आज हमारे देश में जो छात्र आंदोलन चल रहे हैं वह कुल मिलाकर संभवत आपात स्थिति के बाद सबसे बड़ा छात्र आंदोलन है और इसका लक्ष्य और उद्देश्य स्पष्ट है कि भारत ऐसा लोकतंत्र नहीं हो सकता जो भेदभाव पर आधारित हो। यहां पहचान के आधार पर किसी को भी अलग नहीं किया जा सकता या उस पर निशाना नहीं साधा जा सकता। किसी भी आंदोलन के स्वरूप की भविष्यवाणी करना जरा कठिन होता है ।आज जो कुछ भी दिख रहा है वह है कि हम भविष्य की पीढ़ी के लिए कमजोर ढांचे वाला संवैधानिक विरासत, कमजोर संस्थान, अनिश्चित आर्थिक भविष्य जहरीले सार्वजनिक विचार तथा संक्षारक राजनीति छोड़ रहे हैं। हम भविष्य को पूरी कीजिए असुरक्षित और कमजोर नेताओं की जमात सौंप कर जा रहे हैं। इसलिए इस आंदोलन को अपने नारे और अपनी शब्दावली शब्दावली खोजनी होगी, अापने नेता ढूंढने होंगे और अपनी रणनीति तैयार करनी होगी ताकि नैतिक और संस्थानि चुनौतियाओं पुनरुद्धार हो सके। लेकिन कुछ संभावित चुनौतियां हैं जो अतीत के अनुभव खासकर के आपात स्थिति के अनुभवों पर आधारित हैं। फिर इस तरह से कहा जा सकता है कि आज जो संघर्ष है वह बहुत सरल नहीं है। क्योंकि यह लोकतंत्र की सुरक्षा और अधिनायकवाद के मुखालफत करता है इसमें सभी तरह की ताकतें जुड़ी हुई हैं। इसमें दो तरह के युद्ध हैं। पहला सरकारी अधिनायकवाद के खिलाफ और दूसरा समाज को विभाजित करने के प्रयास में जुटे संप्रदायवाद के विरुद्ध। यद्यपि दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। दोनों प्रक्रिया सरकार की ओर से ही संचालित की जा रही है लेकिन समाज में यह विरुद्ध उद्देश्यों की तरह दिखाई पड़ते हैं। भाजपा ने कई विधेयक पेश किए, तीन तलाक ,धर्म परिवर्तन विरोधी कानून और नागरिकता संशोधन विधेयक इत्यादि। नागरिकता संशोधन विधेयक जब कानून बन गया यह धर्मनिरपेक्षता का चोला पहनकर हमारे समक्ष आ गया। इस विषय को देखकर ऐसा लगता है की छद्म वेश बनाकर बहुसंख्यक वाद चुपचाप घुस आया है। यह सामरिक और नैतिक चुनौतियां हमारे सामने खड़े करेगा। सामरिक चुनौती यह है कि एक बार फिर इसके माध्यम से बहुसंख्यक वाद की शिनाख्त मजबूत होगी और नैतिक चुनौती होगी कि धर्मनिरपेक्षता को सभी व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता और समानता के रूप में प्रस्तुत करने वाले शब्दों का इजाद करना होगा। हमारी राजनीति में ऐसा अक्सर किया है। इसलिए नागरिकता संशोधन कानून से तब तक दो-दो हाथ नहीं किया जा सकता जब तक यह हमें आश्वस्त ना कर दे कि हमारे समाज में विभाजन नहीं होगा। सरकार को या कह सकते हैं सत्ता को इस संघर्ष में लाभ है। इसे दबाने का सरकार के पास अधिकार है और किसी भी प्रकार की हिंसा इस पर असर नहीं डाल सकती। सरकार या सत्ता सबसे पहले बिना सोचे समझे ताकत का उपयोग करेगी और जो वह कर रही है यदि इससे काम चल गया तो यह इसीसे मुक्ति पा लेगी। लेकिन जब इसका विरोध होगा तो सत्ता उस विरोध को दबाने के नाम पर इसका और ज्यादा उपयोग करेगी।
लेकिन सत्ता के समक्ष यह एक कठिन चुनौती है। क्योंकि अगर एक बार इस ताकत का उपयोग कर दिया गया है तो इससे दो तरफा प्रतिक्रियाएं होंगी और दोनों एक साथ होंगी। पहली प्रतिक्रिया होगी कि इस से छात्र आंदोलन भड़क उठेगा लेकिन साथ ही यह अव्यवस्था की परिकल्पना है। यह संप्रदाय वादी समुदाय को भी इस क्षण का उपयोग करने के लिए मजबूर कर देगी। इससे समाज में एक जटिल समस्या उत्पन्न हो रही है कई जगहों पर यह डर के रूप में भी व्याप गया है कि इससे मताधिकार समाप्त हो जाएगा। कोई भी उम्मीद कायम नहीं रह पाएगी। यह आंदोलन संचालन के विभिन्न स्तरों का युद्ध है साथ ही सूचनाओं के स्तरों का भी युद्ध है। क्योंकि आज के समाज में सूचनाओं के हथियार से भी जंग लड़ी जाती है। 70 के दशक में आर्थिक सुस्ती के पर्दे के पीछे अन्य सामाजिक आंदोलन छिपे लग रहे थे जिसमें लोग जुड़ते थे। उदाहरण के लिए श्रमिक आंदोलन यह आंदोलन सत्ता के विरुद्ध था आज भी जो आंदोलन है वह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर संप्रदायवाद के विरोध में है और सूचना तंत्र द्वारा संचालित किया जा रहा है इसका असर हम अपने परिवार के भीतर भी देख सकते हैं।
लेकिन हिंसा से भला नहीं हो सकता इसमें भीतर और बाहर जोखिम अंतर्निहित है।
Saturday, December 21, 2019
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