2016 और 2017 दो ऐसे साल थे जिसने असेतु हिमाचल भाजपा का प्रसार देखा। लेकिन 2019 का लोकसभा चुनाव बीतते- बीतते इस प्रसार में संकुचन होने लगा और पार्टी महाराष्ट्र से लेकर झारखंड तक अपने कई गठबंधन के साथ पराजित हो गई। लेकिन सभी गठबंधन टूटने या नाकाम होने का कोई एक कारण नहीं है या कहें समान कारण नहीं है। सबके अलग-अलग कारण हैं। जैसे झारखंड में पराजय का मुख्य कारण स्थानीय बनाम बाहरी लोग है। झारखंड वस्तुतः ऐसा आदिवासी बहुल क्षेत्र है जहां शिक्षा का प्रसार तो हुआ लेकिन रोजी रोजगार का नहीं हो सका और कोई भी सरकार जो स्थानिक नहीं है वह यहां ज्यादा प्रभाव नहीं डाल सकती। स्थानीय मुद्दों पर राष्ट्रीय भावात्मक मुद्दे असरदार नहीं होते हैं। यही नहीं आदिवासी समाज में व्यक्तिगत छवि बहुत गंभीर असर डालती है। यहां तक कि नकली या कहें मिलावटी घी या शहद बेचने वालों को भी उस समाज में बिरादरी बाहर होते देखा गया है। ऐसे समाज में रघुवर दास की छवि बहुत अच्छी नहीं थी। भाजपा को जिन इलाकों में कम वोट मिले वे ज्यादा आदिवासी बहुल थे, जैसे पलामू ,दक्षिण छोटानागपुर, संथाल परगना ,उत्तर छोटा नागपुर और कोल्हान। यह ऐसे क्षेत्र हैं जहां सबसे ज्यादा आदिवासी हैं और उनकी व्यक्तिगत मान्यताओं को यहां ज्यादा सम्मान दिया जाता है। यही नहीं, आदिवासी समाज में खास करके कोल बहुल समाज में लोकतंत्र दूसरे तरह का होता है। उसमें जो प्रमुख होता है उसकी हैसियत परिवार के प्रमुख की तरह होती है जिसमें प्रतिष्ठा तभी तक रहती है जब आप परिवार की देखरेख करें। अहंकार का इसमें कोई स्थान नहीं होता। जबकि रघुवर दास की छवि एक अहंकारी नेता की हो गई थी जिसके कारण वहां का समाज उनसे नफरत करने लगा था। दूसरी तरफ सरजू राय की छवि एक दोस्त की बन गई थी वह सभी के साथ बराबर सलूक करते थे। ठीक परिवार के मुखिया की मानिंद मोदी और अमित शाह किसी कारणवश समाज के इस सोच को रेखांकित नहीं कर पाए और रघुवर दास की पीठ ठोकते रहे नतीजा यह हुआ कि उनके विरोधी खेमे की नाराजगी बढ़ती गई और भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके अलावा आदिवासियों के लिए जमीन और उस पर हक प्रमुख होता है। छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम तथा संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम में संशोधन का झारखंड के आदिवासियों पर बड़ा ही मानसिक प्रभाव पड़ा। एक तरह से वह नाराज हो गए। हालांकि, यह संशोधन अभी कानून नहीं बन सका है लेकिन आदिवासियों में एक खास तरह का भीत भाव भर गया और इससे संपूर्ण समाज में एक विपरीत संदेश गया। भाजपा यह समझा नहीं सकी कि यह संशोधन आदिवासियों के लिए भलाई वाला है। यही नहीं पिछले वर्ष झारखंड की कई जगहों पर मॉब लिंचिंग के जरिये अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया। वहां भूख के कारण कई लोगों की मृत्यु हो गई। आंकड़ों के मुताबिक विगत 5 वर्षों में 22 लोगों की भूख के कारण मृत्यु हुई है यह लोगों में एक नेगेटिव सेंटीमेंट को तैयार करने में कामयाब हो सका। क्योंकि झारखंड में ईसाइयों को अल्पसंख्यक मानकर उन पर हमले हुए थे । जबकि ईसाई समुदाय वहां के लोगों को पढ़ाने और विकास का अवसर देता है। विपक्ष ने इस स्थिति का फायदा उठाया और भाजपा न जाने किन कारणों से लोगों को अपनी बात नहीं बता सकी। यही नहीं धर्मांतरण को देखकर भाजपा के नेताओं के सार्वजनिक बयान ने भी वहां के लोगों में गुस्सा भर दिया। क्योंकि ईसाई बनने के बाद ही उन्हें पढ़ने लिखने के अवसर प्राप्त होते हैं झारखंड के बेहतरीन स्कूल कॉलेज तथा अस्पताल ईसाइयों के ही हैं और उनमें इमानदार स्पष्ट दिखती है पिछले 5 वर्षों में झारखंड की बेरोजगारी और अफसरशाही के खिलाफ रघुवर दास की नीतियों में आग में घी का काम किया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड में कई सभाएं की लेकिन उनका असर नहीं हुआ, क्योंकि वह धारा 370 राम मंदिर और नागरिकता संशोधन विधेयक जैसे मुद्दों पर बातें करते हैं स्थानीय मुद्दों को उन्होंने अभी तक प्रचारित नहीं किया जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने स्थानीय मुद्दों को ही अपने प्रचार का मुद्दा बनाया यही नहीं रघुवर दास की बाहर के आदमी की छवि थी और उन्हें मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी ने झारखंड के स्थानीय समाज के सेंटीमेंट पर प्रहार किया है ।
आंकड़ों को देखें तो भाजपा और आजसू का गठबंधन टूट गया तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठबंधन विजयी हुआ क्योंकि जहां भूख महत्वपूर्ण है वह हमारे काम नहीं आते। झारखंड की स्थिति ऐसी है जमीन के नीचे सारा खनिज दबा हुआ है यानी सोना दबा हुआ है और ऊपर आदिवासियों के गांव हैं। उस खनिज को वह इस्तेमाल नहीं कर सकते और बाहरी लोगों को खासकर बाहरी कंपनियों को खनिज का ठेका दिया जाता है सबकी आंख के सामने से उनकी दौलत राज्य से बाहर जाती है या उनके घर से बाहर जाती है और उस पर उनका कोई वश नहीं है। कभी इसी के कारण वहां असंतोष भड़का और निहित स्वार्थी तत्वों ने उन भोले-भाले आदिवासियों को जोड़कर नक्सली बना लिया । किसी तरह उन्हें मुख्यधारा में लाया गया लेकिन सरकार यह समझ नहीं पाई कि सरकार हर चीज को बड़े परिप्रेक्ष्य में देखती है । उसे 5 अरब की अर्थव्यवस्था का सृजन करना है जबकि यहां ग्राम केंद्र दृष्टिकोण की आवश्यकता है। हेमंत सोरेन की विजय इसी तथ्य की ओर इशारा करती है।
Tuesday, December 24, 2019
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