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Tuesday, December 10, 2019

सीएबी आगे क्या होगा कोई जाने ना

सीएबी आगे क्या होगा कोई जाने ना 

बहुप्रतीक्षित और बहुचर्चित नागरिकता संशोधन विधेयक सोमवार को लोकसभा में पास हो गया। लोकसभा में जब इसे विचारार्थ  प्रस्तुत किया गया तो भारी वाद विवाद हुआ। हालात यहां तक पहुंचे एक सदस्य ने तो विधायक की प्रति तक फाड़ डाली। फिर भी इसके पक्ष में 293 मत मिले और विपक्ष में 82 वोट पड़े।
जैसी कि  उम्मीद थी पाकिस्तान ने इस विधेयक की आलोचना करते हुए कहा है कि यह अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार तथा  धर्म या आस्था  के आधार पर  भेदभाव  रोकने वाले अंतरराष्ट्रीय नियमों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन है। इस बीच पूर्वोत्तर भारत के छात्रों के एक संगठन मंगलवार की सुबह से 11 घंटे का बंद बुलाया है।
लोकसभा में इस विधेयक को पेश करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों को भारत की नागरिकता मिलेगी। विधेयक पर आपत्ति उठाते हुए कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि इसका निशाना देश के अल्पसंख्यक लोगों पर है। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5,10 ,14 ,15 की मूल भावना का उल्लंघन करता है। गृहमंत्री ने जवाब में कहा कि यह  .001 प्रतिशत भी अल्पसंख्यकों के लिए अभिप्रेत नहीं है। कई राजनीतिक और सामाजिक तबके इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। उनका मानना है कि बांग्लादेश अफगानिस्तान और पाकिस्तान के हिंदू ,बौद्ध, जैन ,पारसी, ईसाई और सिख धर्मावलंबी को भारतीय नागरिकता देने का इसमें प्रस्ताव है इसमें मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। संविधान विशेषज्ञों के अनुसार इसके पहले 1955 में नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया गया था उसके अनुसार अवैध तरीके से बाहर से आए लोगों जो परिभाषा तय की गई थी, इसके अनुसार इसकी दो श्रेणियां थी,  एक वह लोग जो बगैर पासपोर्ट या वीजा के या बिना किसी कागजात के भारत में दाखिल हुए हैं और दूसरे हुए जो सही दस्तावेजों के साथ रहे हैं लेकिन एक तयशुदा अवधि के बाद भी यहां रुके रह गए हैं। इसी में संशोधन किया जा रहा है। बांग्लादेश ,पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आने वाले 6 समुदाय के लोगों को अब अवैध या घुसपैठिया  नहीं माना जाएगा । लेकिन इसमें मुसलमान शब्द नहीं है। यानी इन तीनों देशों से जो आए हैं और अगर मुसलमान हैं तो उन्हें घुसपैठिया माना जाएगा।  ऐसे लोगों को भारत में नागरिकता अवसर नहीं मिलेगा। इसीलिए राजनीतिक नेता इसे मुस्लिम समुदाय के साथ भेदभाव वाला बताकर समाज में असंतुलन पैदा करना चाहते हैं।
गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में कहा कि शरणार्थी और घुसपैठिए में फर्क होता है। वे लोग जो किसी जुल्मों सितम के कारण भारत में आए या अपने धर्म की रक्षा के लिए या अपने परिवारों की महिलाओं की रक्षा के लिए भारत में आए वह शरणार्थी हैं और जो लोग गैर कानूनी ढंग से यहां आए वे घुसपैठिया हैं। उन्होंने कहा कि रोहिंग्या को नहीं स्वीकार किया जाएगा मैं इसलिए पूरी तरह से साफ करना चाहता हूं  कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर हमारा है और वहां के लोग भी हमारे हैं। आज भी हम उनके लिए जम्मू कश्मीर विधानसभा में 24 सीटें आरक्षित रखे हुए हैं। गृह मंत्री ने कांग्रेस की बात का करारा जवाब दिया और कहा कि यह संविधान की धारा 14 का उल्लंघन नहीं है। 1991 में भारत में हिंदुओं की आबादी 84% थी और 2011 में यह घटकर 79% हो गई 1991 में भारत में मुस्लिमों की आबादी 9.8% थी आज  14.33% हो गई है। हमने कभी भी धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं किया और ना ही करेंगे।

अब यह विधेयक राज्यसभा में पेश किया जाएगा इसके लिए भाजपा ने सदन में अपने सदस्यों को 10 और 11 दिसंबर के लिए व्हिप जारी किया है।
        यह भारतीय नागरिकों के पक्ष में है लेकिन भारत में कुछ लोगों का सुर बदल रहा है। इस विधेयक के समर्थकों को बंटवारे की बात फिर से उठाते सुन रहे हैं। वह बकाया मसलों जैसे जुमले का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे हैं पर गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ न्याय आदि की बात से लगभग साफ साफ संकेत दे रहे हैं कि उनका कहना है कि यह अधिनियम पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों से किए गए वादे को निभाता है। वादा किया था इस पर बहस हो सकती है इसमें कोई संदेह नहीं है। इस देश में मुसलमानों के लिए अपने जिस एक मुल्क पाकिस्तान की कल्पना की गई थी उस के लिए संघर्ष करके हासिल किया था लेकिन इसका मतलब यह नहीं था इसके बाद भारत में उनका घर नहीं रहेगा। यह भी सच है कि मजहब के आधार पर आबादी का बहुत बड़ी संख्या में बदल बदल हुआ जिसमें भारी खून खराबा, कत्लेआम और बलात्कार इत्यादि हुए। पश्चिमी क्षेत्र में यह बदलाव करीब 2 साल में पूरा हो गया। भारत के पंजाब में काफी मुसलमान रह गए तो पाकिस्तान के पंजाब में काफी कम हिंदू बच गए थे। यह सिलसिला 1960 के दशक तक थोड़ा बहुत चला। 1965 के युद्ध के बाद फिर अदला बदली हुई और फिर उसके बाद यह सिलसिला बंद हो गया। लेकिन पूर्वी भारत में इसकी तस्वीर बहुत अलग थी। कई कारणों से पूर्वी पाकिस्तान और भारत के पश्चिम बंगाल, असम एवं त्रिपुरा के बीच ऐसा नहीं हो सकता। बंगाली मुसलमानों की बहुत बड़ी आबादी भारत में रह गयी और हिंदुओं की आबादी तत्कालीन  पूर्वी पाकिस्तान में रह गई। दंगे फसाद होते रहे और जवाबी अदला बदली भी होती रही। इसे रोकने के लिए नेहरू- लियाकत समझौता हुआ। जिसमें काफी स्पष्टता  और विस्तार से कई शर्ते जोड़ी गयी थीं। भाजपा का आज यह कहना है कि बंटवारे के एक बकाया मसले का यह नया विधायक जवाब है। इसका मुख्य कारण है कि पाकिस्तान ने नेहरू - लियाकत समझौते में  अपने वायदे को नहीं निभाया।  यहीं से हमारा सामना इतिहास की जटिलताओं से होने लगा। विख्यात इतिहासकार सी एच फिलिप्स ने अपनी किताब "पार्टीशन ऑफ इंडिया" में इस जटिलता की ओर इशारा किया है। उनके अनुसार पहली जटिलता थी कि भारत के संस्थापकों ने जो धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बनाना चाहा उसमें जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धांत के लिए कोई जगह नहीं थी और दूसरी कि पुराने इतिहास के अंत और नए इतिहास की शुरुआत की  रेखा कहां मानी जाए, तीसरे क्या राष्ट्रीय और स्थानीय पर्याय हैं ,क्या धर्म में और जातीयता तथा भाषा में फर्क नहीं है। लेकिन पूरब की हालत कुछ दूसरी थी। असम की आबादी घनी नहीं थी 20 वीं सदी की शुरुआत में पूर्वी बंगाल से बहुत बड़ी संख्या में लोग यहां आए वे मूलतः आजीविका की तलाश में आए थे ।  1931 में  असम में जनगणना करने वाले अंग्रेज अधिकारी सीएम मुल्लन ने पहली बार उनके लिए "घुसपैठ" शब्द का प्रयोग किया। मुल्लन ने लिखा यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है जो असम के भविष्य और असमी संस्कृति सभ्यता को हमेशा के लिए बदल सकती है। 1947 के पहले मुसलमान तो रह गए लेकिन इसके बाद प्रताड़ित हिंदू यहां आने लग गए।  पूरे क्षेत्र में जातीय संतुलन बिगड़ गया और यही वजह है कि सीएबी असम की चिंताओं को दूर करने में नाकाम है। यहां प्रमुख चिंता धर्म को लेकर नहीं है बल्कि जातीयता, संस्कृति और राजनीतिक सत्ता को लेकर है। आर एस एस ने और भाजपा में विगत 3 दशकों में इसे बदलने की कोशिश की लेकिन कुछ हो नहीं पाया, क्योंकि ज्यादातर मुसलमान आजादी के पहले के लोग हैं। उन्हें नागरिकता से इनकार नहीं किया जा सकता। बंगाली हिंदू हाल के हैं यही वजह है कि एनआरसी के तहत जिन 19 लाख लोगों को खारिज किया गया है उनमें ज्यादातर या कह सकते हैं 60% के आसपास गैर मुस्लिम हैं। यहीं आकर भाजपा एक विरोधाभास में फंस जाती है। इंदिरा- मुजीब समझौते के अनुसार 23 मार्च 1971 को कटऑफ तारीख तय किया गया था लेकिन इस तारीख को अगर सामने रखें तो ज्यादा हिंदू फंसते हैं तो फिर कितना पीछे जाएं । भाजपा इसे ताजा सीएबी के जरिए हल करने की कोशिश कर रही है। असम वाले से मानेंगे नहीं। भाजपा को भी पता है कि सीएबी और इसके साथ एनआरसी के विचार शुरू से ही व्यर्थ हैं लेकिन कुछ तो करना होगा! इसका विरोध जरूर होगा। जो इसका विरोध करेंगे उन पर मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप लगाकर राजनीतिक लाभ तो मिल ही जाएगा बस यही पर्याप्त है।


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