता बढ़ी है लेकिन यह नहीं पाया गया है कि इस गतिशीलता से समग्र रूप से कितना लाभ हुआ है। 76% किसान चाहते हैं कि खेती के अलावा कोई और काम करें जबकि 61% लोग यह चाहते हैं कि उन्हें शहरों में कामकाज मिले। ऐसे लोग बेहतर शिक्षा ,स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं के ज्यादा आकांक्षी हैं।
भारत की अर्थव्यवस्था में तेज विकास आया है और इसमें कई तरह के रोजगार पनप रहे हैं । जैसे मोबाइल ऐप वाली कार चलाने का काम, भोजन पहुंचाने का धंधा इत्यादि। इन कामकाज में गांव से आए नए-नए युवक लग जाते हैं। इनमें अधिकांश पढ़े लिखे होते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक 2004- 5 से 2011 -12 के बीच किसानों की संख्या में भारी गिरावट आई है। सर्वेक्षण के अनुसार अवधि में 19 करोड़ किसानों ने खेती छोड़ दी जबकि 69 मिलियन भूमिहीन मजदूरों की संख्या में 19% गिरावट आई है। धोबी ,बढ़ई और राजमिस्त्री जैसे अर्ध कुशल पेशों से जुड़े लोगों के बच्चों के पेशेवरों जैसे वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, शिक्षक या न्यायाधीशों के रूप में काम मिलने में काफी कठिनाई हो रही है और ऐसे युवाओं की संख्या में भारी कमी आई है। इसका मतलब स्पष्ट है कि ऊपर की ओर विकसित होने के अवसर बहुत कम हैं। जबकि नीचे की ओर यानी छोटे धंधों में काम पाने के अवसर ज्यादा हैं।
आमदनी में विकास जरूर हुआ है खास करके भारत में लेकिन उसकी कोई खास दिशा नहीं है। खेती से लोगों के खासकर के युवाओं के दूर होने की यह समस्या केवल भारत में ही नहीं लगभग पूरी दुनिया में बढ़ती जा रही है और इसके चलते आर्थिक गतिशीलता तो बढ़ रही है लेकिन खाद्य सुरक्षा बुरी तरह कम हो रही है। हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पाया गया है कि दुनिया में अभी 82 करोड़ ज्यादा लोग भूखे हैं और पिछले 3 वर्षों में हालात और ज्यादा बिगड़े हैं। 1 साल में भूख से पीड़ित लोगों की संख्या लगभग एक करोड़ बढ़ी है । संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े परेशान करने वाले हैं और भारत में तो यह दोहरी चिंता का विषय है । क्योंकि दुनिया भर में भूख से पीड़ित 82 करोड़ लोगों में से करीब 51 करोड़ लोग एशिया में और इसमें सबसे बड़ा हिस्सा भारत का है । एक तरफ युवा खेती से मुंह मोड़ रहे हैं दूसरी तरफ भारत में 20 करोड़ लोगों को पर्याप्त खाना नहीं मिलता है। जिसका असर बच्चों पर पड़ रहा है और उनके वजन सामान्य से कम पाए जा रहे हैं या लंबाई उम्र के हिसाब से कम हो रही है। देश की इतनी बड़ी आबादी कुपोषित है यह हमारे देश की विकास गाथा के लिए भी खतरा है। ऐसे में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले 5 वर्षों में भारत को 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था की बात करते हैं तो भूख और कुपोषण की यह जंजीरें बड़ी तेजी से खनकती हैं। यह भूख और कुपोषण अर्थव्यवस्था के लिए गति अवरोधक है। क्योंकि यह उत्पादन पर असर डालता है। अगर बच्चे तथा युवा स्वस्थ नहीं होंगे तो आर्थिक विकास कैसे होगा। अस्वस्थ तथा कुपोषित काम करने वालों की फौज उत्पादकता को कितना बढ़ा सकती है। डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट में कहा गया है की भारत की जीडीपी में कुपोषित वर्कफोर्स के कारण तीन लाख करोड़ की हानि होती है। जोकि जीडीपी के 2.5% के बराबर है। यही नहीं जलवायु परिवर्तन से पैदा विपरीत हालात का भी बहुत ज्यादा असर भारत पर होने वाला है। केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने तो पहले ही कहा है कि सूखे की वजह से भारत के खाद्य उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। इस बुरे असर के बरक्स विकास को लेकर सावधान होना जरूरी है।
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