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Monday, December 9, 2019

क्या हम सचमुच गुस्से में हैं?

क्या हम सचमुच गुस्से में हैं?

विगत कुछ दिनों से, फर्ज कर लीजिए, हफ्ते भर से ज्यादा वक्त होगा देश में महिलाओं के खिलाफ कुछ ऐसी घटनाएं हुईं जो बेशक दहला देने वाली थी और हम उसे देख कर सबसे ज्यादा आक्रोशित भी हुए। लेकिन इसका नतीजा क्या हुआ, या आगे क्या होगा?
रविवार को सिवान जंक्शन पर सरेआम एक महिला को किसी ने गोली मार दी वहीं उसकी मृत्यु हो गई उसके साथ की महिला शायद उसकी मां थी चीखती चिल्लाती रही कोई उसकी मदद के लिए सामने नहीं आया सब वीडियो बनाने में मशगूल थे। 2 दिन पहले का हमारा आक्रोश इस तरह दिखाई पड़ रहा था कोई मददगार नहीं था एक बेबस महिला प्लेटफार्म पर चीख रही थी और सामने पड़ी थी एक लहूलुहान लाश। क्या यही हमारा आक्रोश है? आगे क्या होगा कोई नहीं जानता।
      2012 में निर्भया कांड हुआ था। कई दिनों तक मोमबत्तियां जलाई गई थीं, धरने हुए थे, नारे लगे थे । ऐसा लग रहा था सब कुछ बदल जाएगा लेकिन इन 7 वर्षों में कुछ नहीं बदला। अब इन घटनाओं को लेकर भी ऐसा ही महसूस हो रहा है। लेकिन क्या बदलेगा यह कोई ठीक से नहीं जानता।         
     अगर अपराध के रिकॉर्ड देखेंगे तो उत्तर प्रदेश महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक जगह है।देश में सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य में महिलाओं के प्रति सबसे ज्यादा अपराध हुए हैं। 2011 की गणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश में महिलाओं की संख्या 9 करोड़ 53 लाख है।  राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि इस राज्य में 1 वर्ष में महिलाओं के साथ हिंसा के 56000 वाकये हुए। पुराना रिकॉर्ड अगर देखें तो 2015 में महिलाओं के साथ 35908 ,2016 में 49262 घटनाएं हुईं जो 2017 में बढ़कर 56000 हो गईं।  उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा नंबर है महाराष्ट्र का। वैसे अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के 2017 के आंकड़े बताते हैं कि देशभर में महिलाओं के साथ हिंसा और अपराध की घटनाएं बढ़ी हैं। उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश महाराष्ट्र पश्चिम बंगाल राजस्थान कुछ ऐसे राज्य हैं जहां महिलाओं के साथ सबसे ज्यादा अपराध हुए हैं। उन्नाव कांड की रोशनी में देखें तो ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं के प्रति अपराध की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। पूरे देश में उत्तर प्रदेश एक ऐसा प्रांत है जहां पूरी घटनाओं का 15.6 प्रतिशत महिलाओं के प्रति हैं इसके बाद महाराष्ट्र 8.9 प्रतिशत और मध्य प्रदेश 8.3 प्रतिशत है।
        हैदराबाद से लेकर उन्नाव तक की घटनाओं से पूरा देश का आक्रोश अखबारों की खबरें और टीवी चैनलों के समाचारों मैं दिख रहा है और वह समस्त दृश्य और श्रव्य वर्णन इस बात के गवाह हैं कि पूरा देश बहुत आक्रोश में है लेकिन यह क्लीव आक्रोश  क्या कर सकता है? क्या इसका कोई सकारात्मक नतीजा निकलेगा? यहां एक सवाल उठता है कि क्या सचमुच हम आक्रोशित हैं और अगर आक्रोशित हैं इसका असर क्या होगा? यह आक्रोश कितने दिनों तक टिकेगा? ऐसा इसलिए पूछा जा रहा है की आक्रोश के पीछे कई बार राजनीतिक एजेंडे का स्वरूप भी दिखाई पड़ता है। कुछ लोग इस गुस्से में मजहबी एंगल भी ढूंढ लेते हैं । थोड़े-थोड़े थोड़े दिनों के बाद देश ऐसे ही कुछ  कांडों पर जान समुदाय आक्रोशित होता है और उसके बाद सब कुछ शांत हो जाता है। ऐसा नहीं लगता है कि आक्रोश जाहिर करने के पहले हमें अपनी जागृत संवेदना के साथ कुछ ठोस करना होगा? यद्यपि, क्रोध प्रकट करना कोई गलत नहीं है क्योंकि एक आम आदमी इससे ज्यादा कर भी क्या सकता है। लेकिन हमें वास्तव में इसके समाधान के लिए इसके कारणों को समझना होगा।
          हैदराबाद के दर्दनाक कांड के बाद  राज्य कृषि मंत्री की एक बड़ी हास्यास्पद टिप्पणी आती है कि "बेहतर होता , पीड़िता अपने बहन को फोन करने की बजाय पुलिस को फोन करती। " जबकि हकीकत यह है कि थानों में भी महिलाओं के साथ यौन अपराध की घटनाएं सुनी गई हैं । राजस्थान के थाने के भीतर का कांड अभी बहुत ज्यादा पुराना नहीं है। रुकैया की चीखें अभी भी कानों में गूंज रही है। जो लोग कठोर कानून ,न्यायपालिका और सरकार को ही इनका समाधान मानते हैं। वह शायद  विषय की गंभीरता को समझे बिना फौरी तौर पर अपनी प्रतिक्रिया देते रहते हैं। कानून का भय निश्चित ही समाज में जरूरी है। ऐसी आपराधिक घटनाओं के बाद पुलिस को बहुत जल्दी अपनी जांच पूरी करनी चाहिए और समस्त रिपोर्ट जल्द से जल्द कोर्ट के सामने प्रस्तुत करना चाहिए। जल्द से जल्द इसकी सुनवाई होनी चाहिए और इस पर इंसाफ हो जाना चाहिए। अपराधी को दंड  आनन-फानन में मिलना चाहिए। यकीनन इससे अपराधियों में कानून का भय बनेगा और अपराध कम होंगे। लेकिन इन सब बातों में क्या हम अपने सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हैं या हम उस उत्तरदायित्व को तय करते हैं कि कठोर कानून बेहतर पुलिसिंग और त्वरित न्याय व्यवस्था का निश्चित ही असर होगा। लेकिन जब तक इन पर कोई सामाजिक प्रक्रिया नहीं होगी इसके प्रभाव  नहीं पड़ेंगे। ऐसे में अपराध से निपटने के लिए केवल सरकार, राजनीति, पुलिस और न्यायपालिका पर ही सारी जिम्मेदारी छोड़कर केवल कोरा आक्रोश व्यक्त किया जाए। उससे ज्यादा अच्छा तो होगा कुछ सकारात्मक सुझाव राजनीतिक दलों ,सामाजिक संगठनों, अध्यात्मिक धार्मिक संगठनों ,शैक्षिक संस्थाओं और समाज के बुद्धिजीवी वर्गों को पहल करनी चाहिए। यही नहीं, ऐसे अपराधियों की मनोदशा का कुछ मनोवैज्ञानिकों द्वारा शोध किए जाने की आवश्यकता है। शहरों में तो पास पड़ोस के लोग आपस में परिचित तक नहीं होते। उसमें सुरक्षा की गारंटी कैसे संभव हो सकती है। कानून के भय से बड़ा  समाज का होता है । समाज ने खुद ही इस भय को दूर कर दिया। वस्तुतः बलात्कार की शिकार अधिकांश खरगोन के भीतर लोक लज्जा के परदे में दबी रह जाती है और दरिंदों का क्रूर है अट्टहास जारी रहता है इस पर लगाम लगाना जरूरी है।


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